संविधान न सिर्फ अधिकारों की गारंटी देता है बल्कि उत्पीड़ित लोगों का सक्रिय रूप से उत्थान भी करता है-सीजेआई
प्रभात कुमार नई दिल्ली। देश के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई ने कहा कि ‘भारतीय

प्रभात कुमार नई दिल्ली। देश के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई ने कहा कि ‘भारतीय संविधान ‘स्याही में उकेरी गई एक शांत क्रांति और ‘एक परिवर्तनकारी शक्ति बताते हुए कहा कि यह न केवल लोगों को अधिकारों की गारंटी देता है बल्कि ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित लोगों का सक्रिय रूप से उत्थान भी करता है। उन्होंने कहा कि ‘भारत के सबसे कमजोर नागरिकों के लिए संविधान सिर्फ एक कानूनी चार्टर या राजनीतिक ढांचा नहीं है बल्कि यह एक भावना है, एक जीवन रेखा है, एक शांत क्रांति है जो स्याही में उकेरी गई है। सीजेआई गवई लंदन स्थित ऑक्सफोर्ड यूनियन में ‘प्रतिनिधित्व से लेकर कार्यान्वयन तक: संविधान के वादे को मूर्त रूप देना विषय पर बोल रहे थे।
भारतीय न्यायपालिका के सर्वोच्च न्यायिक पद (सीजेआई) को संभालने वाले दूसरे दलित और पहले बौद्ध सीजेआई ने हाशिए के समुदायों पर संविधान के सकारात्मक प्रभाव पर प्रकाश डाला और इस बात को समझाने के लिए उन्होंने अपना ही उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि नगरपालिका स्कूल से लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय तक की मेरी अपनी यात्रा में संविधान एक मार्गदर्शक शक्ति रही है। सीजेआई ने कहा कि ‘संविधान एक सामाजिक दस्तावेज है, जो जाति, गरीबी, बहिष्कार और अन्याय की क्रूर सच्चाइयों से अपनी नजर नहीं हटाता। उन्होंने कहा कि संविधान इस बात का ढोंग नहीं करता कि गहरी असमानता से ग्रसित देश में सभी समान हैं। इसके बजाय, यह हस्तक्षेप करने, पटकथा को फिर से लिखने, सत्ता को फिर से निर्धारित करने और सम्मान को बहाल करने का साहस करता है। सीजेआई गवई ने कहा कि भारत का संविधान उन लोगों की धड़कन को अपने भीतर समेटे हुए है, जिनकी कभी सुनवाई नहीं होनी चाहिए थी और एक ऐसे देश की कल्पना करता है, जहां समानता का सिर्फ वादा नहीं किया जाता, बल्कि उसका पालन किया जाता है। यह राज्य को न केवल अधिकारों की रक्षा करने के लिए बल्कि सक्रिय रूप से उत्थान करने, पुष्टि करने और सुधार करने के लिए बाध्य करता है। सीजेआई गवई ने कहा कि ‘कई दशक पहले, भारत के लाखों नागरिकों को ‘अछूत कहा जाता था और उन्हें बताया जाता था कि वे अशुद्ध हैं। यहां तक की ये भी कहा जाता था कि वे यहां के नहीं हैं। उन्हें बताया जाता था कि वे अपने लिए नहीं बोल सकते। उन्होंने कहा कि आज उन्हीं लोगों (जिन्हें अछूत/अशुद्ध कहा जाता था) के समुदाय से जुड़ा एक व्यक्ति देश की न्यायपालिका में सर्वोच्च पद पर आसीन होकर खुलकर बोल रहा है। सीजेआई गवई ने कहा कि भारत के संविधान ने यही किया। इसने भारत के लोगों को बताया कि वे यहां के हैं, वे अपने लिए बोल सकते हैं और समाज और सत्ता के हर क्षेत्र में उनका समान स्थान है। डॉ. बी आर अंबेडकर की विरासत का जिक्र करते हुए सीजेआई गवई ने कहा कि वे एक दूरदर्शी व्यक्ति थे जिन्होंने जातिगत भेदभाव के अपने अनुभव को न्याय की वैश्विक समझ में बदल दिया। सीजेआई ने अंबेडकर के 1949 के ऐतिहासिक संविधान सभा भाषण का हवाला देते हुए कहा कि ‘उनका मानना था कि लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सीजेआई ने महिलाओं के लिए राजनीतिक आरक्षण की गारंटी देने वाले 2023 के संवैधानिक संशोधन और अंतर-समूह समानता सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण के सुप्रीम कोर्ट के समर्थन के बारे में भी बात की। उन्होंने कहा कि ‘भारतीय लोकतंत्र की असली खूबसूरती इसमें निहित है: संविधान के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर भी हम इस बात पर चिंतन, नवीनीकरण और पुनर्कल्पना करते रहते हैं कि प्रतिनिधित्व के अर्थ को कैसे गहन और विस्तारित किया जाए। पिछले वर्ष ही संसद ने संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए राजनीतिक आरक्षण प्रदान करने के लिए एक संवैधानिक संशोधन पारित किया था। न्यायिक सक्रियता, न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलना चाहिए- सीजेआई भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई ने कहा कि ‘न्यायिक सक्रियता बनी रहेगी और भारत में अपनी भूमिका निभाएगी। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि इसे (न्यायिक सक्रियता) इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि यह ‘न्यायिक आतंकवाद का रूप ले ले। सीजेआई ने जब यह पाया जाता है कि विधायिका या कार्यपालिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के अपने कर्तव्यों में विफल रही है, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना चाहिए। उन्होंने कहा कि ‘भारत में न्यायिक सक्रियता बनी रहेगी। लेकिन इसकी एक सीमा होनी चाहिए, न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलना चाहिए। सीजेआई ने कहा कि इसलिए, कभी-कभी आप सीमाओं को पार करने की कोशिश करते हैं और ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं, जहां आमतौर पर न्यायपालिका को प्रवेश नहीं करना चाहिए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति का इस्तेमाल दुर्लभ मामलों में ही किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग बहुत ही सीमित क्षेत्र में, बहुत ही अपवाद स्वरूप मामलों में किया जाना चाहिए। उन्होंने उदाहरण देकर समझाते हुए कहा कि ‘मान लीजिए कि कोई कानून संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है या यह संविधान के किसी भी मौलिक अधिकार के साथ सीधे टकराव में है, या यदि कानून बहुत ही मनमाना, भेदभावपूर्ण है… तो अदालतें इसका प्रयोग कर सकती हैं। उन्होंने कहा कि अदालतों ने कई मौकों पर ऐसा किया भी है। लंदन में इस कार्यक्रम का संयोजन सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट आन रिकार्ड/अधिवक्ता तान्बी दुबे ने की।
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