बोले जमुई: वेतन हो निर्धारित, टोला सेवकों की तरह मिले वजीफा
जमुई जिले में मस्जिदों के इमाम और मदरसों के मौलाना आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। वेतन बेहद कम है, जिससे परिवार का खर्च उठाना मुश्किल हो रहा है। अन्य राज्यों में इमामों के लिए वजीफा तय है, लेकिन बिहार...

बोले जमुई: वेतन हो निर्धारित, टोला सेवकों की तरह मिले वजीफा
इमामों व मौलानाओं की परेशानी
जमुई जिले के मस्जिदों में नमाज अदा कराने वाले इमाम और मदरसों में दीनी तालीम देने वाले मौलाना इन दिनों गंभीर आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। मामूली वेतन में न घर का खर्च चल रहा है, न बच्चों की पढ़ाई हो पा रही है। समाज की सेवा में दिन-रात जुटे ये लोग बिना शिकायत किए अपनी जिम्मेदारियां निभा रहे हैं। ये सवाल उठा रहे हैं कि आखिर उनकी खिदमत का वाजिब हक कब मिलेगा? पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्यों में जहां इमामों के लिए वजीफा तय है, वहीं बिहार में अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई है। हिन्दुस्तान के साथ संवाद के दौरान जिले के इमाम और उलेमाओं ने अपनी परेशानी बताई।
प्रस्तुति : असद खान
मस्जिदों के इमाम और मदरसों के उलेमा जिले में आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं। घर-परिवार से दूर रहकर 24 घंटे समाज की खिदमत करने के बाद भी उन्हें इतनी आमदनी नहीं हो पाती है, जिससे महंगाई के दौर में तमाम जरूरतें पूरी हो सकें। हालांकि इसे लेकर उन्हें मलाल तो नहीं है, लेकिन जिम्मेदारों से सवाल जरूर है। उलेमाओं ने कहा कि पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि कई राज्यों में उलेमाओं की खिदमत को देखते हुए उनका न्यूनतम वेतन तय किया गया है। बताया कि पश्चिम बंगाल ने तो वजीफा भी तय कर दिया है। जमुई में कोई भी मस्जिद या फिर मदरसा वक्फ बोर्ड के अधीन नहीं है। इनमें नमाज अदा कराने वाले इमामों व मदरसा में पढ़ाने वाले उलेमा के लिए समाज के लोगों को सामने आना चाहिए, ताकि इमाम की खिदमत का वाजिब हक मिले। मस्जिदों के इमामों ने कहा कि अधिकतर जगहों पर पांच से सात हजार रुपये मिलते हैं। इससे सही तरीके से इमाम का घर नहीं चल पाता है। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में भी पैसे की समस्या आती है। अब तक एक बार भी सरकार या बोर्ड की ओर से मस्जिद के इमामों की हालत पर ध्यान नहीं दिया गया। आर्थिक विपन्नता खत्म हो जाए तो उलेमा व इमाम दिलचस्पी से समाज की खिदमत कर पाएंगे।
मदरसों में मिलते हैं चार से पांच हजार रुपए :
मौलानाओं ने कहा कि चार से पांच हजार रुपये में मदरसा में तालीम देते हैं। किसी तरह ट्यूशन पढ़ाकर कुछ अतिरिक्त खर्च निकाल पाते हैं। अधिकतर मौलाना कर्ज में डूब जाते हैं। कई जगह इन वजहों से चंदा वसूली में मौलाना कमीशन की मांग करते हैं। इसके कारण महीनों तक वेतन के लिए मौलाना को इंतजार करना पड़ता है। प्राथमिक, मध्य और माध्यमिक स्कूलों की तरह बोर्ड प्रारंभिक शिक्षा देने वाले टोला शिक्षक की तर्ज पर इमाम और छोटे मदरसों के मौलाना के लिए भी वजीफा तय करे।
15 से 20 हजार रुपये तय हो न्यूनतम वेतन :
