बोले काशी- ‘शांति की उड़ान मांगे नया कलेवर और संरक्षण
Varanasi News - वाराणसी में कबूतर पालने की परंपरा सदियों पुरानी है। कबूतरों की उड़ान शांति का प्रतीक मानी जाती है। स्थानीय कबूतर पालक एक अनौपचारिक संगठन बना रहे हैं, जिससे वे अपनी प्रतिस्पर्धाएं आयोजित कर सकें।...
वाराणसी। कबूतर भी गंगा-जमुनी तहजीब की धारा को रोजाना नए आयाम देते हैं। सौहार्द के किस्से गढ़ते हैं। कबूतर शांति के प्रतीक माने जाते हैं। उनकी उड़ान में वह ‘पोस भी शामिल रहता है जो इन्हें पालक के पास लौटा लाता है। ‘शांति की उड़ान का दायरा जिले के हर कोने को ऊर्जावान बनाता है। यूं तो कबूतर पालने, उड़ाने की गाथा सदियों पुरानी है, लेकिन बदलते दौर में इसे सहजने और संरक्षित करने की जरूरत है। कबूतर पालक चाहते हैं कि उनके अनौपचारिक संगठन को स्थानीय स्तर पर औपचारिक संगठन का रूप मिले। कबूतरों का इतिहास बहुत पुराना है। प्राचीन काल से ही वे संदेशवाहक की भूमिका निभाते आए हैं।
खास बात यह है कि थोड़े प्रशिक्षण के बाद कबूतर जहां से उड़ान भरते हैं, वहां लौट भी आते हैं। इन खूबियों की बदौलत लोगों में कबूतरों के प्रति स्नेह का भाव रहता है। वाराणसी में प्राय: हर मोहल्ले की किसी न किसी छत पर कबूतरों का बड़ा घरौंदा दिख जाएगा। बड़ी बाजार में जुटे कबूतर के शौकीन या यह कहें, कबूतर उड़ाने वालों ने ‘हिन्दुस्तान से चर्चा में इसे आत्मीय खेल की संज्ञा दी। कहा कि यह खेल जीव संरक्षण का भी हिस्सा है। पालने वाले कबूतरों से कोई आय नहीं कमाते, बस जीव के साथ आत्मीयता का भाव रखते हैं। खाने-पीने से लेकर मौसम के उतार-चढ़ाव में उनके बचाव का भी ध्यान रखते हैं। कई लोग मिलकर अपने अपने कबूतरों की प्रतिस्पर्धा भी कराते हैं। इसमें विजयी कबूतर के पालक को पुरस्कृत करते हैं। जैनुल बसर, तस्दीक हसन, राजेंद्र कुमार आदि का कहना है कि कबूतर पालकों के लिए स्थानीय स्तर पर औपचारिक संगठन बनाने की जरूरत है। इससे कबूतर की उड़ान का खेल इस शहर के सौहार्द को नया आयाम देगा। यूं होती है प्रतिस्पर्धा मोईनुद्दीन और अहमद ने बताया कि स्थानीय स्तर पर कबूतर पालकों ने एक दूसरे के साथ जुड़कर अनौपचारिक रूप से ‘बनारस पीजियन क्लब बनाया है, जैनुल बसर इसके अध्यक्ष हैं। क्लब की ओर से कबूतरों की समय-समय पर प्रतिस्पर्धा कराई जाती है। चूंकि कबूतर अलग-अलग पाले-पोसे जाते हैं, इसलिए उनकी उड़ान का मैदान भी अलग होता है। जिन पालकों के कबूतरों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है, उनकी छत से ही कबूतर उड़ाए जाते हैं। कबूतरों के लौटने का समय ही जीत-हार का आधार बनता है। क्लब अध्यक्ष जैनुल बसर ने बताया कि आमतौर पर गर्मी में 16 और जाड़े में 23 कबूतरों के समूह को उड़ाया जाता है। कभी-कभी कबूतर लौटते नहीं और उनके बारे में पता भी नहीं चल पाता। कभी-कभी 10-15 दिन बाद लौट आते हैं। कर्कल है इनका खाना बाबू भाई और सुनील कनौजिया ने बताया कि कबूतरों के भोजन को स्थानीय स्तर पर कर्कल के