मुर्शिदाबाद बनाम हिन्दुस्तानीयत
- मुर्शिदाबाद से बड़ी संख्या में लोगों के पलायन के बाद से यह सवाल मेरे मन को रह-रहकर मथ रहा है कि हम अपने अंदर छिपी इस विभाजन ग्रंथि से कब छुटकारा पा सकेंगे…

बरसों पहले स्वर्गीय कमलेश्वर का उपन्यास पढ़ा था- कितने पाकिस्तान। वह उस रचना के जरिये हम भारतीयों की विभाजक, विभेदक और सत्तावादी सोच को उजागर करने में कामयाब रहे थे। मुर्शिदाबाद से बड़ी संख्या में लोगों के पलायन के बाद से यह सवाल मेरे मन को रह-रहकर मथ रहा है कि हम अपने अंदर छिपी इस विभाजन ग्रंथि से कब छुटकारा पा सकेंगे? क्या हम अपने देश में बहुमत की जगह बहुसंख्यकों का राज स्थापित करना चाहते हैं, जिसमें जो वर्ग जहां बहुलता में हो, वहां सिर्फ उसी को रहने का हक हासिल होगा?
मुर्शिदाबाद से शुरू करते हैं। केंद्र सरकार द्वारा नया वक्फ कानून लागू करने के बाद भड़के दंगों ने वहां अल्पसंख्यक हिंदुओं का जीना मुहाल कर रखा है। हालात कितने खराब हैं, यह जानने के लिए एक पीड़ित परिवार की आपबीती सुनिए। मुर्शिदाबाद जिले के जाफराबाद में चाय की दुकान चलाने वाले हृदय दास और उनकी पुत्रवधू सुचरिता सरकार ने जब हिन्दुस्तान संवाददाता को झारखंड-बंगाल की सीमा पर बसे राजमहल में अपनी आपबीती सुनानी शुरू की, तो उनका शरीर कांप रहा था। उनकी डबडबाई आंखों में पसरा भय साफ पढ़ा जा सकता था।
वे शुरू करते हैं- वह 12 अप्रैल की सुबह थी। आम दिनों की तरह वहां रहने वाले 170 दलित परिवार सुबह उठकर दिन भर के काम-काज के लिए खुद को तैयार कर रहे थे कि अचानक दर्जनों हथियारबंद लोगों ने हम पर हमला बोल दिया। जिन घरों के दरवाजे बंद थे, उन पर पथराव शुरू हो गया और जो बदनसीब दरवाजा खोलता या गली अथवा सड़क पर मिल जाता, उसकी तो शामत ही आ जाती। मुझे भी किसी ने बताया कि पड़ोस में स्थित मेरी दुकान पर तोड़फोड़ की गई है, लेकिन मैं चुप्पी साधे घर के अंदर दुबका रहा।
हृदय दास आगे बताते हैं- घरों पर पत्थर बरस रहे थे। बाहर लोग मारे-पीटे जा रहे थे। मेरा भाई हरगोविंद और भतीजा चंदन भी छिपने की कोशिश कर रहे थे कि भीड़ की नजर उन पर जा पड़ी। उन्हें जबरन घसीटकर सड़क पर गिरा दिया गया। डंडों, लाठियों, तलवारों से जब उनका मन नहीं भरा, तो उनके चेहरे ईंट से कुचल दिए गए। उपद्रवी जाते-जाते धमकी दे गए- अब अगर लौटकर आए, तो साफ कर दिए जाओगे। देखते हैं, प्रशासन से कौन माई का लाल तुम्हें बचाने आता है!
थर्राती सुचरिता सरकार हाथ जोड़कर कहती हैं कि अब हम कभी लौटकर वहां नहीं जाएंगे। ऐसी बहुत सी दास्तानें मुर्शिदाबाद, 24 परगना और आस-पास के जिलों में बिखरी पड़ी हैं। इन पीड़ितों का एक ही सवाल है कि समय रहते हमारी रक्षा के लिए कोई क्यों नहीं आया? उनका वक्फ कानून से कोई वास्ता न था। वक्फ क्या है और उसकी रीति-नीति में बदलाव क्यों जरूरी या गैर-जरूरी हैं, इससे वे अनजान हैं। मुझे लगता है कि वक्फ और उसके नए कानून को लेकर बलवाई भी इतने ही नावाकिफ रहे होंगे। इसके बावजूद उन्होंने अपने पड़ोसियों के रक्त से हाथ रंगे। क्यों?