उलेमाओं ने कहा कि मस्जिद के इमाम और मदरसों में पढ़ाने वाले मौलाना की हालत में सुधार के लिए आमलोगों को पहल करने की जरूरत है। 90 प्रतिशत इमाम को स्थानीय स्तर पर आम लोग वेतन देते हैं। उन्हें भी सोचने की जरूरत है कि पांच से 10 हजार रुपये मासिक में क्या होगा। इमाम और मौलाना अपना घर कैसे चलायेंगे। यदि वाजिब हक उलेमाओं को मिले तो वह भी दीन की खिदमत के लिए और अधिक लगन से आगे रहेंगे। दीनी जरूरत पड़ने पर उलेमाओं के पास लोग पहुंचते हैं, लेकिन जब उनकी आर्थिक मदद की जरूरत होती है तो समय से उन्हें वेतन भी नहीं मिल पाता है। इस पर आमलोगों को ही सोचना होगा। उलेमाओं ने कहा कि एक कुशल मजदूर की न्यूनतम मजदूरी पांच सौ रुपये तक है। मस्जिदों के इमाम और मदरसा में बच्चों को पढ़ाने वाले उलेमाओं को इतना भी अगर तनख्वाह मिले तो उनका कम से कम 15 हजार रुपये वेतन होगा। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकेगा। मुस्लिम वोट की राजनीति करने वालों ने भी इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया है। आर्मी में बहाली हो रही है, इसी तरह पुलिस महकमे में भी मौलाना की बहाली हो, ताकि लोगों में इसके प्रति रुचि बढ़े और दीनी तालीम में भी बेहतर कॅरियर बन सके।
अल्पसंख्यक कल्याण विभाग करे सहयोग :
मस्जिदों के इमाम और मदरसों में बच्चों को दीनी तालीम देने वाले उलेमाओं का कहना है कि अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को चाहिए कि वह हमारे लिए कल्याणकारी योजना बनाए, जिससे आर्थिक रूप से स्थिति बेहतर हो। सरकार से अनुदान प्राप्त मदरसों और समाज के सहयोग से चल रहे मदरसों में बेहतर पठन-पाठन के लिए संसाधन और आधारभूत संरचना के विकास के लिए आर्थिक सहयोग करे। मदरसों की स्थिति बेहतर होगी तो यहां पढ़ाने वाले उलेमाओं को भी इसका लाभ मिल सकेगा। अन्य राज्यों में जिस तरह इमाम और मदरसों के उलेमा के लिए वजीफा की व्यवस्था है, वह यहां भी मिले। इस पर विभाग को पहल करने की जरूरत है।
शिकायत :
1. अधिकतर इमामों और मौलानाओं को केवल 4-7 हजार रुपये महीना मिलता है।
2. अधिकांश मस्जिदें वक्फ बोर्ड के अधीन हैं, लेकिन इमामों के लिए वेतन तय करने की नीति नहीं है।
3. अब तक सरकार या किसी विभाग ने मस्जिदों और मदरसों में सेवा देने वालों की आर्थिक हालत पर ध्यान नहीं दिया।
4. कई मौलानाओं को मदरसों में चंदा वसूली के जरिए वेतन जुटाना पड़ता है।
सुझाव
1. न्यूनतम वेतन 15-20 हजार तय हो ताकि स्थिति सुधरे।
2. वक्फ बोर्ड वेतन सुनिश्चित करे। मस्जिदों की वक्फ संपत्तियों से इमामों का वेतन तय किया जाए।
3. टोला शिक्षक की तर्ज पर वजीफा मिले। छोटे मदरसों के मौलाना को भी प्राथमिक शिक्षकों की तरह मानदेय दिया जाए।
4. मौलाना की सरकारी नियुक्ति हो। सेना और पुलिस विभाग में बहाली हो, जिससे युवाओं में रुचि बढ़े।
हमारी भी सुनें :
हम मस्जिद और मदरसे में पूरी ईमानदारी से खिदमत करते है, आमदनी इतनी कम है कि परिवार चालाना मुश्किल है।
-मौलाना जफीर उद्दीन अशरफी
मस्जिद के कामकाज में हमारी भूमिका अहम होती है, लेकिन आमदनी बहुत कम है। लोगों द्वारा एक बाजिव मानदेय तय होता तो ठीक होता।
-मुफ्ती शाहिद रजा
