Why Azam Khan voters turned towards BJP in Rampur By Election 2022 Rampur Politics Inside Story राजनीति में रामपुरी चाकू की धार कुंद कैसे हुई, आज़म खान के वोटर BJP की तरफ क्यों खिसके? इनसाइड स्टोरी, Uttar-pradesh Hindi News - Hindustan
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राजनीति में रामपुरी चाकू की धार कुंद कैसे हुई, आज़म खान के वोटर BJP की तरफ क्यों खिसके? इनसाइड स्टोरी

आजम खान ने 1980 में यहां से पहली बार जीत दर्ज की थी, जिसका सिलसिला 13वीं विधानसभा को छोड़कर लगातार चलता रहा है। लोकसभा सांसद के तौर पर चुने के बाद 2019 में उकी जगह उकी पत्नी तंजीन फातिमा चुनी गईं।

Pramod Praveen लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीFri, 16 Dec 2022 02:28 PM
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राजनीति में रामपुरी चाकू की धार कुंद कैसे हुई, आज़म खान के वोटर BJP की तरफ क्यों खिसके? इनसाइड स्टोरी

उत्तर प्रदेश के रामपुर की इन दिनों खूब चर्चा हो रही है। चर्चा इसलिए कि 1952 में हुए पहले विधानसभा चुनाव से लेकर आज तक इस जिले की रामपुर विधानसभा सीट पर कोई हिन्दू उम्मीदवार जीत नहीं सका था। यह पहली बार हुआ है, जब वहां से एक हिन्दू उम्मीदवार ने बीजेपी के टिकट पर उप चुनाव में जीत दर्ज की है। इससे पहले करीब चार दशक तक समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान का ही सियासी जादू यहां चलता रहा है।

आजम खान ने 1980 में यहां से पहली बार जीत दर्ज की थी, जिसका सिलसिला 13वीं विधानसभा को छोड़कर लगातार चलता रहा है। बीच में उनके लोकसभा सांसद के तौर पर चुने के बाद 2019 में उकी जगह उकी पत्नी तंजीन फातिमा ने रामपुर सीट से नुमाइंदगी की। 2022 के मार्च में फिर से आजम खान इस सीट से चुने गए लेकिन 2019 के एक हेट स्पीच मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद उनकी विधायकी चली गई। इसकी वजह से यहां चुनाव हुए लेकिन उनके उम्मीदवार आसिम रजा जीत नहीं सके और बीजेपी के उम्मीदवार आकाश सक्सेना 8 दिसंबर को हुई मतगणना में 34,136 वोट से विजयी हुए।

रामपुर वैसे तो कई बदलावों का साक्षी रहा है लेकिन मौजूदा सियासी बदलाव नई कहानी बयां कर रहा है। हिन्दी फिल्मों में कभी यहां बनने वाली रामपुरी चाकुओं की धाक थी और उसकी धार की नोक पर फिल्मों के विलेन जहां पीड़ित पर अपना रौब दिखाता था, वहीं दर्शकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ता था। समय बदला तो फिल्मों से रामपुरी चाकू की धमक गायब हुई और रामपुर के नवाब की धाक भी चली गई।

बदल गया मिजाज:
रामपुर कभी छोटे-छोटे उद्योग धंधों के लिए भी जाना जाता था लेकिन आजम खान ने उन्हीं उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों के बल पर 1990 के दशक में राजनीति में बड़ा मुकाम हासिल किया। आज न तो उद्योग धंधे बचे हैं, न आजम खान का सियासी मुकाम। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि दशकों में रामपुर का मिजाज अब बदल चुका है। 

रामपुर में 60% मुस्लिम वोटर:
आंकड़ों की बात करें तो रामपुर में 60 फीसदी मतदाता मुस्लिम हैं, जिनके दम पर आजम खान 1980 से अब तक कुल 9 बार विधायक चुने जा चुके हैं। आजम खान की विधायकी जाने के बाद सपा ने यहां से उनके करीबी आसिम रज़ा को उतारा जो सैफी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इस समुदाय की आबादी यहां बहुत कम है, जबकि पठानों की आबादी सबसे ज्यादा है।

मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी और बंटवारा:
'द प्रिंट' के मुताबिक, रामपुर विधानसभा क्षेत्र में पठान मतदाता करीब 80 हजार, जबकि तुर्क करीब 30,000 हैं, जबकि सैफी सिर्फ 3,000 के करीब हैं। सैफी उम्मीदवार होने की वजह मुस्लिम मतदाताओं ने जहां एक ओर अधिक वोटिंग नहीं की और कुछ मुस्लिमों ने बीजेपी के पक्ष में भी मतदान किया, वहीं हिन्दू बहुल  इलाकों में खूब वोटिंग हुई। 

चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक मुस्लिम इलाके में कम से कम चार फीसदी और अधिकतम 39 फीसदी ही वोटिंग हुई, जबकि हिन्दू बहुल इलाकों में न्यूनतम 27 फीसदी और अधिकतम 74 फीसदी वोटिंग हुई।

सपा में असंतोष और बगावत:
जैसे ही रामपुर सीट पर आसिम रजा की उम्मीदवारी का ऐलान हुआ, सपा के कई मुस्लिम चेहरों ने पाला बदल लिया और वे बीजेपी की तरफ चले गए। इस बार के चुनाव में वहां एक नारा गूंज रहा था- "अब्दुल दरी नहीं बिछाएगा, विकास का हिस्सा बनेगा।" साफ है कि मुस्लिमों ने विकास का साथ देने यानी बीजेपी के साथ जाने का फैसला किया था।

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