दिखावा है पाकिस्तान का मुस्लिम भाईचारा, अमेरिकी जाल में फंसे मुनीर ने घोंपा ईरान की पीठ में छुरा?
आने वाले दिन यह साफ करेंगे कि क्या पाक वाकई मुस्लिम एकता का दिखावा कर रहा है या यह उसकी रणनीतिक चाल है। फिलहाल, यह मुलाकात वैश्विक कूटनीति में एक नया मोड़ जरूर लाई है, जिस पर पूरी दुनिया की नजरें टिकी हैं।

18 जून को व्हाइट हाउस के कैबिनेट रूम में एक बंद कमरे में हुई मुलाकात ने वैश्विक कूटनीति में हलचल मचा दी। पाकिस्तान के सेना प्रमुख फील्ड मार्शल सैयद आसिम मुनीर और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच यह निजी लंच न केवल असामान्य था, बल्कि इसने कई सवाल भी खड़े किए। खासकर तब, जब मध्य पूर्व में इजरायल और ईरान के बीच युद्ध अपने चरम पर है और पाकिस्तान ने सार्वजनिक रूप से ईरान का समर्थन जताया है। लेकिन क्या यह समर्थन महज दिखावा है? क्या मुनीर ने अमेरिकी जाल में फंसकर अपने मुस्लिम पड़ोसी की पीठ में छुरा घोंपा है? आइए, विस्तार से समझते हैं।
ईरान-इजरायल युद्ध और पाकिस्तान की स्थिति
13 जून को इजरायल ने ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों- नतांज, तबरीज, और करमनशाह पर बड़े पैमाने पर हवाई हमले किए। इस ऑपरेशन में ईरान के इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के कमांडर हुसैन सलामी, सेना प्रमुख मोहम्मद बाघेरी, और कई परमाणु वैज्ञानिक मारे गए। जवाब में, ईरान ने तेल अवीव पर सौ से अधिक बैलिस्टिक मिसाइलें और ड्रोन दागे। यह युद्ध मध्य पूर्व को अस्थिरता की आग में झोंक रहा है।
ईरान का पड़ोसी होने के साथ-साथ पाकिस्तान खुद एक मुस्लिम देश है, जो अक्सर धर्म के आधार पर मुस्लिम देशों को एकजुट करने की वकालत करता रहा है। इजरायली हमलों के दौरान, पाकिस्तान ने कूटनीतिक रूप से ईरान का समर्थन जताया। पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने संसद में मुस्लिम देशों से एकजुट होने की अपील की। एक ईरानी जनरल के हवाले से यह भी दावा किया गया कि पाकिस्तान ने इजरायल के खिलाफ परमाणु हमले की धमकी दी, हालांकि आसिफ ने इसे खारिज कर दिया। लेकिन इन बयानों के बीच, आसिम मुनीर की अमेरिका यात्रा और ट्रंप के साथ उनकी मुलाकात ने संदेह पैदा किया है।
मुनीर-ट्रंप मुलाकात: क्या हुआ बंद कमरे में?
व्हाइट हाउस में 18 जून को हुई इस मुलाकात को लेकर कई अटकलें हैं। यह एक असामान्य घटना थी, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति शायद ही कभी किसी विदेशी सेना प्रमुख की इस तरह मेजबानी करते हैं। समाचार एजेंसी रायटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, पाकिस्तानी अधिकारियों और विशेषज्ञों को मुनीर से उम्मीद थी कि वह ट्रंप पर दबाव डालेंगे ताकि ईरान के खिलाफ इजरायल के युद्ध में अमेरिका शामिल न हो। इसके अलावा, मुनीर से इजरायल-ईरान के बीच युद्ध विराम की मांग को लेकर भी उम्मीदें लगाई जा रही थीं। लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है।
हालांकि ट्रंप ने जरूर कहा कि मुनीर से मिलकर उन्हें सम्मानित महसूस हुआ और उन्होंने ईरान पर चर्चा की। ट्रंप ने कहा कि ईरान के बारे में पाकिस्तान सबसे बेहतर जानता है। ट्रंप के बयान से साफ है कि वे ईरान के खिलाफ जंग में पाकिस्तान का इस्तेमाल करना चाहते हैं। इस बात की पूरी गुंजाइश है कि आने वाले दिनों में ईरान पर हमले के लिए पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किया जाए।
बता दें कि वाशिंगटन में पाकिस्तान के दूतावास का एक हिस्सा अमेरिका में ईरान के हितों का प्रतिनिधित्व करता है, क्योंकि तेहरान के अमेरिका के साथ राजनयिक संबंध नहीं हैं। पाकिस्तान ने ईरान के खिलाफ इजरायल के हवाई हमलों की निंदा करते हुए कहा है कि वे अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हैं और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरा हैं। हालांकि ये महज एक बयानबाजी के ज्यादा कुछ नहीं है।
ट्रंप-मुनीर मुलाकात का आधिकारिक विवरण सीमित है, लेकिन कुछ बिंदु सामने आए हैं।
