प्रकाशकों के लिए बने पॉलिसी, मिले पेंशन तो लौट जाएंगे साहित्यकारों के पुराने दिन
पश्चिमी चंपारण में साहित्यकारों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। डॉ. परमेश्वर भक्त और अन्य साहित्यकारों का कहना है कि साहित्य का सम्मान घट रहा है, प्रकाशक धोखाधड़ी कर रहे हैं और प्रशासन...
साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में घट रही घटनाओं को साहित्यकार अपनी लेखनी से सही और गलत के अंतर को रेखांकित करते हैं। समाज को नई दृष्टि देते हैं। लेकिन पश्चिमी चंपारण में साहित्यकारों की समक्ष आज कई तरह की चुनौतियां पेश आ रही हैं। एमजेके कॉलेज में पूर्व हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे वरीय साहित्यकार डॉ परमेश्वर भक्त बताते हैं कि आज साहित्यकार समझते हैं कि जो भी उन्होंने लिख दिया है वह छपना चाहिए। कई साहित्यकार ऐसे हैं जो अपनी लेखनी को ही गौर से पढ़ेंगे तो उसमें व्याकरण का बोध दिखाई नहीं देगा। कई प्रकाशक तो साहित्यकारों का पैसा लेकर भाग जाते हैं।
साहित्यकारों के समक्ष सम्मान की भी समस्या है, जो साहित्यकार लिख रहे हैं उन्हें एक दूसरे के प्रति सम्मान भी करना चाहिए। शहर के वरीय साहित्यकार डॉ. गोरख मस्ताना बताते हैं कि चंपारण आदिकाल से ही साहित्य की जमीन रही है। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली की राष्ट्रीय पहचान रही है। इनके अलावा सुंदर जी, आशुतोष पांडे, विमल राजस्थानी, एंथोनी दीपक विंध्याचल गुप्त, शिव प्रसाद किरण, राजेंद्र अनल ने इस धरती को साहित्य से सींचा है। लेकिन आज समाज और जिला प्रशासन साहित्य के विकास के प्रति उदासीन हो गया है। पहले हर बड़े उत्सव और कार्यक्रम में साहित्यकार को बुलाया जाता था, उन्हें सम्मान दिया जाता था प्रशासन मानदेय देता था। आज ऐसी हालत है कि प्रशासन के कोई भी कार्यक्रम में साहित्यिक कार्यक्रम नहीं होता है। पहले राज स्कूल और महाराजा पुस्तकालय में कार्यक्रम होता था। आज कहीं जगह नहीं मिलती है। एमजेके कॉलेज की पूर्व उर्दू विभागाध्यक्ष डॉ शमसुल हक बताते हैं कि मोबाइल के कल्चर ने पूरी तरह से समाज को बर्बाद कर दिया है। दिन भर लोग रील देखने में समय व्यतीत करते हैं। रील के चलन से सबसे ज्यादा फर्क किताबों पर पड़ा है। लोग किताबों से दूर होते जा रहे हैं। साहित्यकार भी अपने पीछे कोई पीढ़ी नहीं छोड़े हैं। उर्दू साहित्य की हालत और खराब हो चुकी है। वरीय साहित्यकार डॉ. जफर इमाम बताते हैं कि 21वीं सदी में दुनिया भर में तरक्की की बयार बही। इससे समाज का नैतिक पतन होने लगा। साहित्यकार धन दौलत की तरफ बढ़ने लगे और साहित्य कमजोर पड़ने लगा। जापान, जर्मनी, नॉर्वे में साहित्यकारों के लिए पेंशन योजना है, लेकिन भारत में साहित्यकारों की कोई पूछ नहीं है। अभिषेक बाजपेई कहते हैं कि अखबारों में बेतिया की बतकहीं कॉलम छपना चाहिए। साहित्यिक स्वतंत्रता की कमी, रचनाओं की सेंसरशिप, साहित्यिक कार्यों के लिए उचित समर्थन की कमी। इन समस्याओं के कारण साहित्यकार रचनात्मकता को व्यक्त करने में संघर्ष करते हैं और अपनी साहित्यिक गतिविधियों को जारी रखने के लिए जूझते हैं। इधर डॉ. जगमोहन कहते हैं कि साहित्यिक विरासत एवं नामचीन साहित्यकारों की कृतियों के संरक्षण व संवर्धन हेतु साहित्यिक शोध एवं अध्ययन केन्द्र की स्थापना समय की मांग है।
प्रस्तुति -गौरव कुमार
साहित्यकारों की जयंती और पुण्यतिथि पर होगा कार्यक्रम
कला संस्कृति पदाधिकारी साहित्यकारों की समस्या पर बोलते हुए जिला कला संस्कृति पदाधिकारी राकेश कुमार ने बताया कि इस विभाग में पहले कोई पदाधिकारी नहीं थे, इसलिए कुछ कार्यक्रमों में उन्हें नहीं बुलाया गया होगा। लेकिन अब सरकार द्वारा पदाधिकारी की नियुक्ति की गई है। ऐसे में कला से संबंधित जितने भी मामले हैं इसमें संबंधित लोगों को बुलाया जाएगा। आने वाले दिनों में साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त साहित्यकार गोपाल सिंह नेपाली की जयंती अथवा पुण्यतिथि पर कार्यक्रम का आयोजन होता है तो उसमें स्थानीय साहित्यकारों को भी बुलाया जाएगा। ऐसी योजना मैंने बनाई है। इसके अलावा अन्य जितने कार्यक्रम साहित्य से संबंधित होंगे उसमें साहित्यकारों को मंच प्रदान किया जाएगा। इससे कि जिले में साहित्य की भूमि एक बार फिर से उपजाऊ हो सके।
-राकेश कुमार, जिला कला संस्कृति पदाधिकारी
सुझाव
1. प्रकाशकों की जवाबदेही जिला प्रशासन और सरकार द्वारा तय होनी चाहिए। ताकि साहित्यकारों का पैसा जाया न हो।
2. जिला प्रशासन को साहित्यिक कार्यक्रम कराना चाहिए। युवा व पुराने साहित्यकारों को इससे मंच मिलेगा।
3. राज स्कूल और महाराजा पुस्तकालय के ग्राउंड को ठीक करके वहां साहित्यकारों के लिए एक जगह बनाई जाए।
4. जापान, जर्मनी और नार्वे की तरह ही साहित्यकारों के लिए पेंशन की योजना को शुरू किया जाना चाहिए।
5.नये युवा जो साहित्य की ओर प्रेरित हो रहे हैं समाज में उन्हें सम्मान मिले। उनके लिए रोजगार की व्यवस्था हो।
शिकायतें
1. साहित्यकारों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या साहित्य के प्रकाशित नहीं होने की है। प्रकाशक पैसा लेकर भाग जाते हैं।
2. जिले में साहित्यिक कार्यक्रम का नहीं होने से साहित्यकार पिछड़ते जा रहे हैं। उन्हें मान सम्मान नहीं मिल पा रहा है।
3. पहले राज स्कूल के ग्राउंड में और महाराजा पुस्तकालय में कार्यक्रम होता था। अब जगह नहीं मिलता है।
4. साहित्यकारों को जिला प्रशासन द्वारा कोई भी मानदेय नहीं दिया जाता है। अब वे दूसरे रोजगार की व्यवस्था में लगे हैं।
5. मोबाइल के आने के बाद रील के चलन बढ़ने से पुराने लोग भी अब साहित्य की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं।
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