नाम से जानते हैं। इसमें सभी तरह के अनाजों के छोटे-छोटे दाने होते हैं। इन्हें समय पर भोजन देना, उड़ान के लिए प्रशिक्षित करने में महीनों-वर्षों तक लग जाते हैं। जाड़े में कर्कल की उपलब्धता में खास समस्या नहीं होती, लेकिन गर्मी में बहुत परेशानी होती है। यह हमारी आय के हिसाब से महंगा भी पड़ता है लेकिन खेल और शौक में महंगाई को आड़े नहीं आने देते हैं। उड़ान भरने के बाद कबूतर अपनी जरूरत के हिसाब से कहीं भी दाना चुग लेते हैं। जब अपने घरौदों में लौटते हैं तब उनकी जितनी सेवा बन पड़ती है, हम लोग करते हैं। प्रशासन पंजीकरण की सुविधा दे जुबेर अहमद, मोहम्मद शरीफ ने कहा कि इस खेल में कोई आर्थिक लाभ नहीं है। यदि कबूतर पालन और उड़ान को खेल के रूप में देखा जाए तथा स्थानीय स्तर पर पंजीकरण की व्यवस्था सुलभ हो तो इसके संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा। पर्यावरणीय तंत्र भी मजबूत होगी। इससे दूसरों की भी रुचि बढ़ेगी। तब इस पक्षी की संख्या बढ़ाने की दिशा में आशातीत सफलता भी मिलेगी। नई पीढ़ी भी इसमें शामिल होगी। पितरकुंडा, शक्कर तालाब पर जुटान सुफियान, करीमुल्ला के मुताबिक पितरकुंडा और शक्कर तालाब पर कबूतर पालकों की जुटान होती है। वहां पालक एक दूसरे के कबूतरों के देखते हैं। उनके गुणों पर चर्चा करते हैं। अगर कोई कबूतर पसंद आ गया तो उसे अपने घरौदे के लिए खरीद भी लेते हैं। बताया कि रोजमर्रा के बाद जो समय बचता है, वह इन्हीं कबूतरों को समर्पित हो जाता है। इस खेल के साथ बचपन से जुड़े हैं, बहुत लुत्फ आता है। इन नस्लों का पालन बनारस में कबूतरों की कई नस्लों का पालन किया जाता है। कबूतर पालकों ने बताया कि कशनी (काली आंख), कशनी (लाल आंख), सुर्ख (जलालपुर), मशाल, कागदी, जिरहा, भूरा, तिलखा आदि प्रजाति के कबूतरों का पालन होता है। अगर जिला प्रशासन दूसरी प्रजातियों या दूसरे प्रांतों की प्रजातियों के कबूतर उपलब्ध कराए तो इस खेल को काफी बल मिलेगा। इलाज की हो युगम व्यवस्था मोहम्मद आसिफ, शमीम हैदर के अनुसार कभी-कभी स्थितियां विकट हो जाती हैं, जब कबूतरों में वायरल, बैक्टीरियल और फंगल संक्रमण हो जाता है। उस समय सभी काम छोड़कर इनके जीवन की रक्षा करना ही धर्म हो जाता है। अनुभव के आधार पर पहले दवाइयां आदि देते हैं। स्थिति नहीं सुधरती तब पशु अस्पताल जाकर चिकित्सक से सलाह लेनी पड़ती है। अगर कबूतरों के लिए इलाज की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए। मन की बात कबूतर पालक संघ की स्थापना करने की जरूरत है। इससे जिले के सभी कबूतर पालकों को मंच मिल सकता है। -जैनुल बसर कबूतर पालने वालों के लिए सदस्यता और पंजीकरण प्रक्रिया बननी चाहिए, इससे इस खेल के संरक्षण को बल मिलेगा। -तस्दीक हसन संघ के नियम में स्थानीय परिवेश, रहन-सहन और सांस्कृतिक विशेषताओं का उल्लेख होना चाहिए। -मोइनुद्दीन कबूतर पालकों के लिए प्रशिक्षण और कार्यशालाएं आयोजित करने की जरूरत है जिससे नई पीढ़ी भी इसे अंगीकार कर सके। -अहमद