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मन के भाव देखकर ही काम लिया जाए

हर प्राणी में इच्छाएं होती हैं। ये इच्छाएं मन से उत्पन्न होती हैं, जो उससे तरह-तरह के काम करवाती हैं। इसलिए मन के भावों को जानना बहुत जरूरी है। अगर आप मन के भावों को समझ गए तो यह जानना आपके लिए सहज होगा कि किससे कब और क्या काम लिया जाए

Saumya Tiwari लाइव हिन्दुस्तान, आचार्य महाप्रज्ञTue, 27 May 2025 08:03 AM
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मन के भाव देखकर ही काम लिया जाए

Pravchan in hindi: मनुष्य एकरूप नहीं होता। वह बदलता रहता है। उसके भाव बदलते हैं, मन बदलता है, मनोदशाएं बदलती हैं और मूड बदलता है। आज मूड शब्द बहुत प्रचलित है। हर आदमी दूसरे का मूड देखकर ही बातचीत करना चाहता है। मूड का अर्थ है- मनोदशा। भाव के साथ-साथ मनोदशाएं बदलती हैं, मुद्राएं बदलती हैं। कोई भी आदमी कभी एकरूप नहीं मिलता। प्रातःकाल प्रसन्न मुद्रा में हैं, तो मध्याह्न में क्रुद्ध मिलेगा। प्रातःकाल यदि शांत है तो सायंकाल भीषण ज्वार-भाटे में मिलेगा। कहा नहीं जा सकता कि आदमी कब कैसा बन जाए। इसलिए सोचना पड़ता है कि किस आदमी से कब काम लिया जाए। जब वह प्रसन्न मुद्रा में होता है तो बड़े-से-बड़ा काम सहजता से हो जाता है और जब वह अप्रसन्न मुद्रा में होता है तो आसान काम भी पहाड़ बन जाता है।

प्रश्न है कि आदमी क्यों बदलता है? मनोदशा क्यों बदलती है? कारण क्या है? कारण पर हम विचार करें। वह कारण बाहर नहीं है, अपने ही भीतर है। हम जो श्वास लेते हैं, वह दो भागों में बंटा हुआ है। हम कभी बायें नथुने से और कभी दायें नथुने से श्वास लेते हैं। कभी दायां स्वर चलता है, कभी बायां स्वर चलता है और कभी दोनों साथ-साथ चलते हैं। स्वरोदय की भाषा में बायें स्वर को चंद्र स्वर और दायें स्वर को सूर्य स्वर कहा जाता है। जब दोनों स्वर साथ चलते हैं तब उसे सुषुम्ना स्वर कहा है।

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स्वरोदय में यह विवेचित हुआ है कि कौन-से स्वर में कौन-सा कार्य करना चाहिए। कार्य दो भागों में विभक्त है- चल कार्य और स्थिर कार्य। सौम्य कार्य और क्रूर कार्य। जब चंद्र स्वर चलता है, तब सौम्य कार्य करना चाहिए। सौम्य और शांत कार्य उसी में सफल होते हैं। यह बहुत वैज्ञानिक चिंतन है। जब चंद्र स्वर चलता है, तब मस्तिष्क का दायां पटल सक्रिय होता है। दायां पटल सौम्य और शांत कार्य के लिए उत्तरदायी है। स्वर विद्या का विशेषज्ञ व्यक्ति निरंतर अपने स्वरों की जानकारी करता रहता है। वह जानता है कि किसी के साथ मंत्रणा करनी है, किसी को अपनी बात से सहमत करना है, किसी को कोई बात जचानी है तो यह सारा कार्य चंद्र स्वर में निष्पन्न होना चाहिए। उस समय मूड शांत रहता है। उसी स्थिति में सामने वाले पर प्रभाव पड़ सकता है। अन्यथा सामने वाला व्यक्ति की बात सुनते ही उत्तेजित हो जाएगा। बात बिगड़ जाएगी।

