बोले बलिया: धीमा पड़ा चाक, कारीगर मिट्टी को भी हुए मोहताज
Balia News - कुम्भकार अपनी कला को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। मिट्टी के बर्तनों के व्यवसाय को अनुदान और सुविधाओं की कमी का सामना करना पड़ रहा है। युवा पीढ़ी इस काम में रुचि खो रही है, जिससे पारंपरिक...
‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय-कबीरदास का यह प्रसिद्ध दोहा इस समय मिट्टी के कारीगरों पर ही सटीक बैठ रहा है। कुंभकार अपनी कला को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। मिट्टी के बर्तनों के व्यवसाय को न अनुदान मिल रहा है और न कोई सुविधा। मशीनचालित चाक मिलते हैं, लेकिन गिनती के। उन्हें चलाने के लिए बिजली विभाग से जंग लड़नी पड़ती है। ज्यादातर इलाकों के कुम्हारों को बर्तन बनाने लायक मिट्टी के लिए भी जूझना पड़ रहा है। चाक पर मिट्टी को मनचाहा आकार देने वाले कुंभकारों ने भरौली में ‘हिन्दुस्तान से बातचीत के दौरान कारोबार से जुड़ी दिक्कतें साझा कीं।
मोतीलाल ने बताया कि कारोबार पर मंदी की मार है। घर के सामने मिट्टी के बर्तन तैयार रखे हैं, लेकिन खरीदार नहीं मिल रहे हैं। युवा पीढ़ी का इस काम से मोहभंग हो रहा है। उन्हें दूसरे शहर में चक्की चलाना मंजूर है, लेकिन चाक नहीं चलाना चाहते। पढ़े-लिखे बच्चे निजी कंपनियों में नौकरी करना पसंद कर रहे हैं। इसमें उनकी लाचारी भी है। मिट्टी के बर्तन बेचकर इतना पैसा नहीं कमा पा रहे, जिससे घर का खर्चा निकल पाए। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और दवाई का इंतजाम चुनौती है। उन्होंने उम्मीद जताई कि सरकार से मदद मिल जाए तो हमारे चाक आत्मनिर्भर भारत को गढ़ने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। बनारसी बोले, भगवान राम के वनवास से लौटने पर लोगों ने मिट्टी के दीपक जलाकर अयोध्या को जगमग कर दिया था। तब से दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा चली आ रही है। इस त्योहार की महीनों पहले से तैयारी शुरू हो जाती थी। उस मौसम की कमाई पूरे वर्ष गृहस्थी चलाने में सहायक होती थी। अब मिट्टी की कारीगरी मिट्टी में मिलती रही है। रामजी और सोमारू ने कहा, ‘वोकल फॉर लोकल की बात कुछ खास मौकों पर होती है। इलेक्ट्रिक उत्पादों और रंग-बिरंगी झालरों की चकाचौंध में मिट्टी के दीपक गुम हो रहे हैं। हमारा कारोबार सामाजिक सरोकार से जुड़ा है। इसलिए इसे बचाने के लिए समाज को भी आगे आना होगा। मिट्टी के बर्तन बनाकर पूरे परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाना अब आसान नहीं है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से लोगों में मिट्टी के कुल्हड़, दीया आदि के प्रति आकर्षण बढ़ा है। इसने उम्मीद जगायी है। हाड़तोड़ मेहनत, पर कमाई नहींः रामबचन ने मिट्टी के बर्तन बनाने में होने वाली मेहनत का जिक्र किया। कहा कि मेहनत के अनुपात में कमाई नहीं हो रही। बताया कि गीली मिट्टी को सुखाने के बाद फोड़ा जाता है। उसे छानने के बाद पानी मिलाकर आटे की तरह गूंथा जाता है। तैयार हो चुकी मिट्टी से बर्तन बनाया जाता है। फिर तैयार बर्तन को तेज धूप में सूखाया जाता है। अच्छी तरह सूख जाने के बाद उसे आग में