Who will bear the entire expenses of the child if the divorced mother earns, Delhi High Court big decision तलाकशुदा मां के कमाने पर कौन-कितना उठाएगा बच्चे का खर्च? दिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, Ncr Hindi News - Hindustan
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तलाकशुदा मां के कमाने पर कौन-कितना उठाएगा बच्चे का खर्च? दिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फैसला

दिल्ली हाईकोर्ट में एक पति ने याचिका लगाई कि तलाक के बाद बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी का खर्च पति-पत्नी दोनों बराबर मात्रा में उठाएं। (50:50 फीसद) इस केस में दोनों कमाते हैं। जानिए दिल्ली कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया है?

Ratan Gupta लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीMon, 16 June 2025 08:19 PM
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तलाकशुदा मां के कमाने पर कौन-कितना उठाएगा बच्चे का खर्च? दिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फैसला

तलाक के बाद बच्चों की परवरिश के लिए गुजारा भत्ता का खर्च कौन कितना उठाएगा, इससे जुड़ा फैसला सामने आया है। दिल्ली हाईकोर्ट में एक पति ने याचिका लगाई कि तलाक के बाद बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी का खर्च पति-पत्नी दोनों बराबर मात्रा में उठाएं। (50:50 फीसद) इस केस में पति-पत्नी दोनों कमाते हैं। जानिए दिल्ली कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया है?

पति-पत्नी में कौन कितना कमाता है?

इस मामले में तलाकशुदा व्यक्ति ने अदालत से गुहार लगाई थी कि उसकी पूर्व पत्नी हर महीने करीब 75000-80000 रुपये कमाती है। इस लिहाज से अपने दो नाबालिग बच्चों की परवरिश का वित्तीय बोझ समान रूप से दोनों को बराबर मात्रा में उठाना चाहिए। हालांकि पति लगभग 1.75 लाख रुपये हर महीना कमाता है।

बच्चों का खर्च कौन-कितना उठाएगा?

दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाया कि हालांकि माता-पिता दोनों कमाते हैं, लेकिन पिता को अकेले ही अपने दो नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा का पूरा खर्च उठाना होगा। भले ही मां भी नौकरीपेशा में हो, इससे फर्क नहीं पड़ता।

फैमिली कोर्ट ने पहले उसे बच्चों के भरण-पोषण के लिए प्रति माह 50,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया था। इससे असहमत होकर पति ने तर्क दिया था कि मां भी अच्छा-खासा कमाती है, इसलिए उसे भी समान रूप से योगदान देना चाहिए। लेकिन, उच्च न्यायालय ने उसकी याचिका खारिज कर दी।

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मां की जगह पिता क्यों उठाएंगे खर्च?

न्यायालय ने मां द्वारा दोहरे काम का हवाला दिया। कोर्ट ने कहा कि मां ऑफिस और बच्चे दोनों की दोहरी जिम्मेदारी संभालेगी। जबकि घर में किए जाने वाले कामों को गैर-मौद्रिक माना जाता है। इसलिए उसे ऑफिस और घर दोनों का संतुलन बैठाना है।

अधिवक्ता सौरव अग्रवाल बताते हैं, "न्यायालय का सर्वोपरि ध्यान बच्चे के कल्याण पर है, ताकि वह अपने माता-पिता दोनों के साथ रहने के दौरान जिस तरह का जीवन और सम्मान प्राप्त कर सकता है, वैसा ही जीवन स्तर सुनिश्चित हो सके। इसमें केवल भरण-पोषण से आगे बढ़कर आत्म-सम्मान, शिक्षा, जीवनशैली और अवसर शामिल हैं।"