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जीवन की बड़ी उपलब्धि है आत्मज्ञान का होना

आत्म-रमण की अवस्था सहजानंद की अवस्था है। अपने सहज-स्वरूप में अवस्थित होना परमानंद की उत्कृष्ट अवस्था है। हम आत्म-ज्ञान के द्वारा ही परम सुख की अनुभूति कर सकते हैं। आत्म-ज्ञान अंत: स्थल को स्पर्श करने वाला ज्ञान है।

Yogesh Joshi लाइव हिन्दुस्तान, मुनि जयकुमार, नई दिल्लीTue, 6 May 2025 07:18 AM
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जीवन की बड़ी उपलब्धि है आत्मज्ञान का होना

आत्म-रमण की अवस्था सहजानंद की अवस्था है। अपने सहज-स्वरूप में अवस्थित होना परमानंद की उत्कृष्ट अवस्था है। हम आत्म-ज्ञान के द्वारा ही परम सुख की अनुभूति कर सकते हैं। आत्म-ज्ञान अंत: स्थल को स्पर्श करने वाला ज्ञान है। जब तक हम अपनी आत्मा से परिचित नहीं हैं, तब तक परम सुख को भी प्राप्त नहीं कर सकते। जीवन में आत्म-ज्ञान का होना बहुत बड़ी उपलब्धि है। जिस व्यक्ति ने आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर लिया है वह सदा परमानंद की स्थिति में रहता है। कहा गया है कि आत्मा को जान लेने के पश्चात कुछ भी जानना और शेष नहीं रहता। यदि आत्मा को न जाना गया तो शेष प्राप्त किया हुआ ज्ञान भी निष्फल ही समझना चाहिए।

वर्तमान में व्यक्ति पदार्थजनित ज्ञान में दक्ष है। व्यक्ति का सारा ज्ञान पदार्थ से जुड़ा हुआ है इसलिए वह आत्म-ज्ञान से वंचित है। एक अज्ञानी आदमी पदार्थ का उपभोग करता है और ज्ञानी आदमी पदार्थ का आवश्यकतानुसार उपयोग करता है। दुनिया में जितनी भी समस्याएं हैं, वे सारी अज्ञानता के कारण हैं। समस्याओं से मुक्ति ज्ञान-चेतना के जागरण से ही मिल सकती है। एक आत्मज्ञानी समस्याओं को भोगता नहीं, वह उसको जानता और देखता है इसलिए वह सदा पदार्थ जनित समस्याओं के दुख से मुक्त रहता है। आत्म-ज्ञानी को पदार्थ व इंद्रिय विषय कभी प्रभावित नहीं करते हैं। वह पदार्थ के बीच में रहकर भी पदार्थ से अलग रहता है। आत्म-ज्ञानी सदा देह में रहते हुए विदेह में रहने की कला जानता है। यह एक आत्म-ज्ञानी की विशेषता होती है। आदमी संवेदना का जीवन जीता है। विदेह में रहने का अर्थ होता है कि संवेदना से ऊपर उठकर ज्ञाता और द्रष्टा की भूमिका में रहना। आत्मा का मूल स्वरूप है-ज्ञाता और द्रष्टा। हमारे जीवन का उद्देश्य है कि अपने स्वरूप का शोधन कर ज्ञाता द्रष्टा का अनुभव करना। अज्ञानता, विकृति तथा मन की मलिनता आत्मा के बंधन हैं। आत्मज्ञान के लिए आवश्यक है आत्मा पर आए हुए कषायरूपी आवरणों को तोड़ना। जब तक ज्ञान का प्रकाश प्रकट नहीं होगा, चित्त का शोधन नहीं होगा तथा मन की मलिनता का परिमार्जन नहीं होगा, तब तक हम संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे और स्व स्वरूप के बोध से अनभिज्ञ रहेंगे। हम परम-आनंद से तभी साक्षात्कार कर पाएंगे, जब हमारी चेतना का ऊर्ध्वारोहण होगा। चेतना के ऊर्ध्वारोहण से ही हम निर्बाध आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। जिन्होंने आत्मज्ञान के द्वारा संपूर्ण अज्ञान के तिमिर को नष्ट कर दिया है, राग और द्वेष को क्षय कर दिया है, उनका आत्म-ज्ञान परम-मुक्ति से साक्षात्कार उसी प्रकार करवा देता है, जैसे सूर्य के प्रकाश के आते ही सब कुछ स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लग जाता है। आत्मा अपने निज स्वभाव से स्वतंत्र है, शुद्ध है, निर्मल है, अखंड और अविनाशी है। आत्म ज्ञानी अपने सम्यक् पुरुषार्थ से, सद्गुरु और संतों की संगत से अपने मूल स्वभाव से अवस्थित हो जाता है। हमारी आत्मा में ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनंद के अजस्र स्रोत को प्राप्त करने के लिए सम्यक् तप, सम्यक् चिंतन और सम्यक् पुरुषार्थ की आवश्यकता है। जैसे मक्खन की प्राप्ति के लिए दूध को गर्म करना पड़ता है, फिर उसे दही बनाना पड़ता है, फिर उसे मथना पड़ता है, तब मक्खन की प्राप्ति होती है। वैसे ही हम ध्यान, ज्ञान और तप के मंथन से आत्मा के आनंद से साक्षात्कार कर सकते हैं।

हम आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर ही परम-आनंद, शाश्वत सुख तथा आत्मिक शांति अर्थात निर्वाण को प्राप्त कर सकते हैं।

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