सत्य की अनुभूति से जाग्रत होता है मन
- सच्चाई का साक्षात्कार होते ही मांग पूरी हो जाती है, चाह समाप्त हो जाती है। जब तक सच्चाई का अवबोध नहीं होता, तब तक मांग कभी पूरी होती ही नहीं, चाह मिटती ही नहीं। इस शाश्वत सत्य की अनुभूति होते ही मन जाग्रत हो जाता है।

इच्छा आकाश के समान अनंत है’- यह मैं भी जानता हूं और आप भी जानते हैं। सब जानते हैं कि इच्छा पूर्ण नहीं होती, अपूर्ण बनी-की-बनी रहती है। पर सच्चाई का साक्षात्कार करने वाले विरल व्यक्ति ही मिलेंगे। साक्षात्कार वही व्यक्ति कर पाता है, जिसका शुक्ल पक्ष जाग गया है।
इसे समझने के लिए एक प्रसंग है। कपिल दो मासे सोने के लिए राजा के पास गया। राजा ने कहा- मांगो। अब इच्छा को खेलने के लिए अनंत आकाश मिल गया। इच्छा बढ़ती गई और पूरे राज्य को पा लेने और राजा को रंक बनाने की बात सोचकर ही शांत हुई । मोड़ आया। सच्चाई का भान हुआ। शुक्ल पक्ष जाग गया। राजा ने कहा- मांगो। कपिल बोला- क्या मांगू? कुछ है ही नहीं इस संसार में। अब मैं जा रहा हूं, उस देश में जहां मांग नहीं है, चाह नहीं है। कपिल संन्यासी बन गया।
सच्चाई का साक्षात्कार होते ही मांग पूरी हो जाती है, चाह समाप्त हो जाती है। जब तक सच्चाई का अवबोध नहीं होता, तब तक मांग कभी पूरी होती ही नहीं, चाह मिटती ही नहीं। सिद्ध पुरुष ने अपने भक्त से कहा- प्रसन्न हूं। कुछ मांगो। भक्त बोला- कुछ नहीं चाहिए। सिद्ध पुरुष ने देखा, यह कैसा भक्त! अमूल्य क्षण को खो रहा है। मांगने के लिए आग्रह किया। भक्त बोला- यदि आप देना ही चाहते हैं तो यह वरदान दें कि मेरे मन में चाह उत्पन्न ही न हो, मांग रहे ही नहीं।
यह तब संभव है, जब सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। अन्यथा लोग मांग को पूरी करने के चक्कर में कितने देवी-देवताओं की मनौतियां मनाते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं। वे कहां-कहां नहीं भटकते। फिर भी एक के बाद दूसरी मांग बनी की बनी रहती है। इच्छा पर अंकुश नहीं रहता। इच्छा असीम। वह पराक्रम के द्वारा पूरी नहीं होती, तब देवताओं की शरण ली जाती है। कोई भी व्यक्ति देवताओं की मनौती उनके गुणों के कारण नहीं मनाता। उसके दिव्य गुणों के प्रति कोई आस्था भी नहीं है। मुझे दिव्य बनना है, देवता सदृश बनना है, इस भावना से कोई देवता के पास नहीं जाता, किंतु स्वार्थ से प्रेरित होकर अपनी निरंकुश इच्छा को पूरी करने के लिए वहां जाता है, उनकी शरण लेता है। बेचारे देवता भी क्या करेंगे? किस-किस की इच्छा पूरी करेंगे? कितनों को संभालेंगे?
