बोले औरंगाबाद : शादियों में ट्रंक की मांग घटने से दुकानदारों की आमदनी हुई कम
पेटी ट्रंक बनाने का काम अब मुश्किल में है। प्लास्टिक और फाइबर के विकल्पों के कारण इसकी मांग घट रही है। युवा इस पेशे को अपनाने से भाग रहे हैं, जबकि कारीगरों को कच्चे माल की बढ़ती कीमतों और आधुनिक...
पेटी ट्रंक बनाने का काम कभी ग्रामीण और शहरी जीवन का अहम हिस्सा था। शादी, ब्याह से लेकर दहेज और घरेलू सामान रखने तक हर अवसर पर इसकी मांग रहती थी। जैसे-जैसे प्लास्टिक, फाइबर और लकड़ी के आधुनिक विकल्प आए, इस परंपरागत उत्पाद की मांग घटने लगी। नई पीढ़ी हल्के और आकर्षक विकल्पों की ओर मुड़ गई। इससे पारंपरिक पेटियों की उपयोगिता और लोकप्रियता में गिरावट आई। इसके अलावा ऑनलाइन शॉपिंग और बड़े ब्रांड ने छोटे कारीगरों को पूरी तरह से बाजार से बाहर कर दिया। इसका सीधा असर उनकी आय और सम्मान पर पड़ा है। पहले जो कारीगर गांव-गांव में सम्मान पाते थे, आज उन्हें नजरअंदाज किया जाने लगा है।
यह बदलाव केवल आर्थिक नहीं सामाजिक भी है। कारीगर जाति अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित है और उन्हें यह नहीं समझ आ रहा है कि अब कौन सा रास्ता अपनाएं। पेटी ट्रंक बनाने में लोहा, टीन, पट्टी, ताले, रंग, ब्रश और फोम जैसी सामग्रियों की जरूरत होती है। बीते कुछ वर्षों से इन सभी कच्चे माल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है। पहले जो सीट पांच सौ रुपए में मिलती थी। अब वह आठ सौ से एक हजार रुपए तक पहुंच चुकी है। इस तरह रंग, ताले और क्लैप जैसे सामान भी महंगे हो गए हैं। इसके कारण एक पेटी को लागत काफी बढ़ जाती है। बाजार में ग्राहक उतनी कीमत देने को तैयार नहीं होता क्योंकि उसके पास प्लास्टिक या तैयार अलमारी जैसे विकल्प मौजूद हैं। कारीगरों के लिए यह स्थिति दोहरी मार जैसी हो गई है। आज के युग में जहां हर उद्योग में तकनीक और मशीन का प्रयोग हो रहा है वहीं पेटी ट्रंक बनाने वाले अभी भी पारंपरिक औजारों पर निर्भर हैं। हैमर, रिवेट मशीन, कटर और मैनुअल प्रेस जैसे औजारों के सहारे घंटे की मेहनत से एक पेटी तैयार होती है। नतीजा यह होता है कि उत्पादन धीमा रहता है और गुणवत्ता में एकरूपता बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। मशीनों की अनुपलब्धता के कारण वे बड़े आर्डर नहीं ले सकते और प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाते हैं। पेटी ट्रंक बनाने का काम बेहद मेहनत और धैर्य की मांग करता है। सुबह से लेकर देर शाम तक हथौड़ी सीट और रंग के बीच काम करते हुए एक कारीगर जीवन यापन करते हैं। आज के युवा पीढ़ी इस कठिन और कम लाभ वाले काम को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं। वे पढ़ाई या शहरों में जाकर नौकरी करने को प्राथमिकता दे रहे हैं। उन्हें यह काम दकियानूसी और आर्थिक रूप से कमजोर लगता है। कई परिवारों में अब यह काम केवल बुजुर्गों तक सीमित रह गया है। जैसे-जैसे ये कारीगर बूढ़े हो रहे हैं, इस कला का अंत भी निकट होता जा रहा है। यदि सरकार या सामाजिक संगठन युवाओं को प्रशिक्षण देकर इस पारंपरिक शिल्प की ओर आकर्षित करें तो शायद इस उद्योग का नया जीवन मिल सकता है। वरना यह धंधा आने वाले समय में इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। स्वास्थ्य बीमा नहीं होने से खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं पेटी ट्रंक बनाने का काम न सिर्फ मेहनत भरा है बल्कि स्वास्थ्य के लिहाज से भी जोखिमपूर्ण है। लंबे समय तक धूल, रंग और केमिकल्स के संपर्क में रहने से सांस