ऑस्कर विनर ‘नो मैन्स लैंड’ से कम नहीं है विनोद कापड़ी की ‘पायर’ : हृदयेश जोशी
वर्ष 2002 में बेस्ट फॉरेन फिल्म श्रेणी में ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘नो मैन्स लैंड’ इसलिए याद है, क्योंकि उसी श्रेणी में आमिर खान की ‘लगान’ को भी नामित किया गया था…

- हृदयेश जोशी
वर्ष 2002 में बेस्ट फॉरेन फिल्म श्रेणी में ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘नो मैन्स लैंड’ इसलिए याद है, क्योंकि उसी श्रेणी में आमिर खान की ‘लगान’ को भी नामित किया गया था। ‘नो मैन्स लैंड’ ने ऑस्कर जीतकर कई भारतीयों का दिल तोड़ा, लेकिन जब मैंने वह फिल्म देखी तो ‘लगान’ उसके आसपास भी नहीं थी। एक कसी हुई कहानी में युद्ध की व्यथा ऐसी कि अंत सीने के आर-पार हो जाए। बोस्नियाई लेखक और निर्देशक डेनिस तानोविक की बतौर डायरेक्टर वह पहली फिल्म थी। पिछले दिनों दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में विनोद कापड़ी द्वारा निर्देशित ‘पायर’ को देखते हुए वह फिल्म दिमाग में कौंधी। तानोविक के उलट कापड़ी इससे पहले भी कुछ फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं, लेकिन ‘पायर’ उनकी अब तक की सारी फिल्मों को पीछे छोड़ देती है। यह बिल्कुल अलग काम है, जिसके मयार बिल्कुल अलग है। कहानी, स्क्रीनप्ले, एक्टिंग, म्यूजिक और साउंड इफेक्ट के साथ फिल्म की सेटिंग और कास्ट सभी बहुत शानदार।
‘नो मैन्स लैंड’ युद्ध की निरर्थकता और प्रेशर बम के ऊपर लेटे व्यक्ति की व्यथा पर खत्म होती है तो ‘पायर’ में एक चिता बनती है, जिसमें पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के खाली हो चुके गांवों की व्यथा जल रही है।
महत्वपूर्ण है कि जब उत्तराखंड की सड़कें इस वक्त बेतहाशा ट्रैफिक और सैलानियों के बोझ से दरक रही हैं, तो विनोद कापड़ी की फिल्म उन भुतहा गांवों का निर्मम सच हमारे सामने रख देती हैं, जो खाली हो चुके हैं। एक ओर रिसोर्ट मालिक और टूअर ऑपरेटर राज्य की मार्केटिंग कर रहे हैं वहीं दो बुजुर्ग तुलसी और पदम सिंह किसी पहाड़ी पर बसे वीरान होते जा रहे गांव में अपने बेटे का इंतजार करते दिखते हैं। पदम सिंह के पास अपनी मदद करने वालों को देने के लिए सिर्फ कुछ बकरियां ही हैं और जीवन को चलाए रखने के लिए एक हौसला और दिल में छुपा एक राज, जिसका उद्घाटन फिल्म के आखिर में होता है। यही बात ‘पायर’ को आखिर तक खींचती है।
कहा जाता है संप्रेषण में सबसे महत्वपूर्ण बात वह सुनना है जो कही नहीं गई। इस फिल्म के हर दृश्य में पलायन का क्रूर सच हमें सुनाई देता है। पदम सिंह का यह कहना कि ‘हमारे पास जीने के लिए एक महीना और मरने के लिए दो महीना है’ या खुद को बार बार यह दिलासा देना कि ‘घबराना नहीं हुआ’ फिल्म की परिपक्वता को दिखाते हैं। सभी किरदार पहाड़ी ही हैं, लेकिन फिर भी डायलॉग डिलीवरी के स्तर पर बारीकियों का बहुत खयाल रखा गया है, ताकि वह ठेठ कुमाऊंनी गांव का एहसास दे।
मशहूर लेखक अमृतलाल नागर ने कहा था कि भाषा सुनकर सीखी जाती है। जब पदम सिंह को दिलासा देने के लिए गांव के दो युवा कहते हैं कि ‘ऐसा क्यों कहने वाले हुए यार तुम’ या तुलसी कहती है ‘(दारू) पीने का समय हो जाने वाला हुआ बुड्ढे का’ तो उनके शब्दों के उतार-चढ़ाव में पहाड़ी लचक का स्वाद मिलता है। यहां पर आपको तिग्मांशु धूलिता द्वारा निर्देशित पान सिंह तोमर की याद भी आ सकती है, जिसमें इरफान और अन्य कलाकार चंबल की जुबान को सजीव बना देते हैं।
विनोद कापड़ी की फिल्म देश-दुनिया के कई फिल्म समारोहों में जा रही है। इसे कई सम्मान मिलेंगे और मिलने भी चाहिए, पर मेरे लिए यह पहले ही नेशनल फिल्म अवॉर्ड विनर फिल्म है और अगर कह सकूं तो मुझे यह ‘नो मैन्स लैंड’ से कम नहीं लगती। इसके किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आने का इंतज़ार है। विनोद जी और उनकी पूरी टीम को बधाई और बहुत शुभकामनाएं।
लेटेस्ट Hindi News , बॉलीवुड न्यूज, बिजनेस न्यूज, टेक , ऑटो, करियर , और राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।