हुनरमंद महिलाओं को घर के पास मिले प्रशिक्षण,बनाएं आत्मनिर्भर
समस्तीपुर में घरेलू महिलाएं कई हुनरों में पारंगत हैं, लेकिन स्वरोजगार के लिए उन्हें प्रशिक्षण, संसाधनों और बाजार की आवश्यकता है। सरकारी योजनाएं सीमित वर्ग को ही फायदा पहुंचा रही हैं। महिलाएं...
समस्तीपुर । समस्तीपुर शहर में घरेलू महिलाएं किसी न किसी हुनर में पारंगत हैं। चाहे वह सिलाई-कढ़ाई हो, पापड़-अचार बनाना हो, अगरबत्ती, बुनाई या सजावटी वस्तुओं का निर्माण, लेकिन हुनर को स्वरोजगार में बदलने के लिए उन्हें प्रशिक्षण, संसाधन और बाजार की जरूरत होती है। सरकारी योजनाएं तो बहुत हैं। महिला स्वावलंबन योजना, स्टार्टअप इंडिया, महिला मंडल सहित अन्य योजनाओं का संचालन कर रखा गया है। जमीनी स्तर पर इनका फायदा बहुत ही सीमित वर्ग को मिल पाता है। बोले अभियान में महिलाओं ने कहा कि घर के पास प्रशिक्षण मिले तो हम भी आत्मनिर्भर हो जाएंगी। प्रतिा देवी, पार्वती देवी ने कहा कि अधिकतर घरेलू महिलाएं जानती ही नहीं कि उन्हें कहां, कैसे आवेदन करना है।
न ही प्रखंड या पंचायत स्तर पर उन्हें इस बारे में जागरूक किया जाता है। यदि सरकार प्रत्येक प्रखंड में महिला गृहउद्योग प्रशिक्षण केंद्र खोले, जहां प्रशिक्षण के साथ उन्हें प्रोडक्ट की पैकिंग, मार्केटिंग, और ऑनलाइन बिक्री का ज्ञान दिया जाए, तो वे आत्मनिर्भर हो सकती हैं। इसके अलावा स्वयं सहायता समूहों को भी प्रोफेशनल मदद मिलनी चाहिए। मोनी देवी ने कहा कि घरेलू महिलाएं खुद को साबित करना चाहती हैं, लेकिन उन्हें मंच चाहिए, अवसर चाहिए और सबसे बढ़कर समाज से प्रोत्साहन चाहिए। यदि सही समर्थन मिले तो ये महिलाएं न केवल अपने परिवार को आर्थिक सहयोग देंगी, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी नई दिशा देंगी। सोनी देवी ने कहा कि महंगाई ने घरेलू महिलाओं के जीवन को जकड़ कर रख दिया है। बाजार में हर रोज कुछ न कुछ महंगा हो रहा है- सब्जियां, दूध, गैस, अनाज, बिजली, कपड़े। एक सीमित आमदनी वाले परिवार में घर का सारा बजट संभालने की जिम्मेदारी महिला की होती है। वह यह तय करती है कि इस महीने क्या खरीदा जाएगा और क्या टाला जाएगा। बच्चे की जरूरतें, राशन, घरेलू चीजें—हर चीज को संतुलित करने के लिए उन्हें लगातार मानसिक दबाव से गुजरना पड़ता है। आज की वास्तविकता यह है कि एक व्यक्ति की आमदनी से घर का खर्च तो किसी तरह चल जाता है, लेकिन बचत नहीं हो पाती। ऐसे में त्योहार, बीमारी, या कोई आकस्मिक खर्च सामने आ जाए तो संकट गहरा जाता है। निभा देवी व ललिता देवी ने कहा कि अधिकांश घरेलू महिलाएं पहले खुद के खर्च काटती हैं। न तो वे अपने लिए कपड़े लेती हैं, न दवा, न ही कभी बाहर घूमने की मांग करती हैं। यह आत्मत्याग समाज में शायद ही कहीं दर्ज होता है। कई बार महंगाई के कारण घरेलू कलह भी बढ़ जाती है, क्योंकि पुरुष सोचते हैं कि पैसे की कमी का कारण घर चलाने में लापरवाही है, जबकि हकीकत यह है कि हर चीज का दाम आमदनी से तेजी से बढ़ रहा है। यदि सरकार घरेलू सामानों की कीमतों पर नियंत्रण रखे, तो महिलाओं को कुछ राहत मिल सकती है। शिक्षा पहले एक सेवा मानी जाती थी, आज यह एक व्यापार बन गई है। एक औसत परिवार के लिए बच्चों की स्कूली शिक्षा सबसे बड़ा खर्च बन गया है। सरकारी स्कूलों की हालत इतनी खराब है कि माता-पिता मजबूरी में निजी स्कूलों का रुख करते हैं। लेकिन वहां फीस, यूनिफॉर्म, किताब-कॉपी, बस चार्ज, स्पेशल एक्टिविटी, और फिर ट्यूशन का अतिरिक्त खर्च यह सब मिलाकर शिक्षा एक बोझ बन जाती है। सरकारी अस्पताल में डॉक्टर और दवाइयों की रहती है कमी सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर मिलते नहीं, दवाइयां उपलब्ध नहीं होतीं और जांच के लिए लंबी लाइन लगानी पड़ती है। वहीं वही डॉक्टर शाम को निजी क्लिनिक में बैठते हैं और वहां मोटी फीस वसूलते हैं। स्वास्थ्य खर्च भी आज शिक्षा से कम नहीं है। मामूली जांच, दवाइयों और अस्पताल के खर्च से आम परिवार की कमर टूट जाती है। घरेलू महिलाएं अगर समय पर इलाज कराएं, तो कई समस्याएं टाली जा सकती हैं। इसलिए