कोई व्यक्ति यदि चंद्र स्वर में कठोर कर्म, वाद-विवाद आदि करने जाता है तो पहले ही क्षण में हार जाता है। कठोर कर्म सूर्य स्वर में ही सफल हो सकते हैं। जब दायां स्वर- सूर्य स्वर चलता है, तब बायां पटल सक्रिय होता है। उस समय तर्कशक्ति का विकास होता है। उस समय होनेवाले तर्क-वितर्क में सूर्य स्वर वाला व्यक्ति जीत जाएगा। यदि चंद्र स्वर में वह वाद-विवाद चलता है तो उसकी हार निश्चित है। लड़ना, झगड़ना संघर्ष करना और विवाद करना- ये सारे कठोर कर्म हैं। इनको सूर्य स्वर में ही किया जाता है। साधु-संत चंद्र स्वर को विकसित करते हैं। उन्हें उत्तेजित करना सरल नहीं होता। ऐसे संत हुए हैं, जिन्हें हजार प्रयत्न करने पर भी उत्तेजित नहीं किया जा सका। इस विषय में कुछ कथाएं प्रचलित हैं।

संत एकनाथ के समक्ष समर्पण

एकनाथ महाराष्ट्र के पहुंचे हुए संत थे। एक व्यक्ति ने यह बीड़ा उठाया कि वह एकनाथ को उत्तेजित कर देगा। संत एकनाथ साधना में बैठे थे। वह आदमी वहां पहुंचा और उनकी पीठ पर जा बैठा। वह पीठ पर बैठा ही नहीं, घूंसा मारने लगा। एकनाथ ने मुड़कर देखा और हंसकर कहा- ‘अरे! तुम्हारे जैसा मित्र तो मुझे आज तक नहीं मिला। आज तक जो भी मित्र आते वे सामने से आकर मिलते। तुम पीछे से आकर मित्रता करने वाले पहले व्यक्ति हो। मेरी पीठ में दर्द है। उस पर भी चोट कर तुम ठीक कर रहे हो।’ उस व्यक्ति ने सुना। शरमा गया। पीठ से उतर चरणों में आ गिरा। संत एकनाथ ने चंद्र स्वर सिद्ध कर लिया था। जिनका चंद्र स्वर सध जाता है, उनका मूड कभी खराब नहीं किया जा सकता।

पराजित हुआ सिकंदर

सिकंदर आया संन्यासी के पास। बहुत तेज था संन्यासी में। सिकंदर आकर बोला- ‘आप मेरे देश में चलें। मुझे आप जैसे संन्यासी की जरूरत है।’ संन्यासी बोला- ‘मैं नहीं चल सकता। मुझे क्या लेना-देना है तुम्हारे देश से?’ सिकंदर ने समझाया। संन्यासी नहीं माना। डराया-धमकाया। पर सब व्यर्थ। सिकंदर बोला- ‘मेरी आज्ञा की अवहेलना का परिणाम है मृत्यु।’ संन्यासी बोला- ‘किसे मारोगे? मैं तो मरा हुआ ही हूं। चले जाओ यहां से। सूरज की जो धूप आ रही है, उसे मत रोको।’

जिन व्यक्तियों ने अपने मस्तिष्क के दायें पटल को जाग्रत कर डाला है, उनके मूड को कोई विकृत नहीं कर सकता। आज के युग में बायां पटल अधिक सक्रिय है और दायां सुषुप्त है। दोनों में संतुलन अपेक्षित है। यह संतुलन समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा से साधा सकता है- जैसे हाथी के नियंत्रण के लिए अंकुश, घोड़े के लिए लगाम होती है, वैसे ही समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा इन दोनों पटलों के संतुलन के लिए नियंत्रणकारी है। यह नियंत्रण शक्ति हमारे हाथ में होनी चाहिए।

लेकिन, अपने मन को काबू में रखने के लिए सबसे जरूरी है उसे साधना, न कि उस पर अंकुश लगाना। अंकुश लगाने से वह रह-रहकर तुम्हें अपने में उलझाएगा, जबकि उसे साधकर तुम उसे जैसा चाहोगे उससे काम लोगे, क्योंकि तब तुम उसके वश में नहीं, वह तुम्हारे वश में होगा।