संबंधी रोग, एलर्जी और त्वचा की समस्याएं आम हो गई हैं। भारी लोहे की सीट काटने और जोड़ने में चोट लगने का खतरा हमेशा बना रहता है। कारीगरों के पास सुरक्षा उपकरण जैसे दस्ताने, मास्क या सेफ्टी ग्लासेस तक नहीं होते। वे उनके बजट से बाहर होते हैं। कई बार हल्की सी चूक गंभीर दुर्घटना में बदल जाती है जिससे काम भी रुकता है और इलाज का खर्च भी उठाना पड़ता है। कोई स्वास्थ्य बीमा या चिकित्सकीय सुविधा नहीं मिलने से कारीगर खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। यदि सरकार या एनजीओ की ओर से स्वास्थ्य शिविर, बीमा योजना और सुरक्षा किट की सुविधा दी जाए तो इन जोखिमों को काफी हद तक काम किया जा सकता है। पेटी ट्रंक निर्माण का काम वर्षों से एक जैसी शैली और तकनीक पर निर्भर रहा है। कारीगर पारंपरिक डिजाइनों पर ही काम करते हैं। उनके पास न तो प्रशिक्षण का साधन है और न ही बाजार की नई मांगों की जानकारी। ग्राहक आकर्षक रंग हल्के वजन और मल्टी डिजाइनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं जबकि पेटी ट्रंक अब भी पुराने ढर्रे पर ही बना रहे हैं। इससे स्पर्धा में पिछड़ने का खतरा बढ़ गया है यदि इन कारीगरों को नए डिजाइन फिनिशिंग तकनीक और रंग संयोजन की ट्रेनिंग दी जाए तो वह बाजार की बदलती जरूरत के अनुसार खुद को ढाल सकते हैं। इसके अलावा डिजाइन में बदलाव से आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। नवाचार न केवल उत्पाद की मांग बढ़ाएगा बल्कि कारीगरों को भी एक नया आत्मविश्वास देगा। पांच सुझाव सरकार को पेटी ट्रंक कारीगरों के लिए विशेष सहायता योजना शुरू करनी चाहिए कच्चे माल पर सब्सिडी या थोक उपलब्धता सुनिश्चित की जाए। आधुनिक उपकरणों की खरीद के लिए आसान ऋण और सब्सिडी दी जाए। योजनाओं की जानकारी के लिए पंचायत स्तर पर शिविर लगाया जाए। पेटी ट्रंक उत्पादकों को ई-कॉमर्स प्लेटफार्म से जोड़ा जाए। पांच शिकायतें पेटी ट्रंक की घटती मांग के बावजूद सरकार की ओर से कोई समर्थन नहीं मिलता। कच्चे माल की कीमत आसमान छू रही है जिससे उत्पादन घाटे में जा रहा है। आधुनिक मशीनों की सुविधा नहीं है जिससे कारीगरों की मेहनत कई गुना बढ़ जाती है सरकारी योजनाओं की जानकारी और पहुंच नहीं होने से वे लाभ से वंचित हैं उत्पाद बेचने के लिए कोई स्थाई और ऑनलाइन बाजार नहीं है। हमारी भी सुनिए कई बार पेटी बनाकर महीनों तक दुकान में रखना पड़ता है। ग्राहक नहीं मिलते तो हमें मजबूरी में बहुत कम दामों पर बेचना पड़ता है। कोऑपरेटिव मॉडल के तहत एक सामूहिक बिक्री मंच उपलब्ध होना चाहिए। मोहम्मद अली हसन हम लोग बरसों से पेटी ट्रंक बनाते आ रहे हैं लेकिन अब काम इतना घट गया है कि घर चलाना भी मुश्किल हो गया है। बच्चों की पढ़ाई, राशन, इलाज, हर चीज पर कटौती करनी पड़ती है। बाबू हम लोग दुकान पर हर दिन मेहनत करते हैं लेकिन इतने कम पैसे मिलते हैं कि स्कूल की फीस भरना भी मुश्किल हो जाता है। कई बार तो फीस नहीं देने पर स्कूल से नाम काटने की धमकी मिलती है। अब्बास हम पारंपरिक डिजाइन पर ही निर्भर रहते हैं क्योंकि हमें नया डिजाइन बनाना नहीं आता। इससे ग्राहक जल्दी उब जाते हैं और बिक्री पर असर पड़ता है। अगर सरकार की तरफ से डिजाइन की ट्रेनिंग दी जाए तो बेहतर होगा। एहसान हर साल जब मेला लगता है तो हम सोचते हैं कि इस बार बिक्री अच्छी होगी लेकिन वहां स्टॉल तक नहीं मिल पाता। अगर किसी तरह मिल भी जाए तो उसका किराया ज्यादा होता है। मोहम्मद अलाउद्दीन पिछले कई वर्षों से यह काम कर रहे हैं लेकिन हमारे पास कोई सरकारी पहचान नहीं है। कोई