बोले बिजनौर : गर्भवती महिलाओं की ‘आशा खुद समस्याओं के बोझ में दबीं
Bijnor News - बिजनौर में आशा कार्यकत्रियों ने कम वेतन और अधिक जिम्मेदारियों का सामना करते हुए अपनी समस्याओं को उजागर किया है। उन्होंने सरकारी मानदेय बढ़ाने और स्थायी तनख्वाह की मांग की है। स्वास्थ्य योजनाओं के...

बिजनौर में आशा कार्यकत्री ने अपनी समस्याओं को आवाज उठाती रही हैं। उनका कहना है कि उन्हें कम वेतन के साथ अधिक जिम्मेदारियां सौंपी जा रही हैं। उन्होंने सरकारी कर्मचारी का दर्जा और मानदेय बढ़ाने की मांग की है। बताया कि मिशन टीबी उन्मूलन, एड्स नियंत्रण, और तंबाकू नियंत्रण जैसे अभियानों में भी उनकी भूमिका अहम है, लेकिन इन कार्यों के बावजूद उन्हें नियमित तनख्वाह नहीं मिलती। वे प्रत्येक केस के हिसाब से मानदेय पाती हैं, जो महंगाई के चलते ऊंट के मुंह में जीरा महसूस होता है। सभी योजनाओं के क्रियान्वयन में दिन-रात जुटी आशाएं अस्पतालों में अभद्र व्यवहार का सामना करने से भी व्यथित हैं।
स्वास्थ्य विभाग में एक जमाने में जितनी सरकारी योजनाएं आती थीं, उनके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी उस समय सबसे निचले पायदान की कड़ी एएनएम के कांधे पर होती थीं। समय बदला और मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के लिए गर्भवती महिलाओं की देखभाल से लेकर संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने के लिए गांव-गांव आशा कार्यकत्रियां रखी गई। धीरे-धीरे अब ज्यादातर स्वास्थ्य योजनाओं के धरातल पर क्रियान्वयन का भार आशा कार्यकत्रियों के सुपुर्द हो चुका है। मिशन टीबी उन्मूलन 2025, एड्स नियंत्रण और तंबाकू नियंत्रण जैसे कार्यक्रमों में इनकी सक्रियता से स्वास्थ्य सेवाएं सुदूर गांवों तक पहुंच रही हैं। वे टीबी मरीजों को निशुल्क इलाज दिलाने, एचआईवी मरीजों को सरकारी इलाज की ओर प्रेरित करने और तंबाकू के सेवन को छोड़ने के लिए लोगों को जागरूक कर रही हैं। इसके अलावा, आयुष्मान आरोग्य मंदिरों जैसी योजनाओं का लाभ भी वे लोगों तक पहुंचाती हैं। हालांकि, अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाने के बावजूद आशा कार्यकत्रियां आर्थिक तंगी से जूझ रही हैं। उन्हें महीने की कोई निर्धारित तनख्वाह नहीं मिलती, जबकि वे प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करती हैं। उनकी पीड़ा यह है कि सरकार उन्हें स्वास्थ्य योजनाओं का प्रमुख अंग मानते हुए भी, उनका आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। आशाएं चाहती हैं कि उन्हें प्रति केस मिलने वाले मानदेय में वृद्धि हो और उन्हें एक न्यूनतम वेतन मिले, ताकि वे अपनी सेवाएं देने में पूरी तरह से सक्षम हो सकें। बरसों से कोई न्यूनतम वेतन न होने का सह रही दंश जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित आयुष्य्मान आरोग्य मंदिरों पर उपलब्ध चिकित्सा सेवाओं का लाभ उठाने के लिए लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने में भी आशा कार्यकत्रियों की भूमिका अहम है। आजीविका को लेकर मायूसी और पीड़ा आशाओं की जुबां पर छलक रही है। उन्होंने अपनी पीड़ा बताई है। कई समस्याओं को बयां