बोले आगरा: किस्मत का ताना-बाना नहीं बुन पाए बुनकर
Agra News - फतेहपुरसीकरी में दरी बुनने वाले बुनकर आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं, जबकि बड़े कारोबारी अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। बुनकरों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है, जिससे उनकी स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती...

फतेहपुरसीकरी में हाथ से बनी दरियां जर्मनी, फ्रांस और यूरोप के अन्य देशों तक में घरों की शोभा रही हैं। लेकिन यहां बुनकर खुद खाली हाथ हैं। दशकों से दरी तो बुन रहे हैं लेकिन अपनी किस्मत का तानाबाना नहीं बुन सके। संसाधनों और आर्थिक तंगी से जूझते इन बुनकरों तक सरकारी योजनाओं की किरण अभी तक नहीं पहुंची है। फतेहपुरसीकरी की एक पहचान दरी उद्योग से भी है। आजादी से पहले शुरू हुआ यह दरी उद्योग सैकड़ों बुनकर परिवारों की आजीविका चला रहा है। यहां हाथ से बनी दरियां जर्मनी, फ्रांस और यूरोप के अन्य देशों तक में घरों की शोभा बढ़ा रही हैं। शुरुआत में यहां सूत से दरियां और फर्श बनते थे। अब कपड़े और हौजरी की कतरन से दरी तैयार होती है। पुश्तों से लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं। आगरा शहर से करीब 35 किमी दूर फतेहपुर सीकरी कस्बे के सीकरी दो हिस्सा, सौनोटी, नगला जन्नू, जहानपुर, मई बुजुर्ग, जौताना सहित 12 से अधिक गांवों के घर-घर में दरी बनाई जाती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पत्थरों के खनन पर लगी रोक के बाद लोग इस पेशे से और जुड़े है। हालांकि अधिकांश परिवारों में यह पेशा आजादी के पहले से चला आ रहा है। पिछले करीब 30 वर्षों के दौरान यह उद्योग फतेहपुर सीकरी की पहचान बन गया है। बता दें कि हौजरी के वेस्ट से यह दरियां तैयार होती हैं। सभी काम हाथों से ही किया जाता है। हाथ से बनीं इन दरियों की सर्वाधिक मांग यूरोपीय देशों में है। इस व्यवसाय से जुड़े लोग बताते हैं कि वाराणसी, प्रयागराज, पानीपत, भदोही से स्थानीय फैक्टरी संचालकों को ऑर्डर मिलते हैं।
कई दशक से दरी बुनाई का काम करने वाले उमर बताते हैं कि उनका पूरा परिवार यह काम करता है। महीने में एक सदस्य के हिस्से में ढाई से तीन हजार रुपये ही आते हैं। यही हाल इस काम से जुड़े अन्य मजदूरों का है। वे मुश्किल से दो वक्त की रोटी कमा पाते हैं। नगला जन्नू, मई और नगला बीच में अल्पसंख्यक समाज के लोग दरी बुनाई का काम करते हैं। इनमें पुरुष, महिला और बच्चे शामिल हैं। दिनभर में पूरा परिवार चार से पांच सौ रुपये ही कमा पाते हैं। इनकी स्थिति मजदूरों से भी बदतर है। इनके मुकाबले एक मजदूर ढाई से तीन सौ रुपये रोज कमा लेता है। बुनकर अनबर का कहना है कि सरकारी योजनाएं तो बहुत हैं लेकिन इसका लाभ उनको नहीं मिलता। वे लोग काफी तंगी में जी रही हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ तक नहीं मिला है।
ये समस्याएं आईं सामने
संवाद में कहा गया कि बुनकरों को बिजली पानी मुफ्त मिले। बीमा सुविधा उपलब्ध हो। बच्चों को मुफ्त शिक्षा दिलायी जाए। घर मकान बनाने के लिए प्रोत्साहन राशि दी जाए। बुनकरों को ब्याज मुक्त लोन उपलब्ध कराया जाए, व्यापारियों के लिए औद्योगिक क्षेत्र उपलब्ध हो। बुनकरों के प्रशिक्षण के लिए केंद्र खोले जाने की मांग की गई।
बड़े कारोबारी कमा रहे बड़ा मुनाफा
