आध्यात्मिक होने के लाभ
आपके मन में उठता होगा कि आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त करने से क्या लाभ होगा और वहां तक जाने का रास्ता क्या है? दरअसल, मानव का मानसिक बल असीम है, पर अधिकांश लोग इसका उपयोग नहीं कर पाते, क्योंकि उनका समय क्षुद्र विचारों में व्यतीत हो जाता है…

आपके मन में उठता होगा कि आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त करने से क्या लाभ होगा और वहां तक जाने का रास्ता क्या है?
दरअसल, मानव का मानसिक बल असीम है, पर अधिकांश लोग इसका उपयोग नहीं कर पाते, क्योंकि उनका समय क्षुद्र विचारों में व्यतीत हो जाता है। इस मानसिक अपव्यय को नियंत्रित करने के तीन मार्ग हैं- शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। सबसे पहले व्यक्ति को अपनी श्वास प्रक्रिया पर नियंत्रण पाना चाहिए, क्योंकि श्वास की गति का सीधा संबंध विचारों की गति से है। जब मन स्थूल विषयों में उलझा हो, तब श्वास तेज हो जाती है; लेकिन जब वह सूक्ष्म विचारों में लीन हो, तो सांसों की गति मंद हो जाती है। जब श्वास और विचार एक लय में आ जाएं, तो उसे हठयोग समाधि कहा जाता है। इसलिए साधक को अपनी सांसों पर अवश्य नियंत्रण करना चाहिए। दूसरा मार्ग है- तर्कशीलता व विवेक को बढ़ाना। इसके लिए मन और शरीर से अनावश्यक तरंगों को हटाना होगा। साधक को यह दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि उसे तुच्छ बातों में समय नहीं गंवाना है। जब अनावश्यक विचार हटा दिए जाते हैं, तब मन तर्कशील चिंतन में संलग्न होता है।
चिंतन और ध्यान, दोनों मानसिक प्रवाह से जुड़े हुए हैं। चिंतन के लिए शरीर की ग्रंथियों और उप-ग्रंथियों का संतुलन आवश्यक है। केवल भावना पर्याप्त नहीं, चिंतन के लिए स्पष्ट विचार का आधार भी जरूरी है। व्यक्ति को किसी गूढ़ शक्ति की याचना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परम पुरुष की भावना लेकर उसी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। चिंतन जब आनंद से युक्त होगा, तभी वह साधक को ध्यान के उच्च स्तर तक पहुंचा सकता है।
ध्यान एक पद्धतिपूर्वक किया गया मानसिक अभ्यास है, जिसमें मस्तिष्क के अनेक केंद्र सक्रिय होते हैं। ध्यान की सर्वोच्च अवस्था ही आध्यात्मिकता का चरम बिंदु है, जिसे प्राप्त करने के लिए मानव युगों-युगों से प्रयास करता आया है। यही प्रयास मानव को निरंतर आगे ले जाता है। जब मन विधिपूर्वक किसी अनुशासन या मार्ग का पालन करता है, तो उसको भक्ति कहते हैं, पर जब वह बिना किसी नियम के, मनमाने ढंग से चलता है, तो उसे भावना कहते हैं। भक्ति में अनुशासन व लक्ष्य की स्पष्टता होती है, जबकि भावना में असंतुलित आवेग होते हैं।
इस प्रकार ध्यान, चिंतन और भक्ति, तीनों का संतुलन जीवन को आध्यात्मिक ऊंचाई तक ले जाता है। जब मनुष्य आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त करता है, तब उसके जीवन में एक गहरा परिवर्तन आता है। यह परिवर्तन केवल बाहरी आचरण या सोच के स्तर पर नहीं होता, बल्कि उसकी चेतना के केंद्र में घटित होता है। ऐसे व्यक्ति का मन स्थिर और शांत हो जाता है।
श्री श्री आनंदमूर्ति
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