आज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आदमी ने आदमी पर भरोसा करना छोड़ दिया। श्रम और पुरुषार्थ पर भरोसा करना छाेड़ दिया और पूरा विश्वास देवताओं के चरणों में समर्पित कर डाला। देवताओं के सामने भी समस्या है कि किस-किस की मांग पूरी करें? कहां से करें? कितनी करें? यदि आदमी ने इच्छा पर नियंत्रण करना नहीं सीखा तो वह दिन दूर नहीं है, जब देवता भी मनुष्य को ठुकरा देंगे। संभव है मंदिर के सारे द्वार ही बंद हो जाएं। वे केवल उनके लिए ही खुले रह सकें, जो मंदिर में इच्छा-पूर्ति के लिए नहीं, आराधना और सद्भावना से आते हैं। कोई भी व्यक्ति देवता के पास इसलिए नहीं जाता कि उसका सोया मन जाग जाए, चेतना जाग्रत हो जाए, दिव्य गुणों की प्राप्ति हो।
जब तक सोए मन को जगाने की बात प्राप्त नहीं होगी, तब तक किसे धर्म मानें? किसे धार्मिक मानें? किसे धर्मगुरु और अध्यात्मचेता मानें? किसे धर्म का देवता मानें? इन प्रश्नों का हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। आज लोग साधु-संन्यासियों के पास भी इच्छा प्रेरित भावना को लेकर आते हैं, इच्छापूर्ति के लिए आते हैं। यह साधुओं के पास आने का धुंधला अर्थ है। यहां आना चाहिए सच्चाई के साक्षात्कार के लिए, जिससे कि इच्छा कम हो, चाह मिटे और सोया मन जग जाए।
एक साधारण व्यक्ति। गरीब। पर आत्मा अत्यंत जाग्रत। इकलौता बेटा। दुर्घटना में दोनों पैर गंवा बैठा। अपंग हो गया। पास-पड़ोस वाले संवेदना प्रकट करने आए। वह मुस्करा रहा था। वे बोले- इतना बड़ा आघात और तुम मुस्करा रहे हो? आजीविका का एकमात्र माध्यम अपंग हो गया, तुम्हें कोई पीड़ा नहीं है? क्या यह मुस्कराने का क्षण है? ऐसे मर्मांतक क्षणों में भी मुस्कराते रहने का रहस्य क्या है?
वह बोला- ‘मैंने दो सूत्र आत्मसात कर रखे हैं। पहला सूत्र है- धन-संपदा चंचल और क्षणभंगुर हैं। यह कभी भी नष्ट हो सकती है। दूसरा है- जीवन क्षणभंगुर है। केवल मेरी मुस्कराहट ही निश्चल है, फिर यह क्यों गायब हो? मैं क्यों दुखी बनूं?’
ऐसा उत्तर वही व्यक्ति दे सकता है, जिसे सत्य का भान हो गया है। यह तभी संभव है, जब सोया मन जाग जाता है।
इस अंतश्चेतना को जगाने के लिए चैतन्य केंद्र प्रेक्षा अत्यंत आवश्यक है। जब दर्शन केंद्र और आनंद केंद्र जाग जाते हैं, तब सारी भावधारा बदल जाती है। देखने का कोण बदल जाता है। सत्य के साक्षात्कार का यह अर्थ नहीं है कि दूर की वस्तुएं देखी जा सकें, दूर के शब्द सुने जा सकें या दूर की घटनाओं का प्रत्यक्षीकरण हो सके। ये सब आज वैज्ञानिक उपकरणों से हो ही रहे हैं। यंत्रों के द्वारा और-और चमत्कारिक कार्य किए जा रहे हैं। किंतु साक्षात्कार का अर्थ है- सुप्त चेतना का जागना। यह यंत्रों से नहीं होता। यह होता है केंद्रों पर ध्यान करने से। सुप्त मन के जागने का पहला लक्षण है, इच्छा का कम होना और दूसरा लक्षण है, भय की चंचलता का कम होना। यही है सत्य का साक्षात्कार।
जब मन जाग जाता है, तब व्यक्ति बदल जाता है और घटनाओं को ग्रहण करने का कोण बदल जाता है। चिंतन बदल जाता है। जब चिंतन बदलता है, तब सत्य की अनुभूति होती है और सत्य की अनुभूति होने पर मन जाग्रत होता है।