चल रे मन लंदन की ओर
साहित्य की दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है। पाउंड बरस रहे हैं, यूरो बरस रहे हैं, डॉलर बरस रहे हैं। सौभाग्यशाली मालामाल हो रहे हैं। मूल की जगह अनुवाद का जलवा है। देसी भाषाओं की रचनाएं अंग्रेजी में ‘प्रॉसेस’ की जा रही हैं…

सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार
साहित्य की दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है। पाउंड बरस रहे हैं, यूरो बरस रहे हैं, डॉलर बरस रहे हैं। सौभाग्यशाली मालामाल हो रहे हैं। मूल की जगह अनुवाद का जलवा है। देसी भाषाओं की रचनाएं अंग्रेजी में ‘प्रॉसेस’ की जा रही हैं। बुकर पर बुकर मिले जा रहे हैं और मुझ जैसा ईर्ष्यालु क्षुब्ध होकर शाप भी नहीं दे रहा, वरना एक वक्त मैं हर किसी की उपलब्धि पर जलता-कुढ़ता था। किसी का कुछ छपता, तो मेरे दिल में मीर की गजल सुलगने लगती ये धुंआ सा कहां से उठता है।
किसी को पंजी-दस्सी वाला इनाम मिलता, तो लगता कि दिया तो मुझे ही जा रहा था कि बीच में उसे कोई चुरा ले गया। मन मसोसकर रह जाता। दिल धू-धूकर जलता। कोई अकादमी-टकादमी हो जाता है, तो मेरी जलन के कहने ही क्या? ऊपर से बधाई देता, लेकिन अंदर ऐसे भाव उमड़ते, जिनको यहां लिख भी नहीं सकता।
इसीलिए कहता हूं कि साहित्य में कोई सगा नहीं होता। जिस तरह से उधार को प्रेम की कैंची कहा जाता है, उसी तरह साहित्य भी प्रेम की कैंची है। हर साहित्यकार एक-दूसरे को काटता ही है। साहित्य में शंकर-जयकिशन या लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल नहीं होते। होते भी हैं, तो देर-सबेर बिखर जाते हैं। सब ऊपर से दोस्त, अंदर से दुश्मन होते हैं और एक-दूसरे को काटते रहते हैं।
आज मैं साहित्य के इस दुर्लभ सत्य को जान पाया हूं, इसलिए उक्त प्रकार के सारे माया-मोह, यानी मेर-तेर के भाव से ऊपर उठ गया हूं। भेद में अभेद देखने लगा हूं : साहित्य न तेरा है, न मेरा है। मेरा भी तेरा है, तेरा भी मेरा है, सबका है! काहे का जलना-फुंकना। इसीलिए इन दिनों जब किसी को कुछ मिलता है, तो लगता है कि मुझे ही मिल रहा है।
सच! जब से मेरा नकारात्मक मन ‘पॉजिटिव’ हुआ है, तब से मेरी भी पूछ बढ़ गई है। हर साहित्य-समारोह में बुलाया जाता हूं। मैं इसी को अपना सम्मान मानता हूं। दरअसल, जैसे ही मैंने साहित्य में ‘पॉजिटिव’ होने के फायदे देखे और लोगों को कहीं से कहीं पहुंचते देखा, तो मैं भी ‘पॉजिटिव’ वाली लाइन में लग लिया और पाया कि इसका ‘मक्खन’ जितना लगाओ, उतना ही अच्छा लगता है। आज उसका नंबर लगा, तो कल तेरा भी लग सकता है।
और, जब से कुछ सम्मान वाया अंग्रेजी और वाया लंदन आने लगे हैं, तब से मेरा मन रे मन चल अब लंदन की ओर गाने लगा है, क्योंकि फिर से कोलोनियल प्रभु अपनी कृपा बरसाने लगे हैं और यहां की देसी भाषाओं के साहित्य को ‘ग्लोबल मार्केट’ में ले जाने पर तुले हैं। ऐसे सम्मान मिलते ही लेखक ‘लोकल’ से ‘ग्लोबल’ हो उठता है।
कितना अच्छा है कि आज भी अपने लॉर्डशिप जी हम पर उतने ही कृपालु हैं, जितने कोलोनियल काल में थे। तब वे यहां से कच्चा माल सस्ते में ले जाते और वहां से पक्का माल महंगा बनाकर भेजते और इस तरह हमें सभ्य बनाते रहते। अब वे भाषायी साहित्य के कच्चे माल को ले जाकर, अंग्रेजी में अनुवाद कराकर, किसी अंग्रेज प्रकाशक से प्रकाशित कराके और फिर किसी ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ लेखक को तिलकित करके हमें बुकर बनाते हैं और हम भी लाइन में लग जाते हैं।
कितना आनंद है कि वे फिर से अपना नया कोलोनियल दुलार लुटाकर हमें अंग्रेजी लेवल का साहित्यिक सभ्य बनाते हैं और हमारे दुख-दर्द की कहानी को अपने पॉवर्टी टूरिज्म का हिस्सा बनाते हैं, जिसको देख हम धन्य-धन्य होते रहते हैं। यहां मूल लेखक से ज्यादा महत्वपूर्ण है अुनवादक, क्योंकि अनुवादक ही मूल रचना को सम्मान लायक बनाता है।
साहित्य के इस परम तत्व को अब आकर जाना हूं कि आज तक जो भी बना है, लाइन में लगकर ही बना है, तोड़कर नहीं। यह भी अच्छा है कि लॉर्डशिप जी को अभी तक लाइन पसंद हैं, इसलिए लग जा बेटा लंदन वाली लाइन में, भली करेंगे राम!
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