क्या दिल्ली की सत्ता से भी 'कीमती चीज' अरविंद केजरीवाल के हाथ से चली गई?
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार से जहां एक तरफ दिल्ली में उसकी सत्ता चली गई है तो दूसरी तरफ पंजाब में भी सरकार के भविष्य पर कई तरह के सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार से जहां एक तरफ राजधानी में उसकी सत्ता चली गई है तो दूसरी तरफ पंजाब में भी सरकार के भविष्य पर कई तरह के सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। एक सवाल यह भी उठता है कि क्या दिल्ली की सत्ता से भी कीमती वह चीज केजरीवाल ने खो दी है, जिसके बल पर उन्होंने पंजाब में सरकार बनाई और गोवा, गुजरात से जम्मू-कश्मीर तक की विधानसभा में उनके विधायक चुनकर पहुंचे। यह कीमती पूंजी है- दिल्ली मॉडल। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोख से जन्मी आम आदमी पार्टी के मुखिया ने एक वैकल्पिक राजनीति का दावा किया था और अपने 10 साल के राजकाज में उन्होंने शासन का एक नया मॉडल जनता के सामने रखा।
क्यों उठ रहा है दिल्ली मॉडल पर सवाल
दरअसल, अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में अपने 10 साल के अपने शासन के दौरान शिक्षा, स्वास्थ्य और मुफ्त की सुविधाओं को लेकर मिलाकर शासन का एक नया मॉडल पेश करने की कोशिश की। केजरीवाल ने इसे 'दिल्ली मॉडल' नाम देते हुए खूब प्रचारित किया। केजरीवाल ने दिल्ली के बाहर पार्टी के विस्तार के लिए इसी मॉडल का सहारा लिया और करीब एक दशक में ही वह राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने में कामयाब रहे। दिल्ली में लगातार तीन बार सरकार बनाने के बाद उन्हें इस मॉडल के सहारे 'चौका' लगाने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन जनादेश इसके विपरीत आया। ना सिर्फ आम आदमी पार्टी बहुमत से काफी दूर रह गई, बल्कि खुद अरविंद केजरीवाल भी अपनी सीट हार गए जो इस दिल्ली मॉडल के सूत्रधार थे। इतना ही नहीं मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन भी अपनी-अपनी सीटों पर हार गए जिन्हें अरविंद केजरीवाल शिक्षा क्रांति स्वास्थ्य क्रांति का जनक बताते थे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दिल्ली मॉडल खारिज हो गया है?
क्या खारिज हो गया है दिल्ली मॉडल, क्यों हारे केजरीवाल?
हमने वरिष्ठ पत्रकार कमर वाहिद नकवी जी से यह सवाल किया तो उन्होंने कहा, 'दिल्ली मॉडल को खारिज होना तो नहीं माना जा सकता है, लेकिन जो केजरीवाल की अपनी गलतिया हैं उसका खामिजाया उन्हें भुगतना पड़ा है। गलती कई मोर्चे पर हैं। पहली गलती तो यह है कि यदि आप धुर ईमानदारी की उम्मीदें जगाकर सत्ता में आए तो आपको पिछले 10 साल में प्रतिमान स्थापित करने चाहिए थे, जिससे लोगों को लगता कि यह अलग तरह की राजनीति है अलग तरह के नैतिक मूल्यों की स्थापना करनी चाहिए थी। इसकी सबसे बड़ी विडंबना वह मुख्यमंत्री आवास जिस पर उन्होंने बहुत अधिक खर्च किया, जिसका कोई तर्क नहीं बनता था खासतौर पर उस व्यक्ति के लिए जो यह कहकर राजनीति में आया हो कि हम बहुत छोटे घर में रहेंगे।'
नकवी यह भी कहते हैं कि अरविंद केजरीवाल केंद्र में विरोधी पार्टी की सरकार के साथ तालमेल नहीं बिठा सके ताकि दिल्ली में कामकाज होता। लगातार खींचतान की वजह से दिल्ली में इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि के कई काम नहीं हो सके, जिससे मिडिल क्लास नाराज हुआ। गरीबों को तो वह मिल गया जो केजरीवाल ने कहा था। लेकिन आप इतने से ही नहीं जीत सकते थे। यदि दूसरे राज्यों में कांग्रेस के साथ रिश्ते अच्छे बनाए होते तो हो सकता है कि दिल्ली में कांग्रेस उनके साथ तालमेल करती और नतीजे कुछ अलग होते।
क्या दूसरे राज्यों में कर पाएंगे दिल्ली मॉडल का इस्तेमाल?
