बैसाख का महीना: उत्सव और आत्मबोध का पर्व
- Baisakh: बैसाख के महीने में प्रकृति निखर उठती है, फूलों की कली-कली मुस्कुराने लगती है। हवाओं में नई ताजगी घुल जाती है। बैसाख का महीना केवल ऋतु परिवर्तन का ही नहीं है। इस माह आने वाला बैसाखी का पर्व हमें आत्मसंयम और मिलन का संदेश भी देता है।

Baisakh: बैसाख के महीने में प्रकृति निखर उठती है, फूलों की कली-कली मुस्कुराने लगती है। हवाओं में नई ताजगी घुल जाती है। बैसाख का महीना केवल ऋतु परिवर्तन का ही नहीं है। इस माह आने वाला बैसाखी का पर्व हमें आत्मसंयम और मिलन का संदेश भी देता है।
बैसाख के महीने में खेतों में फसल पकती है तो उसे काटने का समय आ जाता है। ऐसे ही जब साधक की साधना की फसल पक जाती है तो उसका परमात्मा से मिलन हो जाता है। संतजन कहते हैं कि अपने कर्मों की वजह से प्रभु तुमसे बिछड़ गए हैं, अब यह प्रभु से मिलने का समय है। बैसाख का महीना मिलाप का समय है। साधक के अंदर परमात्मा की खोज के लिए अपार धीरज होता है। उसे मालूम नहीं होता कि कब परमात्मा से भेंट होगी, उसे पता ही नहीं कि दर्शन होंगे या नहीं होंगे। जिस जीव को ज्ञान नहीं, बोध नहीं, वह अंधकार में भटक रहा था, पुकार रहा था कि प्रभु कहां हो तुम? इस वैराग्य की अग्नि की ताप को धीरज के बिना सहा नहीं जा सकता। साधना धीरज से होती है। जिसके अंदर धीरज नहीं है, वह साधना और सेवा नहीं कर सकता। प्रेमी अपार धीरज के साथ पुकारता ही रहता है।
साधक के भीतर परमात्मा की खोज का अपार धैर्य होता है। उसे यह ज्ञात नहीं कि यह मिलन कब होगा, न ही यह निश्चित होता कि दर्शन होंगे या नहीं। जो अज्ञान के अंधकार में भटक रहा था, वह पुकारता है- ‘प्रभु, तुम कहां हो?’ इस विरह की अग्नि को सहने के लिए केवल धैर्य ही एकमात्र सहारा है। साधना का मार्ग धैर्य और समर्पण से ही तय होता है। बिना धैर्य के न तो साधना संभव है, न ही सेवा। सच्चा प्रेमी अनवरत पुकारता रहता है, अपार धैर्य के साथ, जब तक कि प्रभु स्वयं प्रकट न हो जाएं।
इस बैसाख के महीने में फूल खिलते हैं, बहार आती है। ऐसे ही साधक प्रार्थना करता है कि मेरे जीवन में भी बहार आ जाए, मेरे भी जीवन में उत्सव आ जाए, मेरे भी जीवन में प्रभु-प्रेम की फुलझड़ी खिलने लग जाए। वह यही पुकार करता है कि प्रभु! मेरे लिए यह बैसाख का महीना मुबारक तब होगा, जब मैं अपने प्रीतम के चरणों में गिर पड़ूं। जो प्रभु-प्रेम से भर जाते हैं, उनका केवल मन ही नहीं, बल्कि मुख भी निर्मल हो जाता है, उनकी वाणी भी निर्मल हो जाती है, उनकी आभा निर्मल हो जाती है। मन में प्रेम-भाव, भक्तिभाव और धर्म की राह पर चलने का निश्चय आ जाने भर से वह एक आकर्षक व्यक्ति बन जाता है। किसी के अंदर भक्ति-भाव का जग जाना यह एक बड़ी अद्भुत बात है। इस भाव के उठने पर दुनिया एकदम बदल जाती है। भीतर जो परम सुंदर बैठा हुआ है, उसके साथ जुड़ जाने के बाद, इस भाव-रस को चखने के बाद सारा संसार फीका हो जाता है।
