SC के जज ने मानी कॉलेजियम सिस्टम में खामी की बात, कहा- लेकिन न्यायपालिका को स्वतंत्र रहने दें
उन्होंने यह स्वीकार किया कि कॉलेजियम प्रणाली को पारदर्शिता की कमी और निर्णय प्रक्रिया में स्पष्ट मानदंडों की अनुपस्थिति के कारण आलोचना का सामना करना पड़ा है।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और कॉलेजियम प्रणाली का जोरदार बचाव करते हुए कहा कि अपने दोषों के बावजूद यह प्रणाली न्यायपालिका की स्वायत्तता बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण संस्थागत सुरक्षा तंत्र है। अमेरिका के सीएटल यूनिवर्सिटी में 4 जून को ‘द क्वायट सेंटिनल: कोर्ट्स, डेमोक्रेसी एंड द डायलॉग अक्रॉस बॉर्डर्स’ विषय पर व्याख्यान देते हुए जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली कार्यपालिका और विधायिका के हस्तक्षेप को सीमित करती है, जिससे न्यायिक निष्पक्षता सुरक्षित रहती है।
हालांकि उन्होंने यह स्वीकार किया कि कॉलेजियम प्रणाली को पारदर्शिता की कमी और निर्णय प्रक्रिया में स्पष्ट मानदंडों की अनुपस्थिति के कारण आलोचना का सामना करना पड़ा है। उन्होंने यह भी कहा कि हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट की ओर से पारदर्शिता और जन विश्वास को बढ़ाने की दिशा में गंभीर प्रयास हुए हैं।
जस्टिस सूर्यकांत ने न्यायपालिका की नीति निर्माण में बढ़ती भूमिका पर भी विचार व्यक्त करते हुए पूछा, “क्या अदालतें नीति निर्धारण में कितनी दूर तक जा सकती हैं? क्या न्यायिक रचनात्मकता एक गुण है या एक दोष?” उन्होंने खुद इसका उत्तर देते हुए कहा, “जब न्यायालय संविधान और नैतिक स्पष्टता के आधार पर निर्बल वर्गों को सशक्त करने हेतु कदम उठाते हैं तो वे लोकतंत्र को कमजोर नहीं करते, बल्कि उसे और मजबूत बनाते हैं।”
जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि भारतीय न्यायपालिका संवैधानिक नैतिकता की प्रहरी है और इसने भारत के लोकतंत्र की नैतिक रीढ़ को गढ़ा है। आपातकाल के दौरान न्यायपालिका पर पड़े दबावों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उस दौर ने न्यायपालिका की चेतना को नई दिशा दी और यह अनुभव न्यायिक स्वतंत्रता की गहराई को दर्शाता है।
उन्होंने कहा, “भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में, न्यायपालिका को केवल अंतिम निर्णयकर्ता ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक यात्रा की एक विश्वसनीय आवाज बनना होगा। इस दौरान इसे विनम्ता और संवेदनशील रहना होगा।” उन्होंने कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र एक ऐसा तंत्र है जहां बहुसंख्यकवाद को नियंत्रण में रखा जाता है, अल्पसंख्यकों की रक्षा होती है और मूल्यों की बलि लोकप्रियता के नाम पर नहीं दी जा सकती।
अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, “न्यायपालिका एक उद्धारकर्ता नहीं, बल्कि एक शांत प्रहरी है। यह नारे नहीं लगाती, यह देखती है और जब आवश्यक हो तो बोलती हैय़ प्रसन्न करने के लिए नहीं, बल्कि संविधान को संरक्षित करने के लिए बोलती है।”
3 जून को वाशिंगटन स्टेट सुप्रीम कोर्ट, ओलंपिया के दौरे के दौरान जस्टिस सूर्यकांत ने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि पूर्व-सेंसरशिप और सार्वजनिक व्यवस्था के अस्पष्ट बहानों के आधार पर अभिव्यक्ति के अधिकार को दबाया नहीं जा सकता है। उन्होंने कहा, “लोकतंत्र में असहमति आवश्यक है। अन्याय के सामने चुप्पी तटस्थता नहीं, बल्कि सहभागिता है।”