मी लॉर्ड, इंसाफ दिखना भी चाहिए
- मैं अपनी उम्मीद को बनाए रखना चाहता हूं। ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे सहयोगी प्रकाशन हिन्दुस्तान टाइम्स ने अपनी वेबसाइट पर शनिवार को यह खबर शाया की कि देश के प्रधान न्यायाधीश माननीय न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने अपने सहयोगी न्यायाधीशों को दिलासा दिया है…

सुकरात ने प्लूटो के साथ अपने ऐतिहासिक संवाद में एक गजब की बात कही थी- ‘न्याय एक ऐसी भलाई है, जो व्यक्ति और राजनीति, दोनों के समृद्ध विकास के लिए जरूरी है।’ दुनिया के न्यायविद् सदियों से समूचे एहतराम के साथ इसे अपना ध्येय वाक्य मानते आए हैं। पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के यहां आग लगने के बाद बड़ी संख्या में नोटों के बंडल जल जाने की खबर उड़ी, जिसने इंसाफ के पुजारियों के साथ देश के अवाम को भौचक्का कर दिया।
हालांकि, अभी तक ऐसा कोई प्रमाण सामने नहीं आया है, जो साबित कर सके कि वहां धनराशि मिली या नहीं? अगर नोटों की गड्डियां मिलीं, तो वे कितनी थीं?
शायद यह मामला दब गया होता, अगर मीडिया में इसकी खबर न उछली होती। इसी के बाद एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने शुक्रवार को दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष जोरदार तर्कों के साथ मामला उठाया। यह सब चल ही रहा था कि न्यायमूर्ति वर्मा के इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरण की खबर आई। साथ ही, यह भी मालूम पड़ा कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अपनी रिपोर्ट शाम तक सौंपने को कहा है।
कहा जा रहा कि रिपोर्ट सौंपी जा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तीन जजों की एक कमिटी बनाई है। इस कमिटी में अलग-अलग हाईकोर्ट के जजों को शामिल किया गया है। फिलहाल न्यायमूर्ति वर्मा को न्यायिक कार्यों से दूर रखा गया है। अच्छा होगा कि आला अदालत जल्द से जल्द अपनी राय से देश की जनता को अवगत करा दे, क्योंकि जितने मुंह, उतनी बातों का दौर किसी भी स्वस्थ न्यायपालिका पर आम आदमी के भरोसे के लिए भला नहीं।
इसी बीच शुक्रवार को खबरों की दुनिया में यह भी तैरने लगा कि दिल्ली के दमकल विभाग ने उन समाचारों का खंडन किया है कि उन्हें वहां किसी भी तरह के नोटों का कोई बंडल मिला। इसने आग में घी का काम किया। टेलीविजन पर लाइव डिबेट के प्रतिभागी और सोशल मीडिया के हरकारे दाल में काला खोजने में जुट पडे़ थे। इसी दौरान इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन ने भी सुप्रीम कोर्ट को दरख्वास्त भेज दी कि इस जज को भला हमारे यहां क्यों भेज रहे हैं? इलाहाबाद हाईकोर्ट कूड़ादान नहीं है। मामला भड़क रहा था कि दमकल विभाग की ओर से आग को और हवा मिल गई। उसका कहना था, हमने इस संबंध में कोई बयान नहीं दिया है।
आशंकाशास्त्रियों को इससे दोबारा मौका मिल गया। वे कहने लगे कि इस सारे मामले की रंगाई-पुताई की कोशिश की जा रही है। कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने तो इस दौरान बेहद कडे़ शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम सिस्टम इसलिए ईजाद किया गया था कि न्यायमूर्तिगणों को विशिष्ट दर्जा हासिल हो, ताकि उन्हें किसी भी तरह से बेवजह प्रताड़ित न किया जा सके। उन पर आरोप लगने पर सुप्रीम कोर्ट के पास ही जांच का हक हो। तमाम वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने इस कथित घटना के हवाले से कॉलेजियम और उसके औचित्य पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए।
उनका तर्क था कि यदि किसी नौकरशाह, पत्रकार, नेता अथवा वकील के यहां इतनी ‘राशि’ मिलती, तो सबसे पहले प्रवर्तन निदेशालय, यानी ईडी के अधिकारी उसे धर दबोचते। यदि वह राजकीय कर्मचारी होता, तो केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) सक्रिय हो चुकी होती और पुलिस की आर्थिक अपराध शाखाएं भी उस पर टूट पड़तीं। आनन-फानन में गिरफ्तारी होती और उसके बाद उस शख्स को लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होता। न्यायमूर्तियों को मिले हुए विशेष अधिकार से वे इन झंझटों से बच जाते हैं।