एक ओर बुनकर आर्थिक तंगी और संसाधनों के अभाव से जूझ रहे हैं, दूसरी ओर बड़े कारोबारी मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। सीकरी में इस समय कई कारोबारी हैं। वे बुनकरों को कच्चा माल और ताना देकर मजदूरी पर काम कराते हैं। एक दरी के 25 से 30 रुपये देते हैं। जबकि यही दरी एवं गलीचा वह मुंबई और दिल्ली आदि शहरों में दो से तीन गुना दाम पर बेचते हैं।
पांच दशक पहले पड़ी नींव
बुनकर सईद बताते हैं फतेहपुर सीकरी में दरी एवं गलीचा बुनाई की नींव करीब पांच दशक पहले पड़ी। पानीपत का एक कारोबारी यहां आया। उसने कुछ लोगों को दरी बुनाई का काम सिखाया। यहां से माल ले जाकर दूसरे शहरों में बेचना शुरू किया। पूर्व में मुनाफा अधिक होने के चलते गांव के लोग इससे जुड़ते चले गए।
चिंदी की कटाई-छंटाई में जीवन व्यतीत
फतेहपुरसीकरी, हिन्दुस्तान संवाद। फतेहपुरसीकरी के एक दरी गोदाम में मजदूरी कर अपना जीवन यापन करने वाली महिला निर्मला व श्यामवती ने बताया कि सालों से इस कार्य में जुटी हैं। उन्हें ना तो कोई सरकार की तरफ से कोई आवास मिला है और ना ही कोई पेंशन मिलती है। सुबह से शाम तक दरियो की बुनाई में प्रयोग होने वाली में चिंदी की छटाई और कटाई में ही जीवन व्यतीत हो रहा है।
बुनकर बनना नहीं चाहते बच्चे: परिवार को आर्थिक अभाव से जूझता देखकर बड़े हुए बच्चे अब बुनकर बनना नहीं चाहते। वह दूसरे रोजगारों की तलाश में अन्य शहरों का रूख कर रहे हैं। इससे बुनकर खुश भी हैं कि उनके बच्चों को अभाव से नहीं जूझना पड़ेगा। मगर दूसरी ओर उन्हें दुख भी है कि बुनकरी की यह कला आने वाले समय में गांवों से लुप्त हो जाएगी।
इनकी बात
हमारे देश में सरकारी तंत्र ऐसा है कि पात्र को लाभ नहीं मिलता है। जिनके पास पक्के घर है, घर में टीवी और फ्रीज हैं, उनके पास बीपीएल कार्ड हैं।
शकील
15 वर्ष की उम्र से ही दरी बना रहे हैं। अब बुढ़ापा आ गया है। अभी तक सरकार से कोई सुविधा नहीं मिली है। दरी कारीगरों की सुनवाई नहीं है।
उमर
जब गोदाम में आर्डर नहीं होते हैं तो काम नहीं मिलता है। वह परिवार चलाने के लिए मनरेगा में मजदूरी करने चले जाते हैं। वहां भी रोजगार की गारंटी नहीं है।
मुन्ना
12 महीने दरी बुनाई का कार्य नहीं मिलता है। जिसकी वजह से कुछ बुनकर पल्लेदारी करने चले जाते हैं। दरी बुनकरों को 12 महीने काम मिले।
सईद अंसारी
गोदाम में काम न होने पर परिवार पालने के लिए कुछ मजदूर सब्जी की धकेल लगाकर जीवन यापन करते हैं। वहीं कुछ मजदूर गांव में कपड़ों की फेरी लगाने चले जाते हैं। -
कल्लू भाई
एक दरी के 25 से 30 रुपये मिलता है। जबकि यही दरी एवं गलीचा मुंबई और दिल्ली आदि शहरों में दो से तीन गुना दाम पर बेचा जाता है।
आसिफ
दरी बुनने के कार्य में दिन भर पूरा परिवार लगता है। पूरा परिवार चार से पांच सौ रुपये ही कमा पाते हैं। हम लोगों का मेहनताना काफी कम है।
राहुल
चिंदी और धागे से दिन भर दरी तैयार करने पर वे 150-200 रुपये ही कमा पाते हैं। हम बुनकरों को 30 रुपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भुगतान मिलता है।
चंपू
दिन भर काम करने के बाद 150-200 रुपये ही मिल पाते हैं। मेहनत के आधार पर वाजिब पैसा मिलना चाहिए। मेहनताना कम है। सरकार ध्यान दे।
-अनवर
बरसों से इस काम में लगे हैं। जितनी मेहनत है, उतना मेहनताना नहीं मिल पाता है। मुश्किल से घर को चला पाते हैं। योजनाओं का लाभ नहीं है।
-अरबाज
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