बोले कटिहार : आर्थिक तंगी से जूझ रहे इमाम और मौलाना, तय हो वजीफा
कटिहार जिले के इमाम और मौलाना गंभीर आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं। उन्हें महज 170 से 230 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं, जो परिवार का खर्च उठाने के लिए पर्याप्त नहीं है। कई मौलाना कर्ज में डूब गए हैं और...
कटिहार जिले के मस्जिदों में नमाज अदा कराने वाले इमाम और मदरसों में दीनी तालीम देने वाले मौलाना इन दिनों गंभीर आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। मामूली वेतन में न घर का खर्च चल रहा है, न बच्चों की पढ़ाई हो पा रही है। समाज की सेवा में दिन-रात जुटे ये लोग बिना शिकायत किए अपनी जिम्मेदारियां निभा रहे हैं। ये सवाल उठा रहे हैं कि आखिर उनकी खिदमत का वाजिब हक कब मिलेगा? पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्यों में जहां इमामों के लिए वजीफा तय है, वहीं बिहार में अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई है।
90 प्रतिशत इमाम को वेतन समाज से ही मिलता है
05 सौ रुपए प्रतिदिन मेहनताना मिलता है मजदूर को
01 सौ 70 से 230 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं इमाम को
06 सौ से अधिक मस्जिद है कटिहार जिले में
मस्जिदों के इमाम और मदरसों के उलेमा जिले में आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं। घर-परिवार से दूर रहकर 24 घंटे समाज की खिदमत करने के बाद भी उन्हें इतनी आमदनी नहीं हो पाती है, जिससे महंगाई के दौर में तमाम जरूरतें पूरी हो सकें। हालांकि इसे लेकर उन्हें मलाल तो नहीं है, लेकिन जिम्मेदारों से सवाल जरूर है। उलेमाओं ने कहा कि पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि कई राज्यों में उलेमाओं की खिदमत को देखते हुए उनका न्यूनतम वेतन तय किया गया है। बताया कि पश्चिम बंगाल ने तो वजीफा भी तय कर दिया है। अधिकतर मस्जिदें वक्फ बोर्ड के अधीन हैं। इनमें नमाज अदा कराने वाले इमामों के लिए वक्फ बोर्ड को सामने आना चाहिए, ताकि इमाम की खिदमत का वाजिब हक मिले। मस्जिदों के इमामों ने कहा कि अधिकतर जगहों पर पांच से सात हजार रुपये मिलते हैं। इससे सही तरीके से इमाम का घर नहीं चल पाता है। इमाम के बच्चों को भी दीनी और दुनियावी तालीम का हक है, लेकिन वह क्या करें, उनकी आमदनी इतनी कम है कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में भी पैसे की समस्या आती है। अब तक एक बार भी सरकार या बोर्ड की ओर से मस्जिद के इमामों की हालत पर ध्यान नहीं दिया गया। जबकि, वक्फ की जायदादों से उनका वेतन तय हो तो काफी अच्छी स्थिति हो सकती है। आर्थिक विपन्नता खत्म हो जाए तो उलेमा व इमाम दिलचस्पी से समाज की खिदमत कर पाएंगे।
मदरसों में मिलते हैं चार से पांच हजार रुपए :