सवाल जायज है, लेकिन जिन पर रक्षा की जिम्मेदारी है, वे राजनीति का खेल खेलने में व्यस्त हैं। ‘लौह महिला’ ममता बनर्जी इस सूबे की मुख्यमंत्री हैं। सोमवार को एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने पत्रकारों से कहा कि देश में कानून हाथ में लेने का किसी को अधिकार नहीं। वह बजा फरमाती हैं, लेकिन अब जब कानून हाथ में लिया जा चुका है, तब उनकी सरकार इसके दोषियों से कैसे निपटेगी? वह जानती हैं, यह काम आसान नहीं है।
दरअसल, पश्चिम बंगाल के कुछ खास हिस्सों में सांप्रदायिकता का कोढ़ बरसों से पनप रहा था, अब उसके फफोले फूट चले हैं। दंगाई यहां के रहने वाले हैं या कहीं बाहर से आए, पर यह तय है कि वे जानते हैं कि हमारे वोट कीमती हैं और वे उसकी कीमत वसूलना चाहते हैं। भाजपा के नेता शुभेंदु अधिकारी, जो कभी ममता बनर्जी के लेफ्टिनेंट हुआ करते थे, का दावा है कि अशांति से निपटने में राज्य सरकार अक्षम है। इसे बर्खास्त किया जाना चाहिए। इसके जवाब में तृणमूल कांग्रेस के नेता कुणाल घोष आरोप लगाते हैं कि मुर्शिदाबाद की हिंसा के पीछे केंद्रीय एजेंसियों और कुछ पार्टियों की मिलीभगत है।
अफसोस, बरसों से जारी इस खेल में हर बार सिर्फ शोषक और शोषित के चेहरे बदलते हैं, पर सियासी नेताओं के बयान एक जैसे रहते हैं। भरोसा न हो, तो पिछले 50 साल की बड़ी घटनाओं और विभाजनों पर नजर डाल देखिए। 1970 के अंत और 80 के दशक की शुरुआत असम में हिंदीभाषियों पर अत्याचारों से हुई थी। उस वक्त वहां से बड़ी संख्या में लोगों को पलायन करना पड़ा था।
उसी दौरान आतंकग्रस्त पंजाब से भी तमाम हिंदुओं को भागना पड़ा। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नवंबर 1984 में जो दंगे हुए, उसमें सिखों की शामत आई थी। उत्तर प्रदेश में मलियाना और बिहार में भागलपुर जैसे कांड मुसलमानों पर भारी पड़े थे। भागलपुर कांड के बाद वहां से रेशम के कई कारीगरों ने जो रुखसती ली, उसके बाद वे लौटे ही नहीं। 1990 का दशक कश्मीरी पंडितों की शामत लेकर आया था। यह हत्भागी सूची लंबी है।
इस शताब्दी के शुरुआती दो दशकों में हालात सुखद तौर पर सुधरे जरूर, लेकिन पिछले बरस मणिपुर की हिंसा ने पुराने जख्म फिर हरे कर दिए। यहां घर छोड़ने वालों में ज्यादातर ईसाई थे। जरा गौर करें। हिंसा की इन जलील घटनाओं में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सभी प्रभावित हुए। कहीं वे शोषक थे, कहीं शोषित। साफ है, यह पलायन धर्म से अधिक बहुसंख्यावादी प्रवृत्ति का मामला था, मजहब का तो बस इस्तेमाल किया गया।
एक पत्रकार के नाते मैं इनमें से अधिकांश का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं। पहले इस बात का संतोष रहता था कि कुछ समय गुजर जाने के बाद हालात सम्हल जाते थे। ऐसा लगता था कि हिन्दुस्तानीयत उस दरिया की तरह है, जिसके बहाव को कोई तलवार से काटने की कोशिश करे, तो पल भर में ही जलधार पूर्ववत हो जाती है, लेकिन पिछले कुछ बरसों से हमारे जीवन में सोशल मीडिया की बढ़ती दखल ने हालात बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है।
इस दौर में अलगाववादियों, अफवाहबाजों और अनर्थकारियों की बन आई है। हमारे राजनेता भी इन अंगारों पर तरह-तरह से