उपेक्षा के कारण हाशिए पर पहुंच गए बांस की सामग्री बनाने वाले कारीगर
मिथिला में बांस से विभिन्न सामग्री बनाने का समृद्ध इतिहास है, लेकिन इस कला को बनाए रखने वाला समुदाय आज समस्याओं का सामना कर रहा है। बांस की कमी, बढ़ती कीमतें और बाजार में उचित मूल्य न मिलने के कारण यह...

बांस से विभिन्न सामग्री बनाने का मिथिला में पुरातन व समृद्ध इतिहास रहा है। बांस से बनी सामग्री का उपयोग लोग घरों को सजाने के अलावा फर्नीचर, बर्तन, टोकरी, चटाई, कृषि उपकरण, वाद्य यंत्र आदि में करते हैं, लेकिन सदियों से बांस की सामग्री बनाने की कला को जीवंत रखने वाला समाज आज हाशिये पर है। अपनी कला और कौशल से घरों को सजाने और खासकर पर्व-त्योहार में लोगों की जरूरतें पूरी करने वाला यह समुदाय कई समस्याओं से जूझ रहा है। इनकी ओर अक्सर समाज और सरकार का ध्यान नहीं जाता है। दैनिक जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जूझते इस समुदाय के सामने अपनी कला को बचाने और भविष्य को सुरक्षित करने की चुनौती है।
इस समाज के फेकू मल्लिक बताते हैं कि हमारे समाज का बांस के साथ अटूट रिश्ता है। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारा समुदाय बांस से टोकरी, चटाई, पंखे, फर्नीचर और सजावटी सामान बनाता आया है। हमारी कला में सदियों का अनुभव और स्थानीय संस्कृति की झलक मिलती है। हाथों से गढ़ी गई हमारी हर कृति न केवल उपयोगी है, बल्कि कला का उत्कृष्ट नमूना भी है। यह कौशल हमारे जीवन यापन का मुख्य साधन है और हमारी सामाजिक पहचान का अभिन्न अंग है। हम कारीगर अभी भी पारंपरिक तरीकों से बांस की चटाई , टोकरी और सजावटी सामान बनाते हैं, लेकिन आधुनिक डिजाइन और उपकरणों की कमी के कारण हमारे उत्पाद बाजार में पिछड़ जाते हैं। वहीं, कृष्णा मल्लिक बताते हैं कि बांस जो कभी आसानी से उपलब्ध था, अब एक तो आसानी से मिलता नहीं है ,अगर मिलता भी है तो उसकी कीमतें आसमान छू रही हैं। वनों के कटाव के कारण बांस की उपलब्धता कम हो गई है। लोगों में जागरूकता नहीं होने के कारण दरभंगा में बांस के जंगल कम हो रहे हैं और स्थानीय स्तर पर गुणवत्तापूर्ण बांस की उपलब्धता सीमित होती जा रही है। दूसरी जगह से लाने पर परिवहन की लागत भी हमारी छोटी आय पर भारी पड़ती है। वन विभाग के नियमों के कारण बांस की कटाई और परिवहन में कई अड़चनें आती हैं,जिन्हें दूर करने के लिए सरकार को उचित ध्यान देना चाहिए। इसी समाज के प्रभु डोम का कहना है कि हमारे समाज की ओर से बनाए गए सामान को बेचने के लिए हमें अक्सर स्थानीय बाजारों या बिचौलियों पर निर्भर रहना पड़ता है। बिचौलिए कम कीमत पर सामान खरीदते हैं और खुद भारी मुनाफा कमाते हैं, जिससे हमें अपनी मेहनत और कला का उचित मूल्य भी नहीं मिल पाता है। उन्होंने कहा कि छठ पर्व में हमारे बनाए दौरा, डाला आदि हमसे सौ-डेढ़ सौ में खरीदकर बाजार में उसे चार सौ से पांच सौ रुपए तक में बेचा जाता है। शहरी बाजारों तक हमारी पहुंच न के बराबर है, जिसका नुकसान हमें उठाना पड़ता है। प्रभु डोम ने निराश मन से कहा कि हमारी समस्याओं की ओर न तो किसी अधिकारी और न ही किसी जनप्रतिनिधि का ध्यान जाता है। इस वजह से इस समाज की स्थिति दिन-प्रतिदिन दयनीय होती जा रही है। इस समाज को संकट से उबारने के लिए सरकार को पहल करनी चाहिए। बोले जिम्मेदार पारंपरिक कारीगरों व हस्त शिल्पकारों को पीएम विश्वकर्मा योजना में ट्रेनिंग दी जाती है। साथ में 500 रुपये रोज के हिसाब से भत्ता भी मिलता है। 15 हजार का टूल किट भी दिया जाता है। अपने काम को बढ़ाने के लिए 50 हजार से तीन लाख रुपये तक का लोन भी दिया जाता है। इसके ब्याज का एक हिस्सा सरकार देती है। - नवल किशोर पासवान, महाप्रबंधक, जिला उद्योग केंद्र, दरभंगा
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