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धार्मिक वजहों से नहीं लेता था सेना की खास परेड में हिस्सा, बर्खास्त हुआ तो पहुंचा HC; अदालत ने यह कहा

सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि भारतीय सशस्त्र बलों में विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि के कर्मी शामिल हैं, लेकिन उनका पहला कर्तव्य राष्ट्र की रक्षा करना है। सैन्य एकता धार्मिक, जाति या क्षेत्रीय भेदभाव के बजाय सेवा और वर्दी के माध्यम से बनती है।

Sourabh Jain एएनआई, नई दिल्लीSat, 31 May 2025 05:51 PM
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धार्मिक वजहों से नहीं लेता था सेना की खास परेड में हिस्सा, बर्खास्त हुआ तो पहुंचा HC; अदालत ने यह कहा

दिल्ली हाई कोर्ट ने सशस्त्र बलों में एकता और अनुशासन की भावना को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक कमांडिंग अधिकारी की बर्खास्तगी को उचित ठहराते हुए उसे बरकरार रखा है। इस अधिकारी ने खुद के ईसाई धर्मावलंबी होने हवाला देते हुए साप्ताहिक रेजिमेंटल धार्मिक परेड में भाग लेने से इनकार कर दिया था। साथ ही उसने धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान मंदिरों में जाने से छूट देने का अनुरोध किया था। जिसके बाद अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा कि अधिकारी द्वारा नियमों का पालन नहीं करने से पारंपरिक सौहार्द में बाधा उत्पन्न हुई, जिसके चलते उसकी बर्खास्तगी बिल्कुल सही है।

दरअसल मामला भारतीय सेना के उस अधिकारी की बर्खास्तगी से जुड़ा है, जिसने व्यक्तिगत आस्था का हवाला देते हुए रेजिमेंटल धार्मिक परेड में भाग लेने से इनकार कर दिया था। पेंशन या ग्रेच्युटी के बिना बर्खास्त किए गए अधिकारी ने बहाली की मांग की थी, लेकिन उसे हाई कोर्ट के द्वारा अस्वीकार कर दिया गया।

मामला यह है कि साल 2017 में कमीशन प्राप्त अधिकारी को विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि के कर्मियों वाली एक रेजिमेंट में नियुक्त किया गया था। जिसके बाद उसने तर्क दिया कि यूनिट में सभी धर्मों के लिए 'सर्व-धर्म स्थल' की कमी है और साथ ही उसने धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान मंदिरों में जाने से छूट देने का अनुरोध किया।

जिसके बाद सेना ने कहा कि कई बार हुई काउंसिलिंग के बावजूद उक्त अधिकारी ने अपनी धार्मिक मान्यताओं का हवाला देते हुए अनिवार्य रेजिमेंटल परेड में भाग लेने से लगातार इनकार किया, जिससे यूनिट की एकजुटता कमजोर हुई है। ऐसे में उपलब्ध सभी विकल्पों को आजमाने के बाद, सेना प्रमुख ने उसके दुर्व्यवहार को देखते हुए उसे सेना में बनाए रखना अवांछनीय माना। सुनवाई के दौरान अदालत ने जोर देकर कहा कि कमांडिंग अधिकारियों को व्यक्तिगत धार्मिक विश्वासों की बजाय अनुशासन और एकता को प्राथमिकता देनी चाहिए।

जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शालिंदर कौर की पीठ ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि सशस्त्र बल अपने कर्मियों की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हैं, जैसा कि सैन्य नियमों के अनुच्छेद 332 में उल्लिखित है, जिसमें धार्मिक रीति-रिवाजों और पूर्वाग्रहों का सम्मान किया जाना अनिवार्य है।

सेना में आवश्यक उच्च अनुशासन को मान्यता देते हुए, पीठ ने फैसला सुनाया कि अदालतें परिचालन प्रभावशीलता और मनोबल को बनाए रखने के लिए आवश्यक निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं। ऐसे में निष्कर्ष निकालता है कि अधिकारी के नियमों का पालन करने से इनकार करने से पारंपरिक सौहार्द में बाधा उत्पन्न हुई, जिससे उसकी बर्खास्तगी उचित हो गई।

सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि भारतीय सशस्त्र बलों में विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि के कर्मी शामिल हैं, लेकिन उनका पहला कर्तव्य राष्ट्र की रक्षा करना है। अदालत ने जोर देकर कहा कि सैन्य एकता धार्मिक, जाति या क्षेत्रीय भेदभाव के बजाय सेवा और वर्दी के माध्यम से बनती है।

अपने फैसले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर देते हुए भारतीय सशस्त्र बलों की धर्मनिरपेक्ष नींव को मजबूत किया, कि हालांकि कुछ रेजिमेंटों के नाम धर्म या क्षेत्र से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन इससे संस्था की तटस्थता से समझौता नहीं होता है। न्यायालय ने कहा कि युद्ध के नारे-जिन्हें अक्सर धार्मिक माना जाता है-पूरी तरह से प्रेरक होते हैं, जिन्हें सैनिकों के बीच एकता और एकजुटता को बढ़ावा देने के लिए डिजाइन किया गया है।