पकाया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में काफी मेहनत और समय लगता है। कई दिनों की मेहनत के बदले चंद पैसे ही नसीब हो पाते हैं। पट्टे की जमीनों पर कब्जाः लोरिक और रामजी ने बताया कि जनपद में कुंभकारों की अच्छी-खासी संख्या मिट्टी के बर्तन बनाती है। गंगा किनारे के क्षेत्र में मिट्टी खोदाई की जगह सुरक्षित है, लेकिन जिले के ज्यादातर गांवों में यह व्यवस्था नहीं है। अब मिट्टी काफी महंगी हो चुकी है। पहले दो सौ से तीन सौ रुपये में एक ट्राॅली मिट्टी मिल जाती थी। अब उतने के ही एक हजार रुपये देने पड़ते हैं। बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने में काली, पीली और चीला मिट्टी की जरूरत पड़ती है। पहले ये गांवों में आसानी से मिल जाती थी। अब आबादी क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं। इससे उपयोगी मिट्टी का मिलना कठिन हो रहा है। अब कुंभकारों के उपयोग की मिट्टी कुछ ही गांवों में ही मिल पाती है। रामजी ने कहा कि कुछ वर्ष पहले सरकार ने मिट्टी के लिए जमीन के पट्टे किए थे लेकिन ज्यादातर क्षेत्रों में वहां अवैध कब्जा और अतिक्रमण है। प्रस्तुति: एनडी राय सुझाव बर्तन बनाने के लिए मिट्टी की कमी दूर करने का प्रयास होना चाहिए। इसके लिए पट्टे पर जमीन की उपलब्धता सुनिश्चित हो। प्लास्टिक के बर्तनों को पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाए। इससे मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ेगी। कुंभकारों के लिए इलेक्ट्रिक चाक और उपकरण की व्यवस्था होनी चाहिए। तब पारंपरिक चाक से काम नहीं करना पड़ेगा। मिट्टी बर्तन के कारोबार को सरकारी अनुदान या सहायता मिलनी चाहिए। इससे कुंभकार अपने व्यवसाय को बढ़ा सकेंगे। सरकार से मिलने वाले चाक को चलाने के लिए बिजली का कामर्शियल कनेक्शन न दिया जाय। इससे आर्थिक राहत मिलेगी। शिकायतें बर्तन बनाने के लिए मिट्टी का अभाव होता जा रहा है। मिट्टी महंगी भी हो चुकी है। पट्टे की जमीनों पर अतिक्रमण हो गया है। प्लास्टिक के बर्तनों से कारोबार प्रभावित हो रहा है। प्लास्टिक पर रोक का अनुपालन धरातल पर नहीं है। इलेक्ट्रिक चाक और उपकरण नहीं मिलने से परेशानी हो रही है। पारंपरिक चाक पर काम करने में बहुत मेहनत लगती है। मिट्टी बर्तन के कारोबार को सरकारी अनुदान या सहायता नहीं मिलती। पूंजी के अभाव में व्यवसाय प्रभावित हो रहा। सरकार से नि:शुल्क चाक गिने-चुने लोगों को ही मिल पाता है। जिसे मिला भी है, उसे बिजली विभाग से जंग लड़नी पड़ती है। मिट्टी के बर्तन पकाने का खर्च भी ज्यादा लालजी ने बताया कि कच्चे बर्तन को पकाने के लिए पहले भट्टियां होती थीं। तब मिट्टी के बर्तन आसानी से पक जाते थे। अब जगह कम है। भट्टियां खत्म हो चुकी हैं। अब मिट्टी के बर्तन पकाने के लिए कंडे (उपले) का इस्तेमाल होता है। उपला आसानी से नहीं मिल पा रहा। कभी-कभी उपला लाने में अच्छा-खासा किराया खर्च हो जाता है। इसके अलावा कोयला भी खरीदना पड़ता है। इससे बर्तनों को पकाने की लागत बढ़ी है। उस अनुपात में मुनाफा कम होता जा रहा है। राजू ने कहा कि कुल्हड़ और मिट्टी के बर्तनों के कारोबार को प्लास्टिक-कागज के बने ग्लासों, बर्तनों ने भी चोट पहुंचायी है। प्रदेश में प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा तो उम्मीद जगी थी कि बाजारों में मिट्टी के कुल्हड़ की मांग बढ़ेगी और इसका हमें सीधा लाभ मिलेगा। ऐसा नहीं हुआ। आज भी बाजारों में प्लास्टिक के ग्लास बेधड़क उपलब्ध हैं। मिट्टी के कुल्हड़ की मांग पिछले कुछ दिनों में बढ़ी जरूर है, लेकिन शहरों में यह मशीन से तैयार होने लगा है।