करने के साथ आशाओं ने अपने लिए महीने की तनख्वाह मिलने की व्यवस्था नहीं होने को सबसे बड़ी पीड़ा बताया। आशाओं की जुबां पर एक स्वर से यही आवाज उठी कि चाहे धनराशि कम ही सही हो, लेकिन, उन्हें महीने की कुछ निर्धारित तनख्वाह तो मिले। महंगाई को देखते हुए मानदेय बढ़ाने की मांग उठाई आशाओं का कहना है कि सरकार उन्हें चिकित्सा सेवाओं व सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं को ग्रामीण जनता तक पहुंचाने के एक बड़े माध्यम के रूप में देख रही है। आशाओं ने कहा कि उन्हें डिलीवरी का केस करने पर प्रति केस के हिसाब से मानदेय का प्रावधान है। जिसके अनुरूप अपना मेहनताना पाने के लिए वे रात दिन की परवाह नहीं करके अपनी सेवाएं दे रही हैं। न्यूनतम वेतन नहीं होने का दंश उन्हें बरसों से सहना पड़ रहा है। आशाओं का दर्द है कि उनकी स्थिति संविदा कर्मचारियों से भी गई गुजरी है। संविदा कर्मचारियों को हर महीने निर्धारित मानदेय तो मिल रहा है। आशाओं ने बढ़ती महंगाई को देखते हुए मानदेय बढ़ाने की मांग उठाई। बिजनौर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में 3070 आशाएं कार्यरत हैं। शहरी क्षेत्र में 147 आशाएं, जनपद में कुल 3217 आशाएं जिम्मेदारी निभा रही हैं। आठवीं पास आशा से चाहिए एमए के बराबर काम आशा हैल्थ वर्कर्स एसोसिएशन जिलाध्यक्ष संगीता बताती हैं कि आठवीं पास न्यूनतम योग्यता के आधार पर आशा कार्यकत्रियां जनपद में रखी गई थी, लेकिन इनसे तमाम काम बीए-एमए के बराबर पढ़े लिखे लोगों की तर्ज पर लिए जाते हैं। सबको स्मार्ट फोन दिए गए हैं, जिनसे सर्वे व एनसीडी सीबैक स्क्रीनिंग आदि कर फार्म भरकर अपलोड करना, आभा आईडी बनाने आदि के काम शामिल हैं। ज्यादातर आशाएं ये काम अपने पढ़े लिखे बच्चों से कराती हैं अथवा उनसे सीखकर खुद कर रही हैं। आभा आईडी की एवज में कोई मेहनताना भी निर्धारित नहीं है। प्रसव कराना उनकी अहम जिम्मेदारी आशाओं के मुताबिक संस्थागत प्रसव कराना उनकी अहम जिम्मेदारी है और आशाओं की बदौलत मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में आज कमी आई भी है। आरोप लगाया कि प्रसव के लिए सरकारी अस्पताल पहुंचने वाले मरीज से लेडी डॉक्टर तीन से चार हजार रुपये तक वसूलती हैं। लाभार्थी नहीं देता है तो आशाओं से अभद्र व्यवहार कर कोई भी बहाना बनाकर प्रसूता को रेफर करना आम होता है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो सरकारी अस्पतालों से ऑपरेशन का कहकर लौटाने के बाद निजी अस्पताल में नार्मल डिलीवरी हुई हैं। प्रसव के बाद ग्रामीण इलाके की जच्चा को 1400 रुपये जेएसवाई में सरकार की तरफ से मिलने का प्रावधान है। चौदह सौ रुपये हासिल करने की एवज में उल्टे सरकारी डॉक्टरनी को तीन-चार हजार रुपये चुकाने पर आशा को परिवार के लोगों की खरी खोटी भी सुननी पड़ती है। सुझाव 1. आशाओं को 20 हजार रुपये महीना मानदेय दिया जाए, ताकि वे अधिक उत्साह से कार्य करें। 2. हर केस का विवरण दर्ज कर मानदेय की पूरी डिटेल भेजी जाए, ताकि वे अपनी प्राप्त राशि और कार्य की तुलना कर सके। 3. आशाओं का पक्ष सुनकर उनकी विनियमितीकरण की मांग पर गंभीरता से विचार किया जाए। 