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ओवैसी और महागठबंधन की बात बनी तो एनडीए का खेल खराब; कैसे टाइट हो जाएगी फाइट?

असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और राजद-कांग्रेस महागठबंधन के बीच अलायंस की बात बन गई तो बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए को कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ सकता है।

Ritesh Verma लाइव हिन्दुस्तान, पटनाTue, 3 June 2025 05:19 PM
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ओवैसी और महागठबंधन की बात बनी तो एनडीए का खेल खराब; कैसे टाइट हो जाएगी फाइट?

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले एक नया राजनीतिक समीकरण बन रहा है, जो राजद नेता और पूर्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन के लिए जितनी राहत ला सकता है, उतनी ही परेशानी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए बढ़ा सकता है। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस, तीन लेफ्ट पार्टी सीपीआई-माले, सीपीआई और सीपीएम, विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के महागठबंधन में एंट्री मारने के लिए हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम तैयार है बशर्ते सीटों पर बात बन जाए। पार्टी ने 50 सीट अकेले लड़ने का प्लान बनाया है लेकिन राजद से चल रही बात बन गई तो वो कम सीटें लड़ने को तैयार है। इस गठबंधन से मुसलमानों की एकजुटता नतीजों पर असर डाल सकती है।

बिहार में जातियों और पार्टियों का चुनावी समीकरण देखने से पहले जान लीजिए कि ओवैसी की पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और इकलौते बचे विधायक अख्तरुल ईमान ने बताया है कि बातचीत चल रही है और महागठबंधन से कोई नेगेटिव जवाब नहीं आया है। उन्होंने कहा कि बिहार में कोई भी एक दल नहीं है जो अकेले सांप्रदायिक ताकतों को हरा सके इसलिए हमारी कोशिश है कि चुनाव में सब एकजुट होकर जाएं। 2020 में ओवैसी की पार्टी से जीते 5 विधायकों में 4 को राजद ने मिला लिया था। ईमान अकेले बचे हैं।

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अख्तरुल ईमान ने कहा- “दोस्ती में हमेशा मामला बड़े और छोटे का होता है। छोटे की इच्छा होती है, हमेशा दोस्ती करने की, लेकिन जब तक बड़ा हाथ न बढ़ाए।” ईमान ने कहा कि राजद-कांग्रेस को दिल बड़ा करना है, फैसला उनको करना है। जब बात बनेगी, तब बात बढ़ेगी। हमारी इच्छा है कि बिहार से सांप्रदायिक शक्तियों को बाहर निकाला जाए। दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के न्याय के लिए एक सरकार बने, जिसमें हमारी हिस्सेदारी हो।

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2020 के विधानसभा चुनाव की याद दिला दें जब असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट बनाया था। उस चुनाव में ओवैसी की पार्टी 20, बसपा 78 और रालोसपा 99 सीट पर लड़ी थी। ओवैसी के 5 विधायक जीते और सारे सीमांचल के अररिया, किशनगंज और पूर्णिया से जीते। बसपा से एक विधायक जीते जो जेडीयू में शामिल होकर नीतीश सरकार में मंत्री बन गए। कुशवाहा की पार्टी जीरो पर आउट हो गई। ओवैसे के 5 विधायक दो सीट पर राजद, दो पर भाजपा और एक सीट पर वीआईपी को हराकर विधानसभा पहुंचे थे। इसमें ईमान को छोड़कर बाकी चार अब राजद के साथ हैं।

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बिहार में लालू यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल से माय (Muslim-Yadav) समीकरण राजद और उसके साथ रहे दलों के पक्ष में झुका रहा है। ओवैसी ने 2020 में सीमांचल में इस समीकरण पर जबर्दस्त चोट कर दी थी। नीतीश सरकार द्वारा कराए गए जाति आधारित सर्वे के मुताबिक इस समय बिहार में यादव आबादी 14 परसेंट और मुसलमानों की संख्या लगभग 18 परसेंट है। 100 में 32 वोटर इस दो समुदाय से है जो तेजस्वी को मजबूती देता रहा है।

