Hindustan aajkal column by shashi shekhar 16 March 2025 हर पर्व पर रक्त आकांक्षा, Editorial Hindi News - Hindustan
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हर पर्व पर रक्त आकांक्षा

एक खतरनाक प्रवृत्ति तेजी से पनपी है। धार्मिक शोभा-यात्राएं अब शक्ति-प्रदर्शन का जरिया बन चली हैं। समूची दुनिया में जब सांप्रदायिक उन्माद पनप चला हो, तब भारत पुरानी परंपराओं को आगे बढ़ाते हुए मिसाल बन सकता था…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 15 March 2025 07:38 PM
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हर पर्व पर रक्त आकांक्षा

होली के दिन रंग और उल्लास के बीच मेरा मन डोल रहा था। पिछला पखवाड़ा अपशकुनी संदेशों से बजबजाता बीता था। दो राज्यों में तो देश के दो सबसे बडे़ समुदाय भिड़ भी चुके थे। होली परंपरागत तौर पर प्रेम और भाईचारे का त्योहार है। यह त्योहार हम हिन्दुस्तानियों की बीती ताहि बिसारकर आगे की राह पकड़ लेने की रीति-नीति का जीवंत उदाहरण भी है।

क्या अब यह एहसास स्वर्णिम अतीत का हिस्सा बनने जा रहा है?

इस सवाल के जवाब के लिए मैं आपको पत्रकारिता के अपने शुरुआती दिनों में गोते लगाने के लिए आमंत्रित करता हूं। 1980 की दहाई के शुरुआती बरसों की मुझे वाराणसी और इलाहाबाद (माफ कीजिएगा, प्रयागराज) की वे बैठकें याद हैं, जो हर खास त्योहार से पहले कोतवाली में आयोजित की जाती थीं। इनको अमन कमेटी की बैठक कहा जाता था। जिले के आला अफसरों के साथ तमाम पुजारी, संत, मठाधीश, मौलवी, मुफ्ती, मौलाना और अन्य ‘संभ्रांत’ लोग इनमें हिस्सा लेते। घंटों की बातचीत के बाद हर साल यही निष्कर्ष निकलता कि सभी समुदाय मिल-जुलकर त्योहार मनाएंगे। इस दौरान आला अधिकारी चाशनी पगे शब्दों में धमकी देना न भूलते कि कानून हाथ में लेने की जरा सी कोशिश भी महंगी पडे़गी।

होली पुलिस वालों के लिए अन्य त्योहारों के मुकाबले अधिक कठिनाई लेकर आती। इस वर्ष की भांति पहले भी जब होली जुमे के दिन होती, तो उनकी जान सांसत में पड़ जाती। उस वक्त दोनों समुदायों की संवेदनाओं को आसानी से भड़काया जा सकता था। उत्तर भारत के कुछ शहर ऐसे थे, जहां त्योहारों के आस-पास प्राय: हर साल दंगे भड़क उठते। दंगों के दौरान दोनों धर्मों के कुछ कट्टरपंथी अपने संगी-साथियों पर दबाव बनाते कि भविष्य में ‘उन लोगों’ से कोई कार्य-व्यापार नहीं रखना है। यह कटुता कुछ दिनों में हवा में कपूर की भांति विलीन हो जाती। लड़खड़ाने और हर लड़खड़ाहट के बाद सम्हलकर आगे चल पड़ने में हम भारतीयों को महारत हासिल है।

क्या इस इस्पाती एकता को तोड़ने की कोशिश हो रही है?

‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी ऐंड सेक्यूलरिज्म’ (सीएसएसएस) के मुताबिक, साल 2024 में सांप्रदायिक दंगे की 59 घटनाएं घटीं, जबकि 2023 में ऐसी दुखद घटनाओं की संख्या 32 थी। महज एक साल में 84 फीसदी का इजाफा! चौंकाने वाला यह मनहूस आंकड़ा डराता भी है। इन घटनाओं में 13 लागों को जान गंवानी पड़ी और सैकड़ों घायल हो गए। इनमें से ज्यादातर दंगे धार्मिक उत्सवों के समय हुए।

संगठन की रिपोर्ट आगे बताती है, इनमें से चार सांप्रदायिक झड़पें रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के समय, सात सरस्वती पूजा में मूर्ति विसर्जन के वक्त, चार गणेश उत्सव के दौरान और दो बकरीद के समय हुए। इसी संगठन ने पिछले साल भीड़ हिंसा की 13 घटनाओं में 11 लोगों की मौत के आंकडे़ प्रकाशित किए थे, जिनमें मुस्लिम, हिंदू और ईसाई, हर धर्म के लोग शिकार बने थे। क्या आपको अब भी नहीं लगता कि यह समय साझा सकारात्मक सोच विकसित करने का है?

