बोले पटना- नाला टोली : देसी खिलौना बाजार की रौनक चीन निर्मित उत्पादों ने छीनी
पटना के नालारोड की मुख्तार टोली में देसी खिलौनों का बाजार धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। चाइनीज खिलौनों और मोबाइल गेम्स के बढ़ते चलन ने पारंपरिक खिलौनों की बिक्री में 70 प्रतिशत की गिरावट ला दी है।...
पटना के नालारोड की मशहूर मुख्तार टोली कभी रंग-बिरंगे देसी खिलौनों के बाजार के लिए जानी जाती थी। दूर-दराज से दुकानदार और ग्राहक यहां आते थे। लकड़ी, मिट्टी और कपड़े से बने तरह-तरह के खिलौनों की रौनक होती थी। लेकिन समय के साथ इस परंपरागत बाजार की रौनक गायब होती गई। देसी खिलौनों की जगह अब बच्चों के हाथों में चीन निर्मित प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों हैं। डिजिटल युग में मोबाइल ने परंपरागत खिलौनों को बच्चों के हाथों से छिन लिया है। मुख्तार टोली के दुकानदार बताते हैं कि कारोबार में करीब 70 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है। कई दुकानदारों ने खिलौनों का व्यापार छोड़ कर दूसरा व्यवसाय शुरू कर दिया है।
दुकानदार कहते हैं कि देसी खिलौना बाजार की खोते चमक को वापस लौटाने के लिए सरकार और समाज दोनों के स्तर पर पहल की जरूरत है। खिलौने बच्चों की दुनिया के सबसे रंगीन और मासूम हिस्सा होते हैं। खिलौने न सिर्फ बच्चों का मनोरंजन करते हैं, बल्कि उनके मानसिक और शारीरिक विकास का भी आधार होते हैं। लेकिन, समय के साथ-साथ खिलौनों की दुनिया में भी बड़ा बदलाव आया है। मिट्टी, लकड़ी और कपड़े से बने देसी खिलौनों की जगह अब चाइनीज, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों ने ले ली है। यह बदलाव केवल सामग्री और तकनीक का नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और सोच में भी आए परिवर्तन का प्रतीक है। कभी हर गली-मोहल्ले में कुम्हार, बढ़ई और दस्तकारों द्वारा बनाए गए खिलौने नजर आते थे। मिट्टी के चिड़िया-घोंसले, लकड़ी की गाड़ियां, कपड़े की गुड़िया - ये सभी खिलौने बच्चों की कल्पना को पंख देते थे। पटना के नाला रोड स्थित मुख्तार टोली जैसे इलाकों में देसी खिलौनों का बड़ा बाजार हुआ करता था। वहां दिन भर रौनक लगी रहती थी। बच्चे और उनके माता-पिता बड़े चाव से इन खिलौनों की खरीदारी करते थे। समय बदला, बाजार वैश्विक हुआ और चीन जैसे देशों से सस्ते, रंगीन प्लास्टिक के खिलौने धड़ल्ले से आने लगे। इनकी चमक और कम कीमत ने देसी खिलौनों को धीरे-धीरे किनारे कर दिया। इसके बाद मोबाइल, टैबलेट और वीडियो गेम्स जैसे डिजिटल विकल्पों ने तो बच्चों की दुनिया ही बदल दी। आज के बच्चे खिलौनों से ज्यादा मोबाइल स्क्रीन से जुड़ चुके हैं। जिसका सीधा असर खिलौना बाजार पर पड़ रहा है। खिलौना दुकानदार सुनील कुमार बताते हैं कि चाइनीज, प्लास्टिक और डिजिटल खिलौनों के बढ़ते चलन ने पारंपरिक खिलौना बाजार को एक बड़ी चुनौती दी है। पहले मिट्टी से बने खिलौने खत्म हुए। खिलौना बनाने वाले कुम्हार व अन्य कारीगर तो बाजार से दस साल से गायब हैं। अब प्लास्टिक व अन्य सामग्री के बने खिलौने के बाजार पर भी संकट है। जहां कभी एक दिन में 10-12 हजार का तक का कारोबार होता था, आज वह कमाई महज 500 से 600 तक ही रह गई है। ऑनलाइन बाजार ने भी हमारा काम ठप कर दिया है। देसी खिलौने तो खत्म ही हो गए। ऑनलाइन माध्यमों ने ग्राहकों को अपने घर बैठे ही विभिन्न प्रकार के खिलौने पसंद करने और खरीदने की सुविधा दी है। लोग दुकानों