अब काशी, मथुरा की बारी है!
- जो लोग इसे राजनीतिक चश्मे से देखना चाहते हैं, वे यकीनन कयास लगा रहे होंगे कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले संघ के कार्यकर्ता काशी और मथुरा को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश करेंगे…

वह सन् 1989 की सर्दियां थीं। सर्द हवाओं के बीच शाम जल्दी घिर आई थी। अचानक मेरे फोन की घंटी बजती है। उधर से मथुरा संवाददाता बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि बाईपास थाने पर पुलिस ने कुछ कारसेवकों की पिटाई कर दी है। उन्हें अयोध्या कूच से भी रोक दिया गया है। मैंने उन्हें फोटोग्राफर के साथ जल्द से जल्द वहां पहुंचने की सलाह दी। संवाददाता और फोटोग्राफर ने जो देखा, उसे मुझतक पहुंचने में कुछ घंटे लग गए। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे।
मथुरा टीम के अनुसार, महाराष्ट्र के कारसेवकों से भरी बस अयोध्या जा रही थी। पुलिस ने उन्हें बताया था कि जब बस को जांच के लिए रोका गया, तो उसमें सवार लोगों ने नारे लगाने शुरू कर दिए - अयोध्या तो सिर्फ झांकी है, मथुरा, काशी बाकी है। इस पर पुरजोर बहस हुई और उसके बाद पुलिस ने बल प्रयोग कर दिया। कारसेवकों का दावा पुलिस के बयान से ठीक उलटा था। उस दिन, उस घटना को कवर करते समय हमारे मन में यह ख्याल तक नहीं उभरा था कि आगे चलकर मथुरा और काशी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निशाने पर आ सकते हैं। वजह? अयोध्या का आंदोलन चरमोत्कर्ष की ओर जरूर बढ़ चला था, लेकिन लोगों में विश्वास था कि कानून और व्यवस्था अपना काम करेंगे। बाबरी मस्जिद जिसे आडवाणी जी विवादित ढांचा बताते थे, उसको कुछ नहीं होगा।
यह अलग बात है कि इस तरह के लोग हर नई तारीख के साथ घटते जा रहे थे। संघ ने बड़ी शिद्दत से इसे घर-घर का आंदोलन बना दिया था। उस दौर का अपना एक अनुभव साझा करना चाहूंगा। संघ कार्यकर्ताओं ने लोगों से आह्वान किया था कि गोधूलि वेला में वे अपनी छतों पर चढ़कर थालियां बजाएं। उस शाम मैं दफ्तर में बैठा था कि मेरी पत्नी का फोन आया। वे पूछ रही थीं कि क्या उन्हें भी छत पर जाकर थाली बजानी चाहिए? मैं फोन पर पड़ोस के घरों से उपजती ध्वनियां सुन सकता था। कार्यालय के आसपास भी ऐसा ही माहौल था। बच्चे छोटे थे और अपनी मां से ऊपर चलने की जिद कर रहे थे। मैंने कहा, आपका जो मन हो, करें। बाद में उन्होंने बताया कि किस तरह परिवार के परिवार उल्लास के साथ थाली बजाने में जुटे थे। घर-घर शिला पूजन सहित ऐसे तमाम आयोजन थे, जो अनवरत जारी थे। सरकारी तंत्र उन्हें रोकने में नाकाम था।
इसके बावजूद आशावादियों की उम्मीदें कायम थीं।
6 दिसंबर, 1992 को उनकी भावनाओं पर हमेशा के लिए तुषारापात हो गया। तब भी किसी ने नहीं सोचा था कि महज 32 बरस में वहां इतना भव्य मंदिर आकार ले लेगा। यह लम्बी सामाजिक और कानूनी लड़ाई की तार्किक परिणति थी। इस मंदिर की नींव के साथ ही सवाल उठने लगे थे कि क्या अब काशी और मथुरा की बारी है? संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेता इसका जवाब देने से कतराते थे।
आपको याद होगा। पिछली सर्दियों में काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद सड़कों पर पसर चला था। उन्हीं दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का बयान सामने आया कि राम मंदिर जैसे आंदोलनों की अब कोई आवश्यकता नहीं है। भागवत का यह भी कहना था कि नए स्थानों को लेकर घृणा फैलाने वाले अभियान स्वीकार्य नहीं हैं। बात दब गई प्रतीत होती थी, लेकिन पिछले हफ्ते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के एक बयान से मामला फिर गुनगुना गया है। उन्होंने कहा कि यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा कोई स्वयंसेवक काशी और मथुरा से जुड़े आंदोलनों में भाग लेना चाहता है, तो इससे संघ को कोई एतराज नहीं। अपनी बात को तार्किक आधार देते हुए होसबाले ने विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित धर्म संसद का हवाला दिया। वर्ष 1984 में आयोजित इस धर्म संसद में साधु-संतों ने अयोध्या के साथ काशी और मथुरा के मंदिरों को भी मुक्त कराने की मांग की थी।