ऐसा कहने की एक और वजह भी है। इस दौरान एक खतरनाक प्रवृत्ति तेजी से पनपी है। धार्मिक शोभा-यात्राएं अब शक्ति-प्रदर्शन का जरिया बन चली हैं। समूची दुनिया में जब सांप्रदायिक उन्माद पनप चला हो, तब भारत पुरानी परंपराओं को आगे बढ़ाते हुए मिसाल बन सकता था, लेकिन इसका उलटा हो रहा है। होली, दिवाली, ईद या बकरीद से बात काफी आगे बढ़ गई है। पिछले दिनों इजरायल पर आतंकी हमले के बाद उसकी जवाबी कार्रवाई पर हमारे देश में भी कटु कुतर्कों से भरपूर बहस चल पड़ी थी। महीनों तक ‘इनके’ या ‘उनके’ खिलाफ अनर्गल प्रलाप माहौल में जहर घोलता रहा। लंबे समय से षड्यंत्रपूर्वक रोपी जा रही इस नफरती फसल का असर बहुत से भारतीयों की मानसिकता पर पड़ा है।

पिछले दिनों एक पुलिस अफसर का बयान वायरल हुआ। वह कह रहे थे कि होली साल में सिर्फ एक बार आती है, जबकि जुमे 52 दिन। जिसे रंगों से तकलीफ है, वह उस दिन अपने घर से न निकले। हो सकता है, उनके बयान को तोड़ा-मरोड़ा गया हो। यह भी संभव है कि अर्थ का अनर्थ करने की कोशिश की गई हो, पर इसमें कोई दोराय नहीं कि पुलिस का काम है, वह रंगों की बारिश के बीच भी रोजे, जुमे की नमाज और अन्य धार्मिक या सामाजिक गतिविधियों को सुचारू रखे। इस उधेड़-बुन से उबरा नहीं था कि एक और सोशल मीडिया पोस्ट ने मुझे चौंकने को मजबूर कर दिया। वह सड़क किनारे खडे़ एक कियोस्क का फोटो था, जिसमें अपील दर्ज थी- ईद पर उन्हीं लोगों से सामान खरीदें, जिनके घर उस पैसे से ईद मनाई जा सके। इशारा साफ है। क्या इसे दर्ज कराने वाला नहीं जानता कि यह हमारे संविधान के अनुकूल नहीं है? कियोस्क लगाने के लिए सरकारी विभागों से बाकायदा अनुमति ली जाती है। क्या इसके लिए इजाजत ली गई थी? यदि हां, तो इसकी स्वीकृति किस अधिकारी ने दी? क्या उसके खिलाफ कोई कार्रवाई की गई?

ध्यान रहे, सामाजिक समरसता हमारी रगों में बहती है। अब से 75 वर्ष पूर्व 12 मार्च, 1950 को दैनिक हिन्दुस्तान में छपे इस अग्रलेख पर एक नजर डालने का कष्ट करें- ‘हमारे हर्ष और उल्लास का सबसे बड़ा त्योहार होलिकोत्सव इस वर्ष ऐसे दिनों में आया, जब पूर्वी बंगाल के अभागे अल्पसंख्यकों के साथ किए गए जघन्य अत्याचारों की रक्तरंजित गाथाएं भारत के कोने-कोने में अपनी पूर्ण कर्कशता के साथ गूंज रही थीं। ऐसे विषाक्त वातावरण में होली का निर्विघ्न व्यतीत हो जाना एक ऐसी घटना है, जिसके लिए भारत की जनता और उसके कर्णधार सराहना के अधिकारी हैं। संतोष का विषय है कि पाकिस्तान की ओर से निरंतर उत्तेजित किए जाने पर हमारे देशवासी आज अद्वितीय सहनशीलता से काम ले रहे हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण होली जैसे हुड़दंग वाले त्योहार पर कहीं भी कोई बड़ी दुर्घटना का न होना है।’

स्पष्ट है, विभाजन की भीषण दाहकता में दहकने के बावजूद हम भटके नहीं थे। फिलवक्त ऐसी विचारधारा को फिर से बल देने की जरूरत है।

यहां एक और तथ्य काबिले-गौर है। विश्व के प्रमुख इस्लामी देशों के साथ दिनोंदिन हमारे रिश्ते मजबूत हो रहे हैं, वहां हिंदू मंदिरों की इजाजत मिल रही है, पिछले वर्ष फरवरी में अबू धाबी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां के पहले मंदिर का उद्घाटन किया था। शायद आपको याद हो, एक बार नई दिल्ली स्थित भारतीय जनता पार्टी मुख्यालय में वह भाषण दे रहे थे। इसी बीच किसी मस्जिद से अजान की आवाज आने लगी। उसके सम्मान में मोदी ने भाषण रोक दिया और तब तक शांत खड़े रहे, जब तक अजान पूरी नहीं हो गई। इससे पूर्व तथाकथित गौरक्षकों को भी उन्होंने सार्वजनिक चेतावनी दी थी। इसके बाद सख्ती बढ़ी और ‘मॉब लिंचिंग’ पर अंकुश भी लगा।

इसके बावजूद देश के भीतर सांस्कृतिक विलगाव बढ़ाने की कोशिश हो रही है। हमें इस कुप्रवृत्ति से मिलकर वैसे ही निपटना होगा, जैसे विभाजन के बाद निपटे थे।

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@shashishekhar.journalist

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