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बोले बिजनौर : जूझते दिहाड़ी मजदूरों को मिले रोजगार

Bijnor News - हजारों दिहाड़ी मजदूर कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं, जैसे कम मजदूरी, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और रोजगार की अनिश्चितता। मनरेगा योजना शहरी मजदूरों के लिए पर्याप्त नहीं है। मजदूरों की जीवन स्थिति सुधारने...

Newswrap हिन्दुस्तान, बिजनौरMon, 14 April 2025 06:28 PM
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बोले बिजनौर : जूझते दिहाड़ी मजदूरों को मिले रोजगार

हजारों दिहाड़ी मजदूर आज भी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। दिहाड़ी मजदूरों को अक्सर उनकी मेहनत के मुताबिक पारिश्रमिक नहीं मिलता। कई जगह तो मात्र 250-350 रुपये तक की दिहाड़ी ही मिल पाती है। स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और रोजगार के लिए महानगरों की ओर पलायन जैसी कई समस्याएं हैं जिनसे दो चार होना पड़ता है। दिहाड़ी मजदूरों के जीवन में बदलाव के लिए महानगर में बड़े स्तर इंडस्ट्री स्थापित करने, आधुनिक प्रशिक्षण देने, रोजगार की निश्चिता तय करने, स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा देने की आवश्यकता है। नगरपालिका चौक पर एकत्र इन मजदूरों से बात करने पर उनकी कई परतें खुलती हैं। जब हम विकास की बात करते हैं, तो हमें इन चेहरों को नहीं भूलना चाहिए जो हर सुबह चौक पर उम्मीद की धुंध में अपनी रोजी-रोटी की तलाश में खड़े रहते हैं। इनकी अनकही दास्तान हमारी विकास की कहानी में एक अधूरा पन्ना है, जिसे भरा जाना  अभी  बाकी  है। जयपाल, जो पिछले दस सालों से हर सुबह चौक पर आता है कहता है ‘पेट पालना है साहब। गांव में काम नहीं मिलता। यहां कभी मिल जाता है, कभी खाली हाथ लौटना पड़ता है। जयपाल की यह बात इस वर्ग की सबसे बड़ी समस्या ‘अनिश्चितता को उजागर करती है। उन्हें नहीं पता होता कि आज काम मिलेगा या नहीं, और अगर मिलेगा तो कितने पैसे मिलेंगे। कोई निश्चित आय न होने के कारण इनका जीवन हमेशा आर्थिक संकटों से घिरा रहता है। एक अन्य मजदूर, अकबर ने कहा कि उन्हें अक्सर कम मजदूरी पर काम करना पड़ता है। अगर हम ज्यादा पैसे मांगते हैं तो दूसरे मजदूर तैयार बैठे हैं कम में करने को। मजबूरी है, क्या करें? यह शोषण की समस्या को दर्शाता है और इन्हें अक्सर अपनी मेहनत का उचित दाम नहीं मिल पाता।

चार साल से अकबर राशन कार्ड बनवाने को जूझ रहा है सो उसे मुफ्त राशन की सुविधा भी नहीं मिल रही। काफी मजदूर गेंहू चावल राशन से मिलने की बात कहते हैं, लेकिन बताते हैं कि परिवार के हिसाब से वह काफी नहीं होता। आटा 40 रुपये किलो पर पहुंच चुका है, मजदूरी मिलती है तो सबसे पहले आटे का इंतजाम करते हैं। कपड़ा, मकान और बच्चों को महंगी शिक्षा दिलाना दूर की कौड़ी नजर आती है। इन मजदूरों को कई अन्य समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। इनमें काम करने के असुरक्षित हालात, स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुंच और सामाजिक सुरक्षा का अभाव प्रमुख हैं। पैसे की मजबूरी अक्सर इन्हें बिना किसी सुरक्षा उपकरण के खतरनाक काम करने पर मजबूर करती है, जिससे दुर्घटनाओं का खतरा बना रहता है। कुछ का आयुष्मान कार्ड है तो काफी का नहीं है। बीमार पड़ने पर इलाज के लिए पैसे जुटाना भी इनके लिए एक बड़ी चुनौती होती है।

मनरेगा भी साबित नहीं हो रहा पर्याप्त विकल्प

मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसके बावजूद कई कारणों से यह शहरी या कस्बाई क्षेत्रों के इन दिहाड़ी मजदूरों के लिए पर्याप्त विकल्प साबित नहीं हो पाता। पहला कारण तो यह है कि मनरेगा मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों पर केंद्रित है और शहरी क्षेत्रों में इसकी उपलब्धता सीमित है। दूसरा, मनरेगा में काम की प्रकृति अक्सर निर्धारित होती है और सभी दिहाड़ी मजदूर उस तरह के काम के लिए उपयुक्त या इच्छुक नहीं होते हैं। तीसरा, कई मजदूरों का कहना है कि मनरेगा में मजदूरी का भुगतान अक्सर देर से होता है, जबकि उन्हें अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए तुरंत पैसे की आवश्यकता होती है। चौक पर खड़े ये मजदूर सिर्फ कुछ बेरोजगार व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि यह हमारे समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सबसे अधिक मेहनत करता है लेकिन सबसे कम सुरक्षित है। इनकी समस्याएं जटिल हैं और इनका समाधान केवल मनरेगा जैसी एक योजना से संभव नहीं है। शहरी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाने, उनके अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

शिकायतें

1. मनरेगा में सबको रोजगार नहीं मिलता, सबके कार्ड तक नहीं बने हुए।

2. रोज काम की तलाश में आकर चौक पर खड़े होते हैं, रोजगार की गारंटी नहीं।

3. आयुष्मान कार्ड योजना होने पर भी सबके कार्ड नहीं बने हुए हैं।

4. प्रक्रिया जटिल होने से सबके राशन कार्ड नहीं बन पा रहे।

5. उच्च शिक्षा महंगी है, बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाते।