इसमें परम्परागत की बजाय बड़े कारोबारी उतर आए हैं। लिहाजा, हम पिछड़ रहे हैं। मिलें इलेक्ट्रिक चाक-उपकरण मिलें : लोरिक ने बताया कि यदि हमें भी बिजली चालित उपकरण मिल जाएं तो कारोबार को संजीवनी मिल सकती है। इलेक्ट्रिक चाक से कुल्हड़ बनाने में लागत कम आएगी। मुनाफा बढ़ेगा तो आजीविका अच्छे से चलेगी। हालांकि समय-समय पर प्रशिक्षण और मुफ्त इलेक्ट्रिक चाक देने की पहल होती है, लेकिन इसका लाभ गिनती के ही कुंभकारों को मिल पाता है। वहीं, चाक के लिए बिजली का कमर्शियल कनेक्शन लेने का दबाव बनाया जाता है। जुर्माना-मुकदमा तक झेलना पड़ जाता है। साथ ही बर्तन पकाने के लिए अलग स्थान मिल जाय तो कारोबार रफ्तार पकड़ सकता है। बोले, कुंभकारों को प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ भी मिलना चाहिए। बोले जिम्मेदार कुंभकारों को इलेक्ट्रिक चाक और उपकरण समय-समय पर खादी ग्रामोद्योग की ओर से लक्ष्य के अनुसार उपलब्ध कराया जाता है। विश्वकर्मा श्रम सम्मान योजना के तहत भी समय-समय पर कुंभकारों को लाभान्वित किया जाता है। इसके अलावा अगर युवा कुंभकार कोई उद्योग स्थापित करना चाहें तो उनके लिए अनुदानपरक ऋण योजनाएं हैं। - रवि कुमार शर्मा, उपायुक्त, जिला उद्योग प्रोत्साहन तथा उद्यमिता विकास केंद्र, बलिया। सुनें हमारी पीड़ा कुंभकारों को मिट्टी के लिए पट्टे दिए गए हैं। उन पर अतिक्रमण हो चुका है। मिट्टी नहीं मिल पा रही। मोतीलाल मिट्टी की कीमत काफी बढ़ गई है। पहले दो से तीन सौ रुपये में ट्रॉली मिल जाती थी। अब एक हजार रुपये ट्रॉली है। बनारसी मिट्टी के बर्तन महंगे हो जाने की वजह से लोग प्लास्टिक और कागज के गिलास खरीद रहे हैं। रामजी पहले पत्तल वाली दावत होती थी, तब मिट्टी के बर्तन की बिक्री होती थी। अब स्वरूप बदल गया है। सोमारू पहले गर्मी के मौसम में मटके की एडवांस बुकिंग होती थी। अब फ्रिज और वाटर कूलर हो गए हैं। लोरिक कुंभकारों का काम केवल चाय के कुल्हड़ के सहारे चल रहा है। घर में कुल्हड़ ही बनाए जा रहे हैं। चंदन मिट्टी के बर्तन बेचकर ज्यादा आमदनी नहीं हो पाती। घर के खर्च और बच्चों की पढ़ाई भी नहीं हो पा रही है। लालजी इस काम में ज्यादा मुनाफा नहीं है। इस वजह से घर से बच्चे इस काम में आना नहीं चाहते हैं। राजू बर्तन पकाने का खर्च काफी बढ़ गया है। बर्तन रखने और पकाने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाता है। रामबचन हर गांवों में कुंभकार हैं। प्रशिक्षण और निशुल्क इलेक्ट्रिक चाक की सुविधा कुछ को ही मिल पाती है। रामअवध कुंभकारों को काली मिट्टी, पीली और चीला मिट्टी की जरूरत पड़ती है। मिलना मुश्किल हो गया है। हरिशंकर पहले के लोग मिट्टी के दीपक खरीदा करते थे। अब लोग इलेक्ट्रिक झालर का इस्तेमाल करते हैं। सत्यदेव
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