मदरसे में बच्चों को दीनी तालीम देता हूं, लेकिन तनख्वाह इतनी कम है कि हर महीने उधारी करनी पड़ती है। सरकार मान्यता और वेतन दें तो ज्यादा अच्छा होता।
-मौलाना जयाउद्दीन अशरफी
आर्थिक हालात इतने खराब है कि बच्चों की पढ़ाई मुश्किल है। सरकार इमामों के लिए भी वजीफे की व्यवस्था करें।
-मौलाना रिजवान अहमद
छोटे मदरसे में बच्चों को तालीम देना हमारे लिए खुशनसीबी है, लेकिन इतने कम वेतन में मजबूरी में कर्ज लेना पड़ता है, जो कभी अच्छा नहीं होता है।
- हाफिज इरफान
मैं कई वर्षों से समाज की खिदमत में लगा हुं, आर्थिक स्थायित्व नहीं है। बच्चों की फीस, इलाज सब कुछ मुश्किल होता है।
-मुफ्ती इमरान आलम
हमने जिंदगी दीनी खिदमत में गुजार दी, अब उम्मीद है कि सरकार हमारी मेहनत का सम्मान करें और हमारी आर्थिक मदद के लिए ठोस कदम उठाएं।
-मौलाना शहिद रजा
मैं कई वर्षों से इमामत कर रहा हूं, लेकिन कभी सरकार या बोर्ड ने हमारी सुध नहीं ली। जीवन स्तर को सुधार मिले तो ज्यादा अच्छा होता।
- कारी रहमतुल्लाह साहब
नाजिम का कार्य करता हूं, प्रशासनिक जिम्मेदारियां निभाता हूं, लेकिन तनख्वाह बहुत ही कम है, जिस कारण परेशानी होती है।
- हाफिज शमशाद आलम
खिदमत करते-करते उम्र बीत गई लेकिन आज भी आर्थिक हालत जस की तस है। सरकार वजीफे की व्यवस्था करें तो ज्यादा अच्छा होगा।
- हाफिज हम्माद अशरफ
हमलोगों को मात्र 4 से 5 हजार रूपये दिय जाते है। हमें भी बच्चों और घर का खर्च उठाना पड़ता है। इतना कम खर्च में घर का गुजारा नहीं होता है।
-मौलाना नुरूलअैन
हम अपनी सेवा को इबादत मानते है। जब समाज हमें इज्जत देता है तो रोजी-रोटी की व्यवस्था भी मुकम्मल होनी चाहिए।
-मौलाना आरिफ रजा
बच्चें को कुरान सिखाना हमारा फर्ज है, लेकिन हम भी इंसान है, हमे भी अपने परिवार के लिए संसाधन चाहिए ।
- हाफिज अब्दुल वाजिद
हमलोगों को तो समाज के लोगों द्वारा सम्मान मिलता तो है लेकिन समाज द्वारा हमलोगों के परिवार के बारे में बहुत ही कम सोचते है, जिस कारण परेशानी होती है।
-मौलाना हसमत रजा
समाज के लोगों को चाहिए कि हमलोगों का कम से कम 15 से 20 हजार तनख्वाह दे ताकि हमलोग भी अपने परिवार को भरण-पोषण ठीक ढ़ंग से कर सकें।
-मौलाना अनवर
एक मजदूर को प्रत्येक दिन कम से कम 4 से 5 सौ रूपया मिलता है लेकिन हमलोग को उससे भी कम प्रत्येक दिन मिलता है, समाज को चाहिए कि इस पर ध्यान दें।
-मौलाना सद्दाम
क्या कहते है जिम्मेदार :
इमामों और मदरसों में तालीम देने वाले उलेमा की भूमिका अहम है। उनकी आर्थिक स्थिति सचमुच चिंता का विषय है। लेकिन समाज के लोगों को प्रयास कर रहे हैं कि कुछ मस्जिदों में स्थानीय स्तर पर सहयोग से इमामों का वेतन बढ़े। हमने राज्य वक्फ बोर्ड और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को भी पत्र भेजकर न्यूनतम वेतन तय करने की मांग की है। हम चाहते हैं कि जैसे अन्य राज्यों में वजीफा तय किया गया है, वैसे ही बिहार में भी सम्मानजनक वेतन मिले। साथ ही उलेमा का जो भी समस्या है। उनके साथ बैठक कर उनकी समस्याओं पर चर्चा किया जाए साथ ही अपने स्तर पर जो भी होगा उसे पूरा करने की कोशिश की जाएगी।
-जेएस पांडेय, जिला अल्पसंख्यक कल्याण पदाधिकारी, जमुई
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