मौलानाओं ने कहा कि अधिकतर मदरसों में उलेमाओं का वेतन इतना कम है कि उसकी चर्चा करना फिजूल है। चार से पांच हजार रुपये में मदरसा में तालीम देते हैं। किसी तरह ट्यूशन पढ़ाकर कुछ अतिरिक्त खर्च निकाल पाते हैं। वह भी इतना नहीं होता कि सही से महीने तक का खर्च निकल पाए। अधिकतर मौलाना कर्ज में डूब जाते हैं। कई जगह इन वजहों से चंदा वसूली में मौलाना कमीशन की मांग करते हैं। मदरसों को चंदा देने वाले यदि उलेमाओं की खिदमत के अनुसार उनका वेतन तय कराने के लिए आगे आएं तो चंदा की राशि में से कमीशन लेने की मजबूरी नहीं रहेगी। मदरसा बोर्ड से जुड़े कुछ मदरसों में सरकारी ऐड मिलता है, लेकिन वह भी समय पर नहीं। इसके कारण महीनों तक वेतन के लिए मौलाना को इंतजार करना पड़ता है। प्राथमिक, मध्य और माध्यमिक स्कूलों की तरह बोर्ड प्रारंभिक शिक्षा देने वाले टोला शिक्षक की तर्ज पर इमाम और छोटे मदरसों के मौलाना के लिए भी वजीफा तय करे। इससे गांव स्तर पर चलने वाले मदरसों के मौलाना की आर्थिक स्थिति में सुधार आयेगा। अभी स्थिति यह है कि नई पीढ़ी में दीनी तालीम हासिल करने की दिलचस्पी खत्म हो रही है।
15 से 20 हजार रुपये तय हो न्यूनतम वेतन :
उलेमाओं ने कहा कि मस्जिद के इमाम और मदरसों में पढ़ाने वाले मौलाना की हालत में सुधार के लिए आमलोगों को पहल करने की जरूरत है। 90 प्रतिशत इमाम को स्थानीय स्तर पर आम लोग वेतन देते हैं। उन्हें भी सोचने की जरूरत है कि पांच से 10 हजार रुपये मासिक में क्या होगा। इमाम और मौलाना अपना घर कैसे चलायेंगे। यदि वाजिब हक उलेमाओं को मिले तो वह भी दीन की खिदमत के लिए और अधिक लगन से आगे रहेंगे। दीनी जरूरत पड़ने पर उलेमाओं के पास लोग पहुंचते हैं, लेकिन जब उनकी आर्थिक मदद की जरूरत होती है तो समय से उन्हें वेतन भी नहीं मिल पाता है। इस पर आमलोगों को ही सोचना होगा। उलेमाओं ने कहा कि एक कुशल मजदूर की न्यूनतम मजदूरी पांच सौ रुपये तक है। मस्जिदों के इमाम और मदरसा में बच्चों को पढ़ाने वाले उलेमाओं को इतना भी अगर तनख्वाह मिले तो उनका कम से कम 15 हजार रुपये वेतन होगा। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकेगा। मुस्लिम वोट की राजनीति करने वालों ने भी इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया है। आर्मी में बहाली हो रही है, इसी तरह पुलिस महकमे में भी मौलाना की बहाली हो, ताकि लोगों में इसके प्रति रुचि बढ़े और दीनी तालीम में भी बेहतर कॅरियर बन सके। मजदूर से भी कम वेतन होने के कारण अधिकतर मौलाना और इमाम की हालत खराब रहती है।
अल्पसंख्यक कल्याण विभाग करे सहयोग:
मस्जिदों के इमाम और मदरसों में बच्चों को दीनी तालीम देने वाले उलेमाओं का कहना है कि अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को चाहिए कि वह हमारे लिए कल्याणकारी योजना बनाए, जिससे आर्थिक रूप से स्थिति बेहतर हो। सरकार से अनुदान प्राप्त मदरसों के अलावा वक्फ के अधीन और समाज के सहयोग से चल रहे मदरसों में बेहतर पठन-पाठन के लिए संसाधन और आधारभूत संरचना के विकास के लिए आर्थिक सहयोग करे। मदरसों की स्थिति बेहतर होगी तो यहां पढ़ाने वाले उलेमाओं को भी इसका लाभ मिल सकेगा। अन्य राज्यों में जिस तरह इमाम और मदरसों के उलेमा के लिए वजीफा की व्यवस्था है, वह यहां भी मिले। इस पर विभाग को पहल करने की जरूरत है।
शिकायत
1. अधिकतर इमामों और मौलानाओं को केवल 4-7 हजार रुपये महीना मिलता है, जो महंगाई के दौर में नाकाफी है।
2. अधिकांश मस्जिदें वक्फ बोर्ड के अधीन हैं, लेकिन इमामों के लिए वेतन तय करने की कोई ठोस नीति नहीं है।
3. अब तक सरकार या किसी विभाग ने मस्जिदों और मदरसों में सेवा देने वालों की आर्थिक हालत पर ध्यान नहीं दिया।