तक पहुंचते ही नहीं। पहुंचते भी हैं तो मोबाइल का स्क्रीन दिखाकर ऐसे-ऐसे खिलौने की डिमांड करते हैं जिसकी यहां आपूर्ति नहीं है। दरअसल, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर पारंपरिक दुकानों की तुलना में कहीं अधिक विविधतापूर्ण खिलौने उपलब्ध होते हैं। खिलौना दुकानदारों के सामने ऑनलाइन बाजार के कारण कई गंभीर चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव ग्राहकों की संख्या में भारी कमी आई है। कोरोना के पहले तक प्लास्टिक के खिलौनों का कारोबार अच्छा था। लेकिन वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक वाले खिलौनों की मांग बढ़ गई, जिसके कारण स्थानीय खिलौना कारोबारी इनको बेचने लगे। वहीं बच्चों के परिजन भी इन खिलौनों के प्रति आकर्षित हो गए। अभिभावक बताते हैं कि वे टेडी या प्लास्टिक के अन्य खिलौने लेकर जाते भी हैं तो बच्चे उन खिलौनों से ज्यादा दिन नहीं खेलते हैं। ऑनलाइन बाजार से प्रतिस्पर्धा मुश्किल दुकानदार विनोद कुमार कहते हैं, ऑनलाइन खुदरा विक्रेताओं से प्रतिस्पर्धा के कारण उन्हें अपने उत्पादों की कीमतों को कम करना पड़ता है, जिससे उनके लाभ में काफी कमी आई है। ऑनलाइन कारोबार के आगे देसी खिलौने का कारोबार घुटने टेक चुका है। नया स्टॉक रखने में दिक्कत हो रही है क्योंकि पुराना स्टॉक बिक नहीं पा रही, जिससे कारण हमारी पूंजी फंस हुई है। कई छोटे दुकानदार डिजिटल मार्केटिंग और ऑनलाइन बिक्री प्लेटफॉर्म के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं रखते हैं, जिससे वे ऑनलाइन ग्राहकों तक पहुंचने में असमर्थ हैं। दुकानदारों ने कहा कि यह नीति बनाई जानी चाहिए जिससे देसी खिलौने का बाजार गुलजार हो। ऑनलाइन बाजार को सीमित करना होगा नहीं तो सैकड़ों लोग बेरोजगार हो जाएंगे। पारंपरिक बाजार की चमक जल्द खो देंगे। लोग बेरोजगार हो जाएंगे। वहीं खिलौनों की दुनिया में यह परिवर्तन न केवल व्यावसायिक परिदृश्य को बदल रहा है, बल्कि बच्चों के खेलने और सीखने के तरीके को भी प्रभावित कर रहा है। बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है खिलौना बाजार नालारोड स्थित मुख्तार टोली बाजार की बड़ी समस्या यहां की बुनियादी सुविधाओं की कमी है। इससे ग्राहकों को परेशानी होती है। यहां न तो कोई सार्वजनिक शौचालय है, न पीने के पानी की उचित व्यवस्था। न बैठने की कोई जगह और न ही पार्किंग की सुविधा है। स्थानीय महिला दुकानदार सुनीता देवी बताती हैं, महिलाओं के लिए बाजार में कई समस्याएं है। किसी भी बाजार में शौचालय नहीं होने से सबसे ज्यादा दिक्कत महिलाओं को होती है। इन असुविधाओं के कारण भी लोग, खासकर परिवार सहित आने वाले ग्राहक, इस बाजार में आने से कतराते हैं। ऑनलाइन शॉपिंग इन सभी बुनियादी समस्याओं को दूर कर देती है, जिससे ग्राहकों के लिए यह एक अधिक महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका है। अगर मल्टीस्टोरी पार्किंग बना दी जाये तो बाजार तक लोग पहुंच बनाएंगे। सड़क पर वाहनों की पार्किंग से जाम लगता है और खरीदार भी इस तनाव में रहते हैं कि जुर्माना न हो जाय। दर्द ए दास्तां दिन भर में इक्का-दुक्का ग्राहक ही आते हैं दुकान में खिलौना दुकानदार राजेश कुमार का कहना है कि पहले इस व्यवसाय में अच्छा लाभ मिल जाता था। कई परिवारों का इससे रोजी-रोटी चलती थी। मिट्टी और लकड़ी से बने खिलौने चलन में थे तो कई कुम्हार या बढ़ई टोकरी भर-भरकर खिलौने थोक में बेचने आते थे। दुकानदारों