क्षेत्रीय शांति और ईरान-इजरायल युद्ध: ट्रंप ने कहा कि बैठक में ईरान-इजरायल संघर्ष और क्षेत्रीय स्थिरता पर चर्चा हुई। उन्होंने पाकिस्तान को क्षेत्रीय शांति का "महत्वपूर्ण खिलाड़ी" बताया।
भारत-पाक तनाव: ट्रंप ने दावा किया कि उनकी मध्यस्थता से मई 2025 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए सैन्य तनाव (ऑपरेशन सिंदूर) में युद्धविराम हुआ। हालांकि, भारत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि यह द्विपक्षीय बातचीत का नतीजा था।
नोबेल शांति पुरस्कार का जिक्र: व्हाइट हाउस ने बताया कि मुनीर ने ट्रंप को भारत-पाक युद्धविराम के लिए नोबेल शांति पुरस्कार की सिफारिश की थी, जिसके "बदले" उन्हें लंच पर बुलाया गया।
हालांकि, इन आधिकारिक बयानों से ज्यादा चर्चा उन अनकही बातों की है, जो बंद कमरे में हुईं। विश्लेषकों का मानना है कि इजरायल का कट्टर समर्थक अमेरिका अब पाकिस्तान को ईरान के खिलाफ रणनीतिक साझेदार बनाने की कोशिश कर रहा है।
अमेरिकी जाल: पाकिस्तान की मजबूरियां
पाकिस्तान की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति इसे अमेरिकी प्रभाव के लिए आसान शिकार बनाती है। देश भारी कर्ज, आर्थिक संकट, और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। ऐसे में, अमेरिका के लिए पाकिस्तान को अपने पक्ष में करना मुश्किल नहीं।
सैन्य अड्डे की मांग: कहा जा रहा है कि अमेरिका पाकिस्तान में सैन्य अड्डा स्थापित करना चाहता है, ताकि ईरान के खिलाफ कार्रवाई में रणनीतिक लाभ मिले। पाकिस्तान की 909 किमी लंबी ईरान सीमा और इसकी भौगोलिक स्थिति इसे महत्वपूर्ण बनाती है।
आतंकवाद विरोधी साझेदारी: अमेरिकी सेंट्रल कमांड के प्रमुख जनरल माइकल कुरिल्ला ने पाकिस्तान को आतंकवाद विरोधी अभियानों में "असाधारण साझेदार" बताया था। यह उस देश के लिए प्रशंसा है, जिसे पहले आतंकियों को शरण देने का आरोप लगता था।
ईरान से दूरी: ट्रंप प्रशासन की मांग हो सकती है कि पाकिस्तान ईरान से दूरी बनाए। कुछ सोशल मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया कि पाकिस्तान ने अमेरिका को अपने हवाई क्षेत्र का उपयोग करने की अनुमति दी, हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हुई।
मुस्लिम भाईचारा: दिखावा या हकीकत?
पाकिस्तान ने सार्वजनिक रूप से ईरान का समर्थन जताया, लेकिन उसकी हरकतें कुछ और कहानी बयां करती हैं। पाकिस्तान कथित तौर पर अमेरिका के बैटलफील्ड एयरबोर्न कम्युनिकेशंस नोड (BACN) को ईरान पर जासूसी करने की अनुमति दे रहा है। मुनीर की अमेरिका यात्रा के दौरान, वाशिंगटन में प्रवासी पाकिस्तानियों ने उनके खिलाफ प्रदर्शन किए, उन्हें "पाकिस्तानियों का कसाई" तक कहा। यह दर्शाता है कि पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व की छवि खुद अपने देश में विवादास्पद है।
सोशल मीडिया पर कुछ यूजर्स ने मुनीर को "अमेरिका का मुखबिर" तक करार दिया, यह दावा करते हुए कि वे ईरान की गोपनीय जानकारी अमेरिका को सौंप रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान का ईरान समर्थन सिर्फ मुस्लिम एकता का दिखावा है? इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान ने पहले भी अमेरिका के साथ मिलकर मुस्लिम देशों के खिलाफ काम किया है, जैसे कि कोल्ड वॉर के दौरान सोवियत-अफगान युद्ध में।
धोखा या रणनीति?
आसिम मुनीर और डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात ने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या पाकिस्तान अपने मुस्लिम भाईचारे के दावों के बावजूद अमेरिकी दबाव में ईरान को धोखा दे रहा है। तथ्य यह है कि पाकिस्तान की आर्थिक और राजनीतिक मजबूरियां उसे अमेरिका का रणनीतिक साझेदार बनने के लिए प्रेरित कर सकती हैं। पाकिस्तान की दोहरी नीति- ईरान का सार्वजनिक समर्थन और अमेरिका के साथ गुप्त समझौते उसकी भू-राजनीतिक मजबूरियों को दर्शाती है।
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