राजद के अलावा महागठबंधन में कांग्रेस, लेफ्ट और मुकेश सहनी की वीआईपी है। मुकेश सहनी का दावा है कि बिहार में निषाद की आबादी लगभग 14 फीसदी है। सर्वे में मल्लाह आबादी 2.60 फीसदी आई। सहनी कहते हैं कि निषादों को सर्वे में उप-जातियों में तोड़-तोड़कर दिखाया गया है जिससे उनकी असली ताकत सामने ना आए।

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सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू), लोक जनशक्ति पार्टी- रामविलास (एलजेपी-आर), हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा है। मुकेश सहनी को लेकर अटकलें लगती रहती हैं कि वो सीट के लिए इधर-उधर भी कर सकते हैं, जैसा वो 2020 में भी कर चुके हैं जब आखिरी मौके पर महागठबंधन छोड़कर एनडीए के साथ आ गए थे।

भाजपा के साथ सवर्ण वोट मजबूती से खड़ा है वहीं जेडीयू के साथ यादव को छोड़ दूसरी पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां डटी हुई हैं। चिराग पासवान, जीतनराम मांझी की वजह से दलित और महादलित भी एनडीए के पाले में दिख रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा कब इस कैंप से नाराज होकर उस कैंप में चले जाएं, इसका खतरा उतना ही है, जितना मुकेश सहनी के वहां से यहां आने का।

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जाति समूहों के स्तर पर देखें तो सर्वे के मुताबिक बिहार में लगभग 36 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), 27 परसेंट अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), 20 परसेंट दलित वर्ग और 15 परसेंट सवर्ण वर्ग के लोग हैं। डेढ़ परसेंट के करीब आदिवासी भी हैं।

हाल के चुनावों में अति पिछड़ा, दलित और सवर्ण वोटरों का हाथ एनडीए के साथ रहा है। ओबीसी वोट के लिए नीतीश और लालू यादव के बीच खींचतान है। लव-कुश नीतीश के साथ दिखते हैं तो यादव तेजस्वी के पीछे मुखर है। सहनी वोट कुछ सीटों पर निर्णायक और कुछ इलाकों में प्रभावी हैं, लेकिन मुकेश सहनी की समस्या ये है कि वो अब तक खुद एक भी चुनाव नहीं जीत पाए हैं।

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महागठबंधन में काडर वोट वाले वामपंथी दलों, खास तौर पर सीपीआई-माले ने शाहाबाद और मगध इलाके में अपनी पकड़ लगातार मजबूत की है। इसका फायदा राजद और कांग्रेस को भी मिल रहा है। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के समय से ही कांग्रेस की राजनीति को दलित और पिछड़ों को वापस लाने पर केंद्रित कर रखा है। बिहार में दलित वोट का एक हिस्सा झटकने के लिए कांग्रेस ने रविदास जाति के दलित विधायक राजेश कुमार को अध्यक्ष बनाया है।

ओवैसी और महागठबंधन का गठबंधन होने की सूरत में मुसलमान वोटों के बंटवारे का खतरा हद से ज्यादा कम हो जाएगा। ऐसे में लोकसभा चुनाव के बाद नई ताकत के साथ विधानसभा चुनाव में उतरने को तैयार महागठबंधन से नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की लोकप्रियता पर सवार एनडीए की फाइट निश्चित रूप से टाइट हो जाएगी। नीतीश ने 225 सीट जीतने का लक्ष्य रखा है। ओवैसी के अलग लड़ने से नीतीश को बहुमत जुटाने में सहूलियत हो सकती है लेकिन वो तेजस्वी के साथ आ गए तो दोनों गठबंधनों के बीच आमने-सामने का मुकाबला तय है।

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ऐसे माहौल में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी इकलौता कैंप होगा, जो ना नीतीश, ना तेजस्वी नारे लगाने वालों का चुनावी विकल्प बन सकता है। लेकिन चुनाव में जब हराओ या जिताओ मुद्दा हावी हो जाता है तो वोटर दलीय प्रतिबद्धता छोड़कर रणनीतिक वोटिंग भी करता है। प्रशांत की पार्टी के लिए दोतरफा चुनाव में स्ट्रैटजिक वोटिंग रोक पाना मुश्किल हो सकता है। चुनाव में चार महीने बाकी हैं। लेकिन समीकरण जिस तरह से बन और बिगड़ रहे हैं, इस बात की गारंटी है कि चुनाव में टाइट फाइट होगी।