रजिस्ट्रेशन या सर्टिफिकेट नहीं होने के कारण वे किसी योजना का लाभ नहीं उठा पाते। मोहम्मद राजा अब हमारी उम्र हो चली है लेकिन मजबूरी में काम छोड़ नहीं सकते। घर चलाने के लिए और कोई सहारा नहीं है। बेटा पढ़ा लिखा है लेकिन नौकरी नहीं मिली। वह भी इसी काम में लग गया है। उमर हमारे पास पेंशन, स्वास्थ्य सुविधा या कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। जब बीमार होते हैं तो उधार लेकर इलाज कराना पड़ता है। दवा और जांच का खर्च इतना होता है कि कई बार इलाज अधूरा रह जाता है। आदिल हमारे मोहल्ले में कई परिवार यही काम करते हैं लेकिन अब हालत बिगड़ती जा रही है। एक पेटी बनाकर लागत तक नहीं निकलती जबकि ग्राहक हमेशा सस्ती चीज मांगते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन सरकार की योजनाओं की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन हम जैसे गरीब कारीगरों तक उनका लाभ नहीं पहुंचता। जब बैंक में लोन के लिए जाते हैं तो गारंटी मांगी जाती है जो हमारे पास नहीं होती। अशफाक दिन रात हथौड़ी चलकर हम मेहनत करते हैं लेकिन मजदूरी इतनी कम मिलती है कि गुजारा मुश्किल हो गया है। अगर बीमार हो जाए तो इलाज कराना संभव नहीं होता। भोला हम किराए के छोटे से कमरे में काम करते हैं जहां ना तो हवा आती है और नहीं रोशनी का सही इंतजाम है। गर्मी में पसीने से तर बतर हो जाते हैं और सर्दियों में हाथ कांपने लगते हैं। मोहम्मद बशीर बचपन से पिता को इस काम में लगे देखा लेकिन आज इस पेशे में कोई भविष्य नहीं दिखता। आमदनी बहुत कम है और मेहनत अत्यधिक है। इस काम को करने के लिए अतिरिक्त सहायता की जरूरत है। शाह हुसैन घर की पूरी आमदनी सिर्फ पेटी बनाने में होती है लेकिन अब ऑर्डर आना लगभग बंद हो गया है। कई बार हफ्तों तक कोई ग्राहक नहीं आता। बच्चों के लिए दूध और किताबें खरीदना मुश्किल हो गया है। शाहबाज पेटी ट्रंक बनाने के लिए जरूरी मशीन हमारे पास नहीं है। पावर प्रेस, कटिंग मशीन, बिल्डिंग यूनिट जैसी सुविधाएं होती तो बड़े ऑर्डर भी लिए जा सकते थे। सब कुछ हाथ से करना पड़ता है जिससे अधिक समय लगता है और डिजाइन भी सीमित रहते हैं। शादाब आलम पिछले दशक से चीजों में लागत तीन गुना बढ़ गई है लेकिन मुनाफा लगातार घटता जा रहा है। पेटी ट्रंक बनाना आसान नहीं है। इसमें मेहनत, समय और कारीगरी लगती है लेकिन ग्राहक किसकी कद्र नहीं करते। व्यापारी कम दाम थोपते हैं और मजबूरी में बेचना पड़ता है। आफताब आलम दिन-रात मेहनत करते हैं लेकिन मन में डर भी बना रहता है कि आगे चलकर क्या होगा। घर की आर्थिक हालत इतनी कमजोर है की पढ़ाई भी जारी रखना कठिन होता जा रहा है। ऐसा लगता है कि अगर हमें छात्रवृत्ति या आर्थिक सहायता मिलती तो हम भी कुछ करते। सिकंदर यादव दिन भर हथौड़ी और सीट के बीच काम करना आसान नहीं है। बारिश हो या कड़ी धूप, कारीगरों के पास कोई ठिकाना नहीं होता। सड़क किनारे काम करना पड़ता है जिससे सुरक्षा का भी कोई भरोसा नहीं रहता। बिजली की सुविधा नहीं होने से मशीनों का उपयोग भी नहीं हो पाता। मोहम्मद जिया उल हक पेटी ट्रंक बनाने का काम पुश्तैनी रहा है लेकिन अब इसमें ना सामान बचा है और न ही मुनाफा। एक पेटी बनाने में चार-पांच घंटे लगते हैं लेकिन जो मजदूरी मिलती है, वह दिन भर की मेहनत का अपमान जैसा लगता है। आबू तल्हा पहले इतना काम होता था कि दिन-रात हाथ नहीं रुकते लेकिन अब ग्राहक भी पूछने नहीं आते। प्लास्टिक के बक्सों ने परंपरागत पेटी ट्रंक को लगभग समाप्त कर दिया है। मोहम्मद शमीम
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