जो प्रभु-प्रेम से सराबोर हो जाते हैं, उनकी निर्मलता केवल मन तक सीमित नहीं रहती, बल्कि उनके मुखमंडल, वाणी और आभा तक में झलकने लगती है। भक्ति-भाव का जागरण अपने आप में एक अद्भुत चमत्कार है। जब यह भाव प्रकट होता है, तो जीवन की पूरी दृष्टि बदल जाती है। भीतर स्थित उस परम सुंदर सत्ता से जुड़ जाने के बाद, जब भक्त उसका अमृत-रस चख लेता है, तब यह संपूर्ण संसार फीका और तुच्छ प्रतीत होने लगता है।
बैसाखी केवल किसानों का पर्व नहीं है, यह वह ऐतिहासिक दिन है, जब दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। बैसाखी का ही पावन दिन था, जब दशम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में एक विशाल सभा का आयोजन किया था। उन्होंने वहां उपस्थित संगत को संबोधित करते हुए आह्वान किया- ‘जो भी मुझसे अपनी अटूट भक्ति, प्रेम और पूर्ण समर्पण को सिद्ध करना चाहता है, वह अपना शीश अर्पित करे।’ हजारों की उस सभा में सन्नाटा छा गया। उस समय पर पांच वीर आगे आए और उन्होंने पूर्ण निष्ठा से कहा- ‘हम अपने प्राण आपको समर्पित करते हैं।’ यही पांच सिंह आगे चलकर ‘पंज प्यारे’ कहलाए और खालसा पंथ की नींव पड़ी। यही पंथ साहस, बलिदान और धर्म रक्षा का प्रतीक बना।
कहा जाता है कि गुरु जी ने उन पांचों को एक नया जीवन दिया, एक नई दृष्टि दी, जो वीरता से भरी थी। एक नया संकल्प दिया, जो सौंदर्य और शक्ति का प्रतीक था। एक ऐसा निर्भय स्वभाव बनाने के लिए प्रेरित किया, जो अन्याय के विरुद्ध खड़ा हो सके। उन्होंने अपने अनुयायियों को ऐसा अदम्य साहस प्रदान किया, जिससे वे अत्याचारी शासन का मुकाबला कर सकें।
इस प्रकार बैसाखी का पावन दिवस हमें याद दिलाता है कि हमें शक्तिशाली बनना है- न केवल शरीर से, बल्कि मन और आत्मा से भी। हमें अत्याचारी या शोषक नहीं, बल्कि ऐसे योद्धा बनना है, जो निर्भय होकर अन्याय के विरुद्ध खड़े हों, समाज की रक्षा करें और इसे भयमुक्त, न्यायपूर्ण और दयालुता से परिपूर्ण बनाएं। यह दिन हमें अपने भीतर झांकने का अवसर देता है कि हम केवल शरीर से नहीं, बल्कि मन और आत्मा से भी सशक्त बनें, निर्भीक, कर्तव्यनिष्ठ और धर्म के मार्ग पर अडिग रहने वाले बनें। हम देखें कि कहीं हमारे मन में कोई अशुद्धियां तो नहीं हैं। यदि हैं तो उन्हें सत्य, ज्ञान, चिंतन, ध्यानमय दृष्टिकोण, गुरुओं एवं शास्त्रों द्वारा प्रदत्त दिव्य ज्ञान से दूर करें।
यह दिन हमें स्मरण कराता है कि जीवन कठिन हो सकता है, जीवन चुनौतियां देता है, जीवन हमें जटिल परिस्थितियों में डालता है, लेकिन इन्हीं कठिन परिस्थितियों से जूझने और उनका समाधान निकालने के लिए बुद्धिमत्ता और ज्ञान आवश्यक है। ऐसी प्रार्थना है कि यह बैसाखी हम सबको वह प्रदान करे, जिसकी हमें वास्तव में आवश्यकता है- शक्ति, ज्ञान और आत्मबोध!