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वो तारीख… जब राज ठाकरे ने दिखाए थे बगावती तेवर, टूटी थी शिवसेना; बनी MNS

  • राज ठाकरे उस वक्त 36 साल के थे और शिवसेना में बाल ठाकरे के बाद सबसे करिश्माई चेहरा माने जाते थे। पर जब पार्टी की कमान उद्धव ठाकरे के हाथों में सौंपने की बात हुई, तो राज खुद को हाशिए पर महसूस करने लगे।

Himanshu Tiwari लाइव हिन्दुस्तानSun, 20 April 2025 03:40 PM
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वो तारीख… जब राज ठाकरे ने दिखाए थे बगावती तेवर, टूटी थी शिवसेना; बनी MNS

18 दिसंबर 2005 की तारीख तो बस एक दिन था मगर महाराष्ट्र की राजनीति में उस रोज इतिहास लिखा गया। बाल ठाकरे की विरासत को आगे लेकर बढ़ने वाला एक नौजवान नेता शिवाजी पार्क जिमखाना में मंच पर खड़ा होकर भारी आवाज में बोला, "मैं अपने दुश्मन के लिए भी ऐसा दिन नहीं चाहूंगा।" उस दिन राज ठाकरे ने शिवसेना को अलविदा कहा, मगर उसके साथ ही महाराष्ट्र की सियासत की दशा और दिशा भी बदल गई। एक पार्टी, एक कुनबा और एक विचारधारा तीनों में दरार पड़ चुकी थी।

राज ठाकरे उस वक्त 36 साल के थे और शिवसेना में बाल ठाकरे के बाद सबसे करिश्माई चेहरा माने जाते थे। पर जब पार्टी की कमान उद्धव ठाकरे के हाथों में सौंपने की बात हुई, तो राज खुद को हाशिए पर महसूस करने लगे। कई महीनों की खामोशी, नाराजगी और अंदरूनी टकराव के बाद 18 दिसंबर को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर साफ कहा, "मैंने सिर्फ इज्जत मांगी थी, बदले में तौहीन मिली।"

मातोश्री में उस वक्त की गई उद्धव ठाकरे की प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी तनाव साफ झलक रहा था। उन्होंने कहा, "राज की बगावत गलतफहमी थी, और हमने सुलह की कोशिश भी की थी।" मगर रिश्तों की दरार इतनी गहरी हो चुकी थी कि सियासी मेल-मिलाप मुमकिन न रहा। और फिर तीन महीने बाद, राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) का गठन कर लिया। उनका नारा था, “मराठी मानूस की पहचान और अधिकार।” शुरू में एमएनएस ने जोरदार एंट्री की। 2009 के विधानसभा चुनाव में 13 सीटें मिलीं। लेकिन वह लहर टिक न सकी।

उधर उद्धव ठाकरे ने शिवसेना को धीरे-धीरे अपने नियंत्रण में लिया, मगर उन्हें हमेशा यह साबित करना पड़ा कि वह अपने पिता के राजनीतिक कद के असली वारिस हैं। 2019 में उन्होंने बीजेपी से गठबंधन तोड़कर शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी सरकार बनाई, पर 2022 में एकनाथ शिंदे की बगावत ने सब कुछ उलट दिया।

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राजनीतिक जानकार बताते हैं कि ठाकरे भाइयों की जुदाई ने महाराष्ट्र को दो शिवसेनाएं दीं एक मातोश्री की, और दूसरी राणा कुंज की। इस विभाजन ने न सिर्फ पार्टी को कमजोर किया, बल्कि मराठी अस्मिता की राजनीति को भी विभाजित कर दिया। आज जब दोनों भाई फिर से साथ आने के संकेत दे रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या बीस साल पुराना घाव भर सकता है? या फिर यह सियासी मजबूरी की चादर से ढकी एक नई चाल है?