4. आशा कार्यकत्री का ऐसा आयुष्मान कार्ड बनना चाहिए, कि उसके परिवार के सभी सदस्यों का जोखिम कवर हो। शिकायतें 1. आशा कार्यकत्रियों को कोई तनख्वाह नहीं मिलती, केस के हिसाब से मानदेय कम होने से आर्थिक संकट का सामना होता है। 2. मानदेय में कटौती होती है और कोई स्पष्ट हिसाब नहीं मिलता। 3. आशाओं की नौकरी पक्की नहीं है और उनकी विनियमितीकरण की मांग लंबित है। 4. आशा कार्यकत्री का अकेले का आयुष्मान कार्ड बना रहे हैं, लेकिन उसका परिवार इसमें शामिल नहीं है। --------- बोले जिम्मेदार चिकित्सा सेवाओं को जनता तक पहुंचाने के लिए आशा कार्यकत्रियां जिम्मेदारी निभा रही हैं। स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ाने में उनके अतुलनीय योगदान को महसूस करके ही उन्हें नई जिम्मेदारियां दी भी जा रही हैं। अलग-अलग केस की प्रोत्साहन राशि व मानदेय इन्हें दिया जा रहा है। इसे बढ़ाने समेत उनकी जो भी अपेक्षाएं हैं, उन्हें इनके मांग पत्र आदि के आधार पर उचित कार्रवाई के लिए शासन को संदर्भित किया जाता है। - डा. कौशलेंद्र सिंह, मुख्य चिकित्साधिकारी हमारी भी बात सुनी जाए आशा कार्यकत्री तत्परता, ईमानदारी और हिम्मत-हौंसले के साथ स्वास्थ्य योजनाओं के क्रियान्वयन का काम कर रही है। न्यूनतम 20 हजार रुपये मानदेय होना जरूरी है। - संगीता, जिलाध्यक्ष डिलीवरी केस सरकारी अस्पतालों में कम होने का पूरा ठीकरा विभाग आशाओं पर फोड़ने को तैयार रहता है। लेडी डॉक्टरों पर अंकुश नहीं है। - पंकज देवी गांव में चिकित्सा सेवाओं का लाभ पहुंचाने के लिए आशा पूरी सक्रियता के साथ लोगों को प्रोत्साहित व प्रेरित कर रही है। दुश्वारियां भी झेलती है। - सोनी नसबंदी केसों को बढ़ाने के लिए कम से कम पांच नसबंदी कराने को आशाओं पर दबाव डाला जा रहा है। मुस्लिम बाहुल्य गांव में साफ मना कर देते हैं। - राखी शर्मा आधी रात में भी गर्भवती को अस्पताल पहुंचाना होता है। तमाम दुश्वारियां झेलने पर भी हमारी अपेक्षाओं की परवाह किसी को नहीं है। - वसीम अख्तर इतनी मेहनत करने के बाद हमें जब मानदेय मिलने का समय आता है तो खाते में इसकी रकम देखकर मायूसी होती है। - सीता देवी अपना हक मांगने के लिए कईं बार आवाज उठाई है। लखनऊ से लेकर संगठन ने दिल्ली के जंतर-मंतर तक अपनी आवाज पहुंचाई है। - शीतल शर्मा तन्ख्वाह मिलने की व्यवस्था अखरती है। दिन रात मेहनत करके जितना मानदेय जोड़ते हैं। उसमें भी कटौती हो जाती है। - सरिता देवी चुनाव में पोलिंग बूथ पर ड्यूटी का अन्य कर्मियों की तरह कोई मानदेय नहीं मिलता। यही नहीं बूथों पर भोजन तक की आशा के लिए व्यवस्था नहीं होती। - विनोद कुमारी आभा आईडी का काम कराया जा रहा है, लेकिन उसका कोई मेहनताना नहीं मिलता। ऐसे और भी काम हैं, जिनके एवज में कुछ नहीं दिया जाता है। - नीता 1000 की आबादी पर एक आशा होनी चाहिए। जिम्मेदारियां बढ़ाई जा रही हैं, लेकिन तीन आशाओं के बीच क्षेत्र निर्धारण का समाधान नहीं हो रहा। - तबस्सुम आशा वर्कर बहुत मोटी तनख्वाह नहीं मांग रही, लेकिन हमारी मेहनत और योजनाओं की जिम्मेदारी के अनुरूप न्यूनतम और निर्धारित धनराशि तो मिलनी चाहिए। - ललिता देवी
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