को दुकान तक सप्लाई मिलता था। लेकिन समय के साथ सबकुछ बदल गया। कोरोना के बाद यहां की लगभग सारी दुकानों की हालत खस्ता है। कई दुकानदारों ने अपने दुकान में कार्यरत कर्मियों को हटाना शुरू कर दिया। बिक्री ही नहीं है तो मालिक खुद दुकान पर बैठने लगे। दिन भर की टकटकी के बाद इक्का-दुक्का ग्राहक ही दुकान पर आते हैं। कई लोगों ने पेशा बदल दिया। लेकिन हर किसी में इतना सामर्थ्य नहीं कि नए कारोबार का जोखिम उठाये। ऑनलाइन बाजार हमारा 70 प्रतिशत कारोबार खा गया है। ऑनलाइन माध्यम भी रहे और देसी खिलौनों का बाजार भी चमके इस दिशा में सरकार और समाज दोनों को काम करने की जरूरत है। शिकायतें 1 ऑनलाइन गेम्स और मोबाइल ने पारंपरिक खिलौना बाजार को प्रभावित किया है। बच्चे इनके लत से चिड़-चिड़े मिजाज के हो रहे हैं। 2. ऑनलाइन बाजार ने पारंपरिक खिलौना बाजार को ठप कर दिया है। इससे लोकल दुकानदारों की बिक्री महज 20 से 30 प्रतिशत ही रह गई है। 3. नाला रोड स्थित मुख्तार बाजार में बुनियादी सुविधा पेयजल, शौचालय और साफ-सफाई का अभाव है। 4 मुख्तार बाजार में पार्किंग की कमी है, इससे ग्राहकों को अपने वाहन पार्क करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सड़क किनारे गाड़ी पार्क करने पर चालन कटने जैसी समस्या होती है। सुझाव 1 सरकार को ऑनलाइन व्यापार को लेकर नीति बनानी चाहिए, ताकि ताकि स्थानीय दुकानदारों का कारोबार भी चल सके 2 नाला रोड स्थित मुख्तार बाजार में ग्राहकों व दुकानदारों के लिए बुनियादी सुविधाएं पेयजल, शौचालय आदि की व्यवस्था की जाये। 3 लकड़ी, मिट्टी और कपड़े से बने खिलौनों को लेकर जागरूकता फैलाने की जरूरत है 4 मुख्तार बाजार में पार्किंग को लेकर समस्या है। बाजार के आसपास पार्किंग सहित बुनियादी सुविधाएं विकसित की जाएं। ------ मोबाइल की लत बच्चों को मानसिक रूप से बना रहा कमजोर आजकल के छटे-छोटे बच्चे इलेक्ट्रॉनिक खिलौने और मोबाइल गेम्स के प्रति तेजी से आकर्षित हो रहे हैं। इसके पीछे समय का बदलाव तो है ही, परिजन भी कम जिम्मेवारी नहीं हैं। एकल परिवारों में कामकाजी पिता या माता अपने बच्चों को काफी कम उम्र में मोबाइल पकड़ा देते हैं। इससे बच्चे व्यस्त तो हो जाते हैं लेकिन बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। बाल मनोविज्ञान के विशेषज्ञ बताते हैं कि कम उम्र में बच्चों को मोबाइल की लत लगना उनकी मानसिक सेहत के लिए खतरनाक हैं। इसका प्रभाव उनके किशोर होने पर भी दिखता है। ऐसे बच्चे असुरक्षा की भावना से तो ग्रसित होते ही है, सामान्य परेशानियों से सामना करने में भी खुद को असहज पाते हैं। उनमें एकाकी भाव पनपता है तो उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधक होता है। मोबाइल के अत्यधिक इस्तेमाल से बच्चों की आंखों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उनकी दृष्टि कमजोर हो जाती है। इसके अलावा, बच्चे अपनी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता खो रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चों की आंखों पर टंगे चश्मे बताते हैं कि मोबाइल या ऑनलाइन कार्टून की दुनिया ने उनकी आखों पर कितना बुरा असर डाला है। पारंपरिक खिलौने जैसे कि गुड्डा-गुड़िया, लट्टू और सांप सीढ़ी जैसे खेल हुआ करते हैं। इनका कोई नकरात्मक प्रभाव नहीं था। बचपन से ही बच्चों का प्रकृति से जुड़ाव रहता था साथ ही लकड़ी की काठी, या तीनचकिया जैसे खिलौनों से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास होता है। अभिभावकों को देसी खिलौनों का लाभ पता है ऐसे में अपने बच्चों को पारंपरिक खिलौनों और खेलों की ओर प्रोत्साहित करना होगा। इससे बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा। बच्चों की मानसिक सेहत भी सुधरेगी। साथ ही गुम हो रहे देसी खिलौनों का बाजार तैयार होगा। इससे बच्चे, अभिभावक, देसी खिलाने के कारीगर और समाज का भी संतुलित विकास होगा। चाइनीज खिलौनों की चहल-पहल में गुम हो रही देशी दुकानें कहां गया हाय मेरा दिन वो सलोना रे, हाथों में था मेरे माटी का खिलौना रे, वही मेरा चांदी था और वही मेरा सोना रे... साहित्यकार नीलोत्पल मृणाल अपने गीतों से देसी खिलौने के लिए प्रयोग का अलख जगाते हुए कहते हैं कि जीवन जितना प्रकृति के निकट होगा उतना ही सुखद होगा। व्यक्तित्व में उतनी ही चमक आएगी। बचपन में परिवेश का असर पूरे जीवन पर पड़ता है। देसी खिलौने का एक अपना ही आनंद है। प्राकृतिक सामाग्री से तैयार ये खिलौने अलग-अगल शैली व बनावट के होते थे। जिनमें राजा-रानी, हाथी, घोड़े, पंक्षी, बाजे वाले खिलौने आदि शामिल थे। ये मिट्टी व लकड़ी से तैयार किए जाते थे। जो हर राज्य के विभिन्नता और खुबसूरती को दर्शाते थे। खिलौनो का भी अपना अलग ही दौर रहा है। कभी ये घर के टूटे - फूटे सामानों से तैयार किए जाते थे। जिसे खेलने के साथ-साथ घर की सजावट के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। बच्चे इन से बड़े चाव से खेलते थे। अभिभावकों ने खुद को आधुनिक बनाने की होड़ में अपने बच्चों के बचपन को भी आधुनिकता की दौड़ में रेस लगाना सिखा दिया। इसका बड़ा सामाजिक नुकसान हो रहा है। भारतीय बाजारों में चीनी खिलौनों का दबदबा खिलौना विक्रेता जितेंद्र कुमार बताते हैं, आज चीनी खिलौनों का दबदबा भारतीय बाजारों में हैं। ये रंगीन, सस्ते और हर नए कार्टून चरित्र पर आधारित होते हैं। ये बच्चों की पहली पसंद बन चुके हैं। देसी खिलौने, जो अक्सर लकड़ी या मिट्टी के बने होते थे, कहीं कोने में सिमट से गए हैं। दिवाली हो या जन्मदिन, बाजारों में हर जगह, मेड इन चाइना के खिलौनो की धूम रहती है। सस्ते होने के कारण अभिभावक भी इन्हीं खिलौनों को प्राथमिकता देते हैं, भले ही उनकी गुणवत्ता और सुरक्षा पर सवाल उठते हैं। इस सस्ते चीनी आयात ने भारतीय खिलौना निर्माताओं की कमर तोड़ दी थी। अब पारंपरिक खिलौनों को आधुनिक रूप दिया जा रहा है और नए भारतीय चरित्रों पर आधारित खिलौने भी बाजार में आ रहे हैं। उनकी पहुंच और सस्ते दाम अभी भी एक बड़ी प्रतिस्पर्धा है, लेकिन भारतीय खिलौना उद्योग को वापसी करने के लिए सरकारी मदद की जरूरत है। तभी भारतीय चिलौना बाजार फिर से अपने अस्तित्व में पहुंच पाएगा। कमाई घटी, लागत बढ़ी कुम्हार रवि कुमार बताते हैं कि अब मिट्टी के खिलौने सिर्फ दीपावली में ही बिकते हैं। जो लक्ष्मी पूजा के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। ऐसे तो अब इन खिलौनों का महत्व नहीं रह गया है। बच्चे खेलना भी पसंद नहीं करते हैं। एक समय था जब भारतीय खिलौनो की चमक ही कुछ और होती थी। अक्सर होने वाले मेले में इन खिलौनो की अच्छी खरीदारी होती थी। एक दशक पहले तक इनके थोड़े बहुत खरीदार मिलते थे। लेकिन अब तो ये खिलौने बाजारों से विलुप्त हो गए हैं। अब साल में एक बार ही इनको बनाया जाता है। जब बाजार में खरीदार ही नहीं मिलेंगे तो हम पारंपरिक खिलौने कैसे और किसे बेचें।
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