4. कई मौलानाओं को मदरसों में चंदा वसूली के जरिए वेतन जुटाना पड़ता है, जिससे समाज में उनकी छवि भी प्रभावित होती है।
5. जिन मदरसों को सरकारी सहायता मिलती है, वहां भी समय पर वेतन नहीं मिलता, जिससे मौलाना कर्ज में डूब जाते हैं
सुझाव:
1. न्यूनतम वेतन 15-20 हजार तय हो। इमामों और मौलानाओं के लिए मजदूर के बराबर न्यूनतम वेतन की व्यवस्था की जाए।
2. वक्फ बोर्ड वेतन सुनिश्चित करे। मस्जिदों की वक्फ संपत्तियों से इमामों का वेतन तय किया जाए ताकि नियमित आमदनी हो।
3. टोला शिक्षक की तर्ज पर वजीफा मिले। छोटे मदरसों के मौलाना को भी प्राथमिक शिक्षकों की तरह मानदेय दिया जाए।
4. मौलाना की सरकारी नियुक्ति हो। सेना और पुलिस विभाग जैसे संस्थानों में योग्य मौलानाओं की बहाली हो, जिससे युवाओं में रुचि बढ़े।
5. अल्पसंख्यक कल्याण विभाग की पहल हो। विभाग विशेष योजना बनाकर मस्जिदों और मदरसों में सेवा देने वालों के लिए आर्थिक सहयोग दे।
इनकी भी सुनें
हम मस्जिद और मदरसे में पूरी ईमानदारी से खिदमत करते हैं, लेकिन आमदनी इतनी कम है कि परिवार चलाना मुश्किल होता है। वक्फ बोर्ड और सरकार को चाहिए कि इमाम और मौलाना का वेतन तय करे ताकि हमारी स्थिति बेहतर हो सके।
-हाफिज हेलाल अहमद, मुतवल्ली मदरसा सह जामे मस्जिद भवानीपुर
इमामत करना सिर्फ नौकरी नहीं, जिम्मेदारी है। लेकिन आर्थिक हालात इतने खराब हैं कि बच्चों की पढ़ाई भी मुश्किल हो रही है। हम सरकार से अपील करते हैं कि इमामों के लिए भी वजीफे की व्यवस्था जल्द करे।
-कारी मिन्हाजुल आबेदिन
मैं कई वर्षों से इमामत कर रहा हूं लेकिन कभी सरकार या बोर्ड ने हमारी आर्थिक स्थिति की सुध नहीं ली। अब वक्त है कि समाज और सरकार दोनों मिलकर हमारे जीवन स्तर को सुधारने की पहल करें।
-मौलाना मरगुब आलम, इमाम जामे मस्जिद भवानीपुर
हम अपनी सेवा को इबादत मानते हैं, लेकिन आर्थिक तंगी से मानसिक तनाव बढ़ता है। जब समाज हमें इज्जत देता है, तो रोजी-रोटी की व्यवस्था भी होनी चाहिए।
-हाफिज इमदादुल्लाह
मैं अजान देता हूं, मुआजीन हूं, लेकिन 4-5 हजार रुपये में क्या हो सकता है? हमें भी अपने बच्चों की पढ़ाई और घर का खर्च उठाना होता है। सरकार को हमारी जरूरत समझनी चाहिए।
- मो. माबूद हुसैन, मुआजीन जामे मस्जिद भवानीपुर
छोटे मदरसे में बच्चों को तालीम देना हमारे लिए खुशनसीबी है, लेकिन इतने कम वेतन में मजबूरी में कर्ज लेना पड़ता है। सरकार अगर न्यूनतम वजीफा तय करे तो हमें राहत मिलेगी।
-मौलाना लुकमान मजहिरी
मैं नाजिम के रूप में काम करता हूं, प्रशासनिक जिम्मेदारियां निभाता हूं, लेकिन तनख्वाह बहुत कम है। वक्फ बोर्ड और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को हमारी हालत पर ध्यान देना चाहिए।
- हाफिज अनजार आलम, नाजिम मदरसा भवानीपुर
बच्चों को कुरान सिखाना हमारा फर्ज है, लेकिन हम भी इंसान हैं, हमें भी अपने परिवार के लिए संसाधन चाहिए। सरकार को हमारे लिए स्थायी वेतन योजना बनानी चाहिए।
- हाफिज जाहीद रहमानी
मस्जिद के कामकाज में हमारी भूमिका अहम होती है, लेकिन आमदनी बहुत कम है। अगर वक्फ बोर्ड से वेतन तय हो तो हमारी समस्याएं काफी हद तक दूर हो सकती हैं।
- कारी हबिबुल्लाह जामेई
