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क्या हैं डार्क स्टोर्स, जिन पर चल रहा है क्विक कॉमर्स

भारत में क्विक कॉमर्स की दुनिया तेजी से बदल रही है, जहां डार्क स्टोर्स के जरिए मिनटों में सामान घर पहुंचाया जा रहा है। मुंबई में डिब्बेवालों की परंपरा को टेक्नोलॉजी से नया रूप मिला है। अब बड़े...

डॉयचे वेले दिल्लीSun, 25 May 2025 03:36 PM
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क्या हैं डार्क स्टोर्स, जिन पर चल रहा है क्विक कॉमर्स

शहरों में आपको नजर नहीं आते, लेकिन आपके घर तक सब कुछ पहुंचाने का सारा जादू इन्हीं से होता है.क्विक कॉमर्स की दुनिया इन्हीं डार्क स्टोर्स के दम पर चल रही है.मुंबई की धड़कती हुई गलियों में, जहां भीषण गर्मी और ट्रैफिक हर किसी की परेशानी है, वहीं एक पुरानी परंपरा आज भी जिंदा है, डिब्बेवालों की.ये वे लोग हैं जो सालों से साइकिल या पैदल चलकर ऑफिसों तक घर का बना खाना पहुंचाते आ रहे हैं.लेकिन अब इस परंपरा को टेक्नोलॉजी की मदद से एक नया रूप मिल गया है.भारत के बड़े शहरों में अब ऐसे ऐप्स छा गए हैं जो न सिर्फ खाने-पीने की चीजें, बल्कि कपड़े, गैजेट्स और मोबाइल फोन तक मिनटों में आपके घर पहुंचा रहे हैं.इन्हें कहा जा रहा है, क्विक कॉमर्स ऐप्स.और ये सिर्फ एमेजॉन जैसे ई-कॉमर्स दिग्गजों को चुनौती नहीं दे रहे, बल्कि मोहल्लों की पुरानी किराना दुकानों को भी कमजोर बना रहे हैं.डार्क स्टोर में चलता है मिनटों वाला जादूमुंबई के बीचोंबीच बिगबास्किट का एक वेयरहाउस है, जहां डिलीवरी की रफ्तार देखकर किसी को भी हैरानी हो सकती है. यह जगह ग्राहकों के लिए खुली नहीं होती, इसलिए इन्हें "डार्क स्टोर्स" कहा जाता है.जैसे ही कोई नया ऑर्डर आता है, कर्मचारी फुर्ती से ऐक्शन में आ जाते हैं.वे तेजी से गलियों में भागते हैं, कोल्ड ड्रिंक से लेकर हरी सब्जियों तक एक बैग में भरते हैं, और फिर ये बैग एक बाइक वाले को दे देते हैं.जो आज के समय का डिजिटल डिब्बावाला है.बिगबास्किट के को-फाउंडर विपुल पारिख कहते हैं, "यह इंडस्ट्री जिस तेजी से बदल रही है, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया" उनके मुताबिक, अगले दो-तीन सालों में क्विक कॉमर्स इंडस्ट्री की विकास दर सालाना 60 फीसदी से ज्यादा हो सकती है.क्यों चल रही है क्विक कॉमर्स की हवा?भारत में यह मॉडल इस वजह से भी काम कर रहा है क्योंकि शहरों में ज्यादातर लोग एक-दूसरे के काफी करीब रहते हैं.एक डार्क स्टोर के दो किलोमीटर के दायरे में हजारों लोग रहते हैं, जिससे डिलीवरी का समय घट जाता है और लागत भी कम होती है.दूसरा कारण यह है कि भारत में अब भी सुपरमार्केट चेन का उतना बोलबाला नहीं है.लोग छोटी दुकानों पर निर्भर हैं. लेकिन जब ऐप पर बैठकर सारा सामान मिनटों में मिल जाए, तो दुकान तक जाना भी मेहनत का काम लगने लगता है.मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े 32 वर्षीय रिनिश रविंद्र कहते हैं, "सच कहूं तो, ये ऐप्स मुझे थोड़ा आलसी बना देते हैं.लेकिन क्या फर्क पड़ता है? सुविधा तो है.बस कुछ बटन दबाओ और सामान घर आ जाता है"यूरोप-अमेरिका में फीका पड़ा बाजारजहां यूरोप और अमेरिका में क्विक डिलीवरी ऐप्स जैसे गेटिर और जोकर की वृद्धि कोरोना के बाद धीमी पड़ गई है, वहीं भारत में बिक्री आसमान छू रही है.डाटुम इंटेलिजेंस नाम की संस्था के अनुसार, भारत में क्विक कॉमर्स की बिक्री 2020 में 100 मिलियन डॉलर थी, जो 2024 में 6 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई.जेएम फाइनेंशियल का अनुमान है कि 2030 तक यह बाजार 40 बिलियन डॉलर का हो सकता है.अब जब भारत का बाजार इस रफ्तार से बढ़ रहा है, तो एमेजॉन, फ्लिपकार्ट और रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियां भी इस रेस में कूद पड़ी हैं.पहले ये कंपनियां शहर के बाहर बने बड़े वेयरहाउस पर निर्भर थीं, लेकिन अब ये भी डार्क स्टोर्स बनाकर शहरों के भीतर तेज डिलीवरी देने की तैयारी कर रही हैं.डाटुम इंटेलिजेंस में विश्लेषक सतीश मीणा कहते हैं, "अब एमेजॉन जैसी कंपनियों को अपने नेटवर्क को फिर से डिजाइन करना पड़ेगा क्योंकि पुराना मॉडल क्विक डिलीवरी के लिए काम नहीं करता"हालांकि, हर चमकती चीज सोना नहीं होती. इस सेक्टर में कॉम्पिटिशन इतना तेज है कि एक मशहूर स्टार्टअप पहले ही बंद हो चुका है.रिसर्च कंपनी बर्नश्टाइन के राहुल मल्होत्रा कहते हैं, "मुझे लगता है कि दो या तीन ही खिलाड़ी इस बाजार में लंबे समय तक टिक पाएंगे.जो शुरुआती दौर में आगे निकले और जिनकी हाइपरलोकल पकड़ मजबूत है, उनके पास बढ़त होगी"दूसरी चुनौती है देशभर की छोटी दुकानों से.कॉन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स 9 करोड़ से ज्यादा छोटे कारोबारियों का प्रतिनिधित्व करता है.उसने क्विक कॉमर्स के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन की चेतावनी दी है.संगठन के अध्यक्ष ने तो इन ऐप्स की तुलना "नई ईस्ट इंडिया कंपनी" से कर दी है.लेकिन इन सबके बीच, एक सच्चाई यह भी है कि ग्राहक इन ऐप्स को हाथों-हाथ ले रहे हैं.रिनिश रविंद्र कहते हैं, "जब ग्रॉसरी की बात आती है, अब सबसे पहले दिमाग में यही आता है कि बस ऐप खोलो और ऑर्डर कर दो".

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