यहां वेदनापूर्वक जस्टिस निर्मल यादव के मामले को भी याद किया गया। निर्मल यादव पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में न्यायाधीश थीं। उन पर 15 लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप था। इस पर जांच बैठी। सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल की, मामला डेढ़ दशक से अधिक तक खिंचा, लेकिन निर्मल यादव का कुछ नहीं हुआ। जिस देश में आम लोग शक की बिना पर गिरफ्तार कर लिए जाते हों और सालोंसाल उनसे अदालतें यह उम्मीद करती हों कि वे अपनी निर्दोषिता साबित करें, वहां इस तरह के मामले चौंका जाते हैं।
दुर्भाग्य से न्यायमूर्ति वर्मा या निर्मल यादव अकेले नहीं हैं। कई न्यायमूर्तियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, कुछ पर साबित हुए, तो कुछ पर नहीं। हर बार यह मामला उठा कि न्यायाधीशों का विशेषाधिकार न्याय के रास्ते में रोड़ा बनता है। हालांकि, निजी तौर पर मैं मानता हूं कि न्यायमूर्तियों को विशेषाधिकार हासिल होना चाहिए, ताकि वे देश की जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकें। इसमें कोई शक नहीं है कि अधिकांश न्यायमूर्ति यही कर रहे हैं। इसके बावजूद कुछ लोगों की कथनी या करनी न्यायपालिका को लांछित करती रहती है।
कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सौमित्र सेन का मामला भी ऐसा ही था। सेन पर भ्रष्टाचार के आरोप प्रमाणित हुए और उनके खिलाफ संसद द्वारा महाभियोग की कार्रवाई पूरी हो पाती, इससे पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। क्या इतना पर्याप्त था? निर्मल यादव अथवा सौमित्र सेन किसी अन्य पेशे में होते, तो क्या आरोप सिद्ध होने या चार्जशीट दाखिल होने में इतनी देरी लगती? क्या वे लंबे समय के लिए सलाखों के पीछे जाने से बच पाते?
यहां न्यायमूर्ति वी रामास्वामी का मामला याद दिलाना चाहूंगा। वह जब हरियाणा-पंजाब हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, तब उन्होंने अपने बंगले के कालीन और परदों पर प्राधिकार से आगे जाकर खर्च कर दिया। इस पर हल्ला मचा, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लिया। लोग आज भी फख्र से याद करते हैं कि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखर्जी ने खुली अदालत में जो कहा, वह इतिहास बन गया। उनके आदेश से न्यायमूर्ति रामास्वामी न्यायिक कार्य से विरत कर दिए गए थे। वह पद पर रहते हुए भी कोई आदेश पारित नहीं कर सकते थे और न किसी सुनवाई में दखल दे सकते थे। जांच पूरी होने तक उन्हें महीनों ऐसे ही गुजारने पड़े।
क्या वे सुनहरे दिन लद गए?
मैं अपनी उम्मीद को बनाए रखना चाहता हूं। ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे सहयोगी प्रकाशन हिन्दुस्तान टाइम्स ने अपनी वेबसाइट पर शनिवार को यह खबर शाया की कि देश के प्रधान न्यायाधीश माननीय न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने अपने सहयोगी न्यायाधीशों को दिलासा दिया है कि जस्टिस वर्मा का स्थानांतरण भर पर्याप्त नहीं है। वह और कठोर कदम उठाने के लिए तैयार हैं। तय है, वह इस मामले की गंभीरता को समझते हैं और उसमें देरी नहीं लगाना चाहते।
यकीनन, उन्हें यह मशहूर कहावत याद दिलाने की जरूरत नहीं है- न्याय न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। यह मामला एक न्यायसंगत निष्कर्ष को प्राप्त होना ही चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियां इसको सिर उठाकर याद कर सकें।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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