मोहल्लों में महिलाओं के लिए नियमित स्वास्थ्य शिविर जरूरी हैं। वहां वे खुलकर अपनी बातें बता सकें और समय रहते इलाज पा सकें। हर माह नि:शुल्क स्वास्थ्य शिविर लगाया जाए हमें केवल मौके की जरूरत है। घर के काम के साथ हम भी आत्मनिर्भर होना चाहती हैं। वहीं इसके लिए सरकार अगर कोई मदद कर दे तो काम आसान हो जाएगा। सलौनी कुमारी कहती है कि हम भी चाहते हैं कि अपने हुनर से कुछ कमाएं। सिलाई आती है, पापड़-अचार बना लेते हैं। लेकिन कोई ट्रेनिंग नहीं देता। बाजार तक पहुंचना तो बहुत दूर की बात है। बस मन में रह जाता है कि कुछ करना है। सरकार थोड़ी मदद करे और स्थानीय स्तर पर ट्रेनिंग की व्यवस्था करा दे तो बहुत-सी महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकती हैं। प्रमिला देवी का कहना है कि हमारे मोहल्ले में कोई महिला स्वास्थ्य शिविर नहीं लगता। कई बार खुद की तबीयत बिगड़ती है, पर घर में बोल नहीं पाते। जब हालत खराब हो जाती है, तब पति से कहने की हिम्मत होती है। अगर सरकारी हॉस्पिटल सही चलता तो हम भी समय पर इलाज करा सकते थे। मोहल्ले में हर माह नि:शुल्क स्वास्थ्य शिविर लगाया जाना चाहिए। मालती कुमारी कहती है कि बच्चों की पढ़ाई सबसे बड़ी चिंता है। सरकारी स्कूल में कुछ सिखाया नहीं जाता, इसलिए मजबूरी में प्राइवेट स्कूल भेजते हैं। फिर भी ट्यूशन लगाना पड़ता है। अगर बच्चा अच्छा न करे तो सबसे पहले हमसे पूछा जाता है। कोई नहीं समझता कि घर का पूरा काम संभालकर पढ़ाई कैसे करवाएं। स्नेहा देवी कहती है कि घर चलाना अब पहले जितना आसान नहीं रहा। हर चीज के दाम बढ़ गए हैं। पति की आमदनी से घर का राशन, बच्चों की फीस, दवा-पानी सब मुश्किल से पूरा होता है। खुद के लिए कुछ सोचने की तो फुर्सत ही नहीं मिलती। अगर कोई महिला गृहउद्योग शुरू करना चाहे तो न जानकारी मिलती है, न सहयोग। सरकार अगर प्रशिक्षण और बाजार दे दे तो हम भी कुछ कर सकते हैं। बैंक से लोन मिलना भी हो रहा मुश्किल, सम्मान भी नहीं मिलता दूसरी तरफ घरेलू महिलाएं, जो केवल घर संभालती हैं, वे चाह कर भी इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पातीं। दिव्या सहनी ने कहा कि आर्थिक असमानता परिवार के भीतर मानसिक असमानता भी पैदा करती है। घरेलू महिलाओं का योगदान आर्थिक आंकड़ों में नहीं दिखता, लेकिन उनकी सेवाओं के बिना घर चलाना संभव नहीं है। सरकारी स्कूल और अस्पताल आम लोगों की बुनियादी जरूरतों से जुड़े संस्थान हैं। इन्हें सुधारने की जिम्मेदारी सीधे तौर पर सरकार की होती है, क्योंकि इन पर जनता का पैसा खर्च होता है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के बजाय औपचारिकता निभाई जाती है। वहीं सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की अनुपस्थिति, दवा की कमी और मशीनों की खराबी आम बात हो गई है। ऐसे में आम जनता को मजबूरी में महंगे निजी विकल्पों की तरफ जाना पड़ता है। यह दोहरी मार है एक तरफ टैक्स के पैसे से चलने वाली सेवाएं बेकार हैं, दूसरी ओर निजी सेवाएं जेब पर भारी पड़ती हैं। मीना देवी कहती है कि हम महिलाएं दिनभर घर का काम करती हैं। पूरे परिवार की जिम्मेदारी हमीं पर है। दोपहर में भी सुस्ताने की फर्सत नहीं मिलती। शाम होते-होते शरीर टूटने लगता है। पीठ एवं कमर दर्द की समस्या आम है। जब भी शिकायत करो तो पूछा जाता है, दिनभर क्या किया। हमारी मेहनत का कोई सम्मान नहीं है। शांति देवी का कहना है कि सरकारी योजनाएं सिर्फ कागजों पर हैं। आज तक कोई महिला समूह का काम ठीक से नहीं चला। बैंक से लोन लेने में भी अड़चनें हैं। कई महिलाएं काम करना चाहती हैं, लेकिन परिवार और सिस्टम दोनों ही साथ नहीं देते।
-बोले जिम्मेदार-
महिला स्वावलंबन योजना, स्टार्टअप इंडिया, महिला मंडल सहित अन्य योजनाओं का संचालन है। इसका प्रचार प्रसार भी किया जा रहा है। सभी महिलाएं इसके तहत लघु उद्योग के तहत ऋण ले सकती है। अगर इसमें किसी भी प्रकार की दिक्कत होती है तो वे कार्यालय अवधि में संपर्क कर सकते हैं।
-दिलीप कुमार, एसडीओ
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