कृपया यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व में गतिरोध और उनके बयानों में विरोधाभास पढ़ने की कोशिश न करें। संघ राम जन्मभूमि आंदोलन में भी सीधे तौर पर तब तक शामिल नहीं हुआ था, जब तक उसके आनुषंगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद ने इसके लिए माहौल तैयार नहीं कर दिया था। होसबाले ने हाल ही में बेंगलुरु में आयोजित संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के बाद यह बयान दिया है, इसलिए इसे अनायास मानना भूल होगी। साफ है, संघ सीधे तौर पर आंदोलन में उतरने की जगह स्वयंसेवकों को खुला छोड़ रहा है।
यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आजमायी हुई तरतीब है।
यहां असदुद्दीन ओवैसी और उन जैसे लोग अपनी पीठ थपथपा सकते हैं। वे दशकों से मुनादी करते आए हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन तीनों स्थानों के साथ तमाम अन्य विवादित स्थलों पर आंदोलन करना चाहता है। संघ यकीनन इस वितंडावाद से वाकिफ है। इसीलिए जिस दिन होसबाले ने काशी और मथुरा के संबंध में बयान दिया, उसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठतम नेताओं में एक सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा कि औरंगजेब का विषय अनावश्यक उठाया गया है। उसका यहां निधन हुआ, इसलिए उसकी कब्र यहां बनाई गई। जिनकी आस्था है, वे वहां जरूर जाएं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भी उनके सुर में सुर मिलाकर इस प्रकरण में पटाक्षेप का प्रयास किया।
कृपया याद रखें संघ एक समय में एक ही मोर्चा खोलता है।
जो लोग इसे राजनीतिक चश्मे से देखना चाहते हैं, वे यकीनन कयास लगा रहे होंगे कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले संघ के कार्यकर्ता काशी और मथुरा को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश करेंगे। हो सकता है, ऐसा हो, पर क्या 1989 से 1992 के बीच के सिहरन भरे दिनों की वापसी होगी? मुझे ऐसा नहीं लगता। उस समय लखनऊ में मुलायम सिंह यादव और नई दिल्ली में खिचड़ी हुकूमत हुआ करती थी। संघ ने अयोध्या का आंदोलन छेड़कर भारतीय जनता पार्टी की सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया था। अब उसे पहले जैसे जबरदस्त आंदोलन की जरूरत नहीं है, लेकिन इतना तय है कि वह इस मुद्दे को सफलतापूर्वक जिला चुका है।
आने वाले दिनों में इसे और धार देने की कोशिश की जाएगी। हो सकता है, सड़कों पर इसके लिए जबरदस्त जन-जमाव न दिखाई पड़ें, क्योंकि व्यवस्था से किसी भी तरह का टकराव अपनी ही सरकारों के खिलाफ उठाया गया कदम माना जाएगा। इसके बावजूद सोशल मीडिया, अदालतों और छोटे-मोटे प्रदर्शनों के जरिये इन पर सुर्खियां अवश्य बटोरी जाएंगी। उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण चुनावों में अभी दो और अगली लोकसभा के मतदान में चार वर्ष का समय शेष है। संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों के लिए इतना वक्त काफी है।
हालांकि, संघ को चाहने और उससे नफरत करने वाले यही कहेंगे कि यह तो संघ के एजेंडे में पहले से ही शामिल था। अंतर्विरोध जनना और उनमें से निकलने का रास्ता पहले से सोचे रखना ही संघ को औरों से अलग बनाता है।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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