क्या केजरीवाल, सिसोदिया और सत्येंद्र जैन की हार से दिल्ली मॉडल खारिज हुआ है और क्या भविष्य में वह इसका इस्तेमाल विस्तार के लिए कर सकेंगे? नकवी कहते हैं- मैं ऐसा नहीं मानता क्योंकि लोग ऐसा मानते हैं कि दिल्ली में शिक्षा में सुधार हुआ है, अस्पताल की स्थिति सुधरी है और यह दो मुद्दे हैं जो गरीबों को परेशान करते हैं। प्राइवेट स्कूल और अस्पताल महंगे हैं और लोगों की जेब से बाहर हो चुके हैं। अरविंद केजरीवाल को यदि वापसी करनी है तो उन्हें राजनीतिक कौशल दिखाना होगा। क्या दूसरे राज्यों में वह इस मॉडल का इस्तेमाल आगे कर पाएंगे? इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि पंजाब को छोड़कर अन्य किसी राज्य में आम आदमी पार्टी का का खास आधार नहीं है, पहले तो जरूरत है कि वह अपना आधार बनाए। अभी ऐसा तो है नहीं कि केजरीवाल किसी राज्य में इस स्थिति में हों कि वो सोच सकते हैं कि उनकी सरकार बनी। पहले तो वह अपने संगठन को इतना बड़ा करें कि वो किसी राजनीतिक दल से सम्मानजनक गठबंधन कर सकें जिससे सत्ता में भागीदारी हो तब यह बात होगी कि दिल्ली मॉडल सफल रहा या विफल। अभी जो राजनीतिक परिदृश्य है उसमें वह दिल्ली मॉडल का तर्क लेकर जा भी नहीं सकते, क्योंकि उनको बहुत लंबा सफर तय करना है दूसरे राज्यों में।
AAP विस्तार को झटका, पर मॉडल दूसरी पार्टियों ने भी अपनाया: सतीश के सिंह
क्या आम आदमी पार्टी की हार के साथ दिल्ली मॉडल भी खारिज हो गया है? हमने जब यही सवाल वरिष्ठ पत्रकार सतीश के सिंह से किया तो उन्होंने कहा, 'आम आदमी पार्टी के भविष्य के विस्तार को झटका जरूर लेगा। क्योंकि उनकी जो महत्वाकांक्षा है, उसमें रुकावट निश्चित रूप से आएगी। क्योंकि यह परसेप्शन की ही पार्टी थी। परसेप्शन लॉस बड़ा है क्योंकि इस चुनाव में शीशमहल और शराब से छवि यह बनी कि यह हमारी मदद तो करते हैं लेकिन ये लोग तो वही राजे हैं। इनके विस्तार में, पार्टी को मजबूत करने में निश्चित तौर पर फर्क पड़ेगा। इन्हें कोर्स करेक्शन करना पड़ा। यदि अन्य दलों की तरह रहेंगे तो इनका कुछ नहीं होगा क्योंकि ये विकल्प लेकर आए थे और मैं कहूंगा कि इसे झटका लगा है।'
सतीश के सिंह आगे कहते हैं- दूसरा पक्ष यह है कि जो केजरीवाल मॉडल है या दिल्ली मॉडल है या बिजली-पानी फ्री मॉडल है, या मोहल्ला क्लीनिक-अच्छे स्कूल का जो मॉडल है, इसको कोई झटका नहीं लगा है नहीं तो इनको लगभग 44 पर्सेंट वोट नहीं मिलता। करीब 2 पर्सेंट ही भाजपा से कम है। यानी जो आम आदमी है, गरीब है, दलित है जिसका खर्चा बचता है मुफ्त की सुविधाओं से उन्होंने इन्हें जमकर वोट दिया है। मॉडल को फर्क नहीं पड़ा, इनका पार्टी को जरूर फर्क बड़ा है। यही मॉडल अब तमाम पार्टियों ने अपना लिया है, जिसमें भाजपा भी शामिल हो गई है। उसके विज्ञापन में भी पहला वाक्य यही थी कि मौजूदा योजनाएं जारी रहेंगी।