मनुष्य हो तो पहले ज्ञान प्राप्त करो
मनुष्य का प्राथमिक कर्तव्य ज्ञान प्राप्त करना है। व्यक्ति को सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए और धर्म साधना भी करनी चाहिए। इसके साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी देखना चाहिए। यह मनुष्य की साधना का एक चरण है।

मन में पहली जिज्ञासा यही होती है कि एक साधक होने के लिए व्यक्ति में क्या योग्यता हाेनी चाहिए। क्या साधक में आयु, ज्ञान या फिर चरित्र संबंधी योग्यता होनी चाहिए। ज्ञानीजन कहते हैं कि एक साधक के भीतर मनुष्यता होना जरूरी है, तभी वह अपने कर्त्तव्यों को अच्छी तरह से निभा पाएगा।
मनुष्य का प्राथमिक कर्तव्य ज्ञान प्राप्त करना है। व्यक्ति को सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए और धर्म साधना भी करनी चाहिए। इसके साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी देखना चाहिए। यह मनुष्य की साधना का एक चरण है।
पार्वती ने शिव से पूछा, ‘साधक बनने के लिए न्यूनतम आवश्यकता क्या है?’ शिव ने उत्तर दिया, ‘जब जीव अपने कर्मों के फलस्वरूप मानव रूप धारण कर लेते हैं, तब वे साधना करने के योग्य हो जाते हैं।’ पार्वती द्वारा रखा गया अगला प्रश्न था, ‘साधना करने के लिए मनुष्य में आयु, योग्यता, चरित्र आदि जैसी कौन-सी योग्यताएं होनी चाहिए?’ इस पर शिव के उत्तर को इस तरह समझा जा सकता है कि उम्र के संबंध में यह कहना उचित होगा कि मानव जीवन में मूल रूप से चार चरण होते हैं। पहले चरण में मनुष्य का पहला कर्तव्य ज्ञान प्राप्त करना और धर्म साधना करना है। दूसरे चरण में, व्यक्ति को सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए और धर्म साधना करनी चाहिए। तीसरे चरण में, किसी भी शेष पारिवारिक जिम्मेदारियों को देखना चाहिए और धर्म साधना करनी चाहिए। अंत में यानी चौथे चरण में जब मानव शरीर सांसारिक कर्तव्यों को निभाने में अक्षम हो जाता है, तो व्यक्ति को अकेले धर्म साधना करनी चाहिए। तो जहां तक साधक के लिए आवश्यकताओं का संबंध है, उम्र की कोई बाधा नहीं है।
ध्रुव की साधना से डर गए ऋषि-मुनि
इसके बारे में एक पुरानी कहानी है। एक बार ध्रुव नाम के एक बच्चे ने पांच साल की उम्र में ही साधना और भजन गाना शुरू कर दिया। इससे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि डर गए। उन्होंने सोचा कि यह बालक आध्यात्मिक उत्कृष्टता में उनसे आगे निकल जाएगा। इसलिए भक्तों के रूप में वे सभी नारायण से विनती करने लगे कि उन्हें पराजित और अपमानित होने से बचा लें।
ध्रुव ने विफल किया नारद का प्रयास
नारायण ने इस मुद्दे को हल करने के लिए नारद को भेजा। नारद का अर्थ है- ‘वह जो भक्ति फैलाता है।’ नारद बालक ध्रुव के पास आए और उन्हें खिलौने, मिठाइयों, एक राज्य और उस तरह की अन्य चीजों से लुभाने की काेशिश करने लगे। उन्होंने पूछा कि इतनी कम उम्र में ही वह साधना के प्रति इतना उत्साही क्यों है? आध्यात्मिक खोज के लिए उसके पास पूरा जीवन है।
ध्रुव ने उत्तर दिया, ‘हे नारद! आप एक ऋषि हैं, आप मुझसे कहीं अधिक जानते हैं। फिर भी मैं चीजों को स्पष्ट करने के लिए उल्लेख करना चाहता हूं कि हमें कई जीवन के बाद मानव रूप मिलता है। सभी प्राणियों के अस्तित्व में यह मानव अस्तित्व सबसे दुर्लभ है। लेकिन उससे भी दुर्लभ वह मानव शरीर है, जिसे साधना के माध्यम से सिद्ध किया गया है। मानव जीवन पाकर भी कुछ ही लोगों को धार्मिक प्रवचन सुनने का अवसर मिलता है। उनमें से कुछ ही धर्म साधना का अभ्यास करने की इच्छा विकसित करते हैं। इनमें से भी केवल कुछ ही वास्तव में साधना की भावना को समझ पाते हैं। वे दुर्लभ लोग जो समझते हैं, साधना करते हैं और लक्ष्य तक पहुंचते हैं, वे वास्तव में धन्य हैं। अपने आपको पूर्ण बनाने के प्रयास में, भले ही किसी को अपने बड़ों और निकट के लोगों से बाधाओं और रुकावटों का सामना करना पड़े, हमें उन्हें अनदेखा करना चाहिए। यह पाप नहीं है, अपराध नहीं है। ध्रुव ने आगे कहा, ‘नारदजी, कौन जानता है कि कल क्या होगा? आप बूढ़े हो गए हैं और आपको इस उम्र में साधना और भजन गाने का अवसर मिला है। लेकिन मेरे जीवन में कल सूरज निकले या न निकले। मान लीजिए मैं आज रात मर गया? तो मैं वृद्धावस्था तक कैसे प्रतीक्षा कर सकता हूं?’ यह सुनकर नारद चुपचाप चले गए।
ध्रुव ने कहा, ‘सभी मनुष्यों को बचपन से ही भगवत धर्म में स्थापित होने का प्रयास करना चाहिए। भगवत धर्म क्या है और इसके लिए क्या योग्यताएं हैं? एक योग्यता है- प्रपत्ति अर्थात मैंने सब कुछ भगवान को समर्पित कर दिया है। वह जो चाहेगा, मैं करूंगा।’ जो कम उम्र में ही इस भाव में स्थापित हो जाते हैं, वही सच्चे इनसान होते हैं। विस्तार की इच्छा मनुष्य का जन्मजात गुण धर्म है। कोई भी क्षुद्र बने रहने की इच्छा नहीं रखता। सभी अपने मानसिक क्षेत्र का विस्तार करना चाहते हैं। विस्तार की इस प्यास को बुझाने के लिए व्यक्ति को नियमित चर्चा करते रहना चाहिए, यही साधना है। सबसे बड़ी बात यह है कि साधक के लिए मनुष्य होना पहली शर्त है।