मैं कई वर्षों से समाज की खिदमत में लगा हूं, लेकिन आर्थिक रूप से कोई स्थायित्व नहीं है। बच्चों की फीस, इलाज-सब कुछ मुश्किल होता है। हमें भी जीवन सम्मान से जीने का अधिकार मिलना चाहिए।
-हसन रजा
खिदमत करते-करते उम्र बीत गई लेकिन आज भी आर्थिक हालत जस की तस है। अगर सरकार वजीफे की व्यवस्था करे तो इमाम और मौलाना पूरी लगन से तालीम और इबादत में लगे रहेंगे।
-हाफिज अब्दुल मन्नान
मैं दीनी तालीम को मिशन मानता हूं लेकिन गरीबी से संघर्ष करना पड़ता है। सरकार को चाहिए कि टोला शिक्षक की तर्ज पर मौलाना के लिए भी वजीफा तय करे।
-मौलाना मामुन रसीद
मदरसे में बच्चों को दीनी तालीम देता हूं, लेकिन तनख्वाह इतनी कम है कि हर महीने उधारी करनी पड़ती है। सरकार अगर हमें मान्यता और वेतन दे तो हम और बेहतर काम कर सकते हैं।
-कारी मोहम्मद निहारुल हक
हमने जिंदगी दीनी खिदमत में गुजार दी, अब उम्मीद है कि सरकार हमारी मेहनत का सम्मान करे और हमारी आर्थिक मदद के लिए ठोस कदम उठाए।
-हाफिज मो. सलमान
बोले जिम्मेदार
इमामों और मदरसों में तालीम देने वाले उलेमा की भूमिका अहम है। उनकी आर्थिक स्थिति सचमुच चिंता का विषय है। वक्फ संपत्तियों की आमदनी सीमित है, लेकिन हम प्रयास कर रहे हैं कि कुछ मस्जिदों में स्थानीय स्तर पर सहयोग से इमामों का वेतन बढ़े। हमने राज्य वक्फ बोर्ड और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को भी पत्र भेजकर न्यूनतम वेतन तय करने की मांग की है। हम चाहते हैं कि जैसे अन्य राज्यों में वजीफा तय किया गया है, वैसे ही बिहार में भी इमाम और मौलाना को सम्मानजनक वेतन मिले।
-मुजीबुर्रहमान, सचिव, जिला ओकाफ कमेटी, कटिहार
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मशरूम उत्पादन ने बदली तस्वीर, सरकारी सहयोग जरूरी
कटिहार, हिन्दुस्तान प्रतिनिधि। जिले में मशरूम उत्पादन से जुड़ी महिलाओं की कहानी अब प्रेरणा बनती जा रही है। 21 अप्रैल को हिन्दुस्तान में प्रकाशित स्टोरी के बाद जिले के कई पंचायतों में महिलाओं और युवाओं ने मशरूम खेती में दिलचस्पी दिखाई है। स्वयं सहायता समूहों की सदस्याएं अब प्रशिक्षण लेने के लिए प्रीति कुमारी जैसे सफल उत्पादकों से संपर्क कर रही हैं। मनिहारी प्रखंड की रीना खातून बताती हैं कि स्टोरी पढ़ने के बाद हमने भी दो दोस्तों के साथ मिलकर मशरूम उत्पादन शुरू करने की योजना बनाई है। वहीं, आजमनगर की ममता देवी ने बताया कि घर के एक कमरे में उन्होंने परीक्षण के तौर पर इसकी शुरुआत की है। कम लागत और सीमित जगह में मुनाफे की संभावना से वे उत्साहित हैं। हालांकि अब भी सबसे बड़ी समस्या बीज और पूंजी की है। अधिकतर महिलाओं के पास खुद की जमीन नहीं है और बैंक से कर्ज लेने में कई तकनीकी और दस्तावेजी अड़चनें आती हैं। बीज के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भरता लागत बढ़ा रही है। कृषि विभाग के अधिकारियों का कहना है कि यदि जिले में मशरूम की उन्नत प्रयोगशाला स्थापित की जाए और समूहों को बैंक से सीधे जोड़कर सब्सिडी योजनाओं का लाभ दिया जाए, तो यह पहल और मजबूत हो सकती है। मशरूम अब सिर्फ स्वाद नहीं, स्वरोजगार और सशक्तीकरण का जरिया बन रहा है।
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