स्थानीय स्तर पर व्यवस्थित रूप से कबूतर प्रदर्शन और प्रतियोगिताएं होनी चाहिए ताकि अन्य लोग भी इसका आनंद ले सकें। -बाबू भाई कबूतर पालकों के बीच संचार और नेटवर्किंग को बढ़ावा देने की जरूरत, जिससे वे अपने अनुभव और जानकारी साझा कर सकें। -सुनील कनौजिया संसाधन केंद्र स्थापित करने से इस खेल को नए आयाम मिलने की राह प्रशस्त होगी। अन्य लोगों की भी रूचि बढ़ेगी। -जुबेर अहमद सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को भी सहयोग करना चाहए, जिससे कबूतर पालन के विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके। -मोहम्मद शरीफ कबूतरों की खुराक कर्कल की उपलब्धता सुगम और सस्ती दर पर होनी चाहिए। अभी यह बहुत महंगी पड़ती है। -सूफियान जिला प्रशासन कबूतरों के इलाज की विशेष व्यवस्था करे, ताकि इन बेजुबानों के जीवन रक्षण में सहायता हो सके। -करीमुल्ला सुझाव -स्थानीय स्तर पर प्रशासन की ओर से कबूतर पालक संघ बनाया जाए ताकि पालकों को एक मजबूत मंच मिल सके। -कबूतर पालकों को जिला प्रशासन की ओर से सहयोग भी मिलना चाहिए ताकि इसके पालन को बढ़ावा मिले। -जिला प्रशासन कबूतरों के उड़ान की प्रतिस्पर्धा कराए तथा विजेता कबूतरों के पालकों को पुरस्कार दे। इससे मनोबल बढ़ेगा। -कर्कल यानी कबूतरों की खुराक को सस्ती कीमत पर सुगमता से उपलब्ध कराया जाना चाहिए। -बीमारी के समय कबूतरों के जीवन रक्षा की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए। इससे पक्षी के जान की रक्षा हो सकेगी। शिकायतें -स्थानीय स्तर पर कबूतर पालक संघ का कोई औपचारिक संगठन नहीं है। अभी सभी अनौपचारिक रूप से मिलते हैं। -कबूतर पालकों को जिला प्रशासन की ओर से सहयोग नहीं मिलता है। नए लोग कबूतर पालन में आगे नहीं आ रहे हैं। -जिला प्रशासन कबूतरों के उड़ान की प्रतिस्पर्धा नहीं कराता है। इसमें पालकों का मनोबल बहुत गिरता है। -कर्कल यानी कबूतरों की खुराक बहुत महंगी पड़ती है। कभी कभी आसानी से इसकी उपलब्धता भी नहीं हो पाती है। -बीमारी में कबूतरों की रक्षा की विशेष व्यवस्था नहीं है। संक्रमण में अनेक पक्षी असमय काल कवलित हो जाते हैं। बोले जिम्मेदार पशु चिकित्सालयों में है इलाज की व्यवस्था कबूतर प्रतिबंधित पक्षी नहीं है। इसका पालन किया जा सकता है। वाराणसी में 16 पशु चिकित्सालय और 28 पशु सेवा केंद्र हैं। वहां कबूतरों और अन्य मवेशियों के इलाज की व्यवस्था है, चिकित्सक हैं। कबूतर पालक गर्मी में कबूतरों के घरौदों में ताजा पानी रखते रहें। दिन में कई बार पानी बदलें ताकि गर्मी से वह गर्म न हो। जाड़े में ठंड से बचाने के लिए अलाव का इंतजाम रखें। लाल दवा (पोटेशियम) से बाड़े के आसपास सफाई भी करते रहें, इससे कबूतरों में बीमारी नहीं फैलेगी। पालक कबूतरों के बारे में पशु चिकित्सकों से सलाह लें और सलाह के अनुसार कदम उठाएं तो बेहतर होगा। -डॉ. रवींद्र सिंह राजपूत - मुख्य पशु चिकित्साधिकारी, वाराणसी
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