सुझाव

1. मनरेगा में सबके कार्ड बनें और पारदर्शिता से काम मिले।

2. ग्रामीण ही नहीं शहरी क्षेत्रों में भी रोजगार के अवसर बढ़ाने का काम हो।

3. सभी मजदूरों के आयुष्मान कार्ड जरूर बनें, ताकि बीमार होने पर पैसों का इंतजाम चुनौती न हो।

4. इस वर्ग के जिन लोगों के राशन कार्ड नहीं बने हैं, अभियान चलाकर उनके राशन कार्ड बनवाए जाएं।

5. मजदूरों के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए फीस माफी दी जाए।

मजदूरों का दर्द

मनरेगा में काम नहीं मिलता। चौक पर आकर खड़े होने पर भी कभी काम मिलता है और कभी नहीं। अक्सर मायूस होकर लौटना पड़ता है। -जयपाल, इस्लामपुरदास

साल में एक दो दिन ही मनरेगा में काम मिल पाता है। रोज मजदूरी की तलाश में आने पर भी रोज काम नहीं मिलता। कईं बार लोग दिहाड़ी से भी कम पर ले जाना चाहते हैं। -अश्विनी, तिमरपुर

प्रशिक्षित राज मिस्त्री हूं। इसके बावजूद काम की कमी के कारण चौक पर आकर खड़ा होना पड़ता है। रोज खाना बांधकर साथ लाते हैं। काम नहीं मिलने पर मायूस होकर लौटना भारी लगता है। -इरफान, कांशीरामकालोनी

मनरेगा कार्ड ही नहीं बना। मनरेगा में काम कैसे मिलेगा। परिवार की दो जून की रोटी के लिए किसी तरह मेहनत कर कमा लें, वही काफी है। बच्चों को अच्छी शिक्षा देना सपना लगता है। -मुख्तयार, खेड़की

राशन में जो गेंहू चावल मिलता है वह परिवार चलाने के लिए नाकाफी है। मनरेगा में पर्याप्त काम मिलता ही नहीं है। चौक पर आकर खड़े होने पर लोग मजबूर समझकर दिहाड़ी में भी सौदेबाजी करते हैं। -शमशाद, काजीवाला

मजदूरी करने पर भी राशन कार्ड ही बना हुआ नहीं है। खूब चक्कर काट चुका हूं। ठेकेदार दिहाड़ी में कटौती करते हैं और चौक पर आकर रोजाना काम नहीं मिलता। -जोगेन्द्र, सलामपुर

आयुष्मान कार्ड बना है और न ही राशन कार्ड है। राशन कार्ड बनवाने के लिए पिछले चार साल से चक्कर काट रहा हूं। रोजाना मजदूरी पर ले जाने वाला नहीं मिलता। आटा 40 रुपये किलो है। -अकबर, बुखारा

सरकारी योजनाओं में मजदूरों को कैसे काम मिलता है नहीं पता, बरुकी से रोज आकर काम की आस में यहां चौक पर खड़ा होता हूं। काम नहीं मिलने पर मायूस होकर लौटना भारी गुजरता है। -राधेश्याम, बरुकी

कोतवाली देहात से रोज 70 रुपए आने जाने के किराये में फूंककर यहां बिजनौर में नगरपालिका चौक पर आकर राजमिस्त्री के काम के लिए आकर खड़ा होता हूं। परिवार की सोचकर कईं बार कम दिहाड़ी पर काम करना पड़ता है। -नईम, कोतवाली

मनरेगा में काम मिलने की बात तो छोड़ों, यहां तो मनरेगा की लिस्ट में नाम तक नहीं है। मजदूरी के लिए भटकना पड़ता है। घर में कोई बीमार पड़ जाए तो पैसो का इंतजाम मुश्किल से होता है। -जसवंत, मुस्तफाबाद

मजदूरी किसी भी तरह की हो, दिहाड़ी मिलने पर मै कैसा भी काम करने से पीछे नहीं हटता। इसके बावजूद न तो रोजाना काम मिलता है और न ही पूरी दिहाड़ी मिल पाती है। -डालचंद, बख्शीवाला

काम की कमी है और मजदूरों की संख्या ज्यादा है, इसलिए चौक पर खड़े मजदूर घर वापस लौटने से बेहतर कईं बार कम मजदूरी पर भी काम करना सही समझते हैं। - मुकेश, शुगर मिल

मनरेगा कार्ड बना होने पर भी कितने दिन काम मिलेगा यह प्रधान या अफसरों की मर्जी पर रहता है। परिवार का पेट पालना है, इसलिए रोजाना मजदूरी के लिए चौक पर आना पड़ता है। -प्रमोद, सिकंदरपुर

सरकारी योजना के तहत प्रधान के स्तर से मजदूरों को काम मिलने की बात सिर्फ कागजी नजर आती है। मुझे कभी काम नहीं मिला, लिहाजा मजदूरी तलाशने आता हूं। -अनीस, दीपावाला

13 साल से एक बार भी मनरेगा के तहत मजदूरी करने का काम नहीं मिला। न ही मनरेगा कार्ड बनाया गया है। दिहाड़ी मजदूर हैं, मजदूरी पूरी न मिल पाने से बच्चों का भविष्य भी नजर नहीं आता। -जफर, इनामपुरा

शहर में तो मनरेगा जैसी कोई योजना ही नहीं है। बड़े काम कहीं चलते हैं तो वहां मजदूरी पर रखने में ठेकेदार शोषण करते हैं। चौक पर रोजाना काम मिलने की गारंटी नहीं होती। -शहजाद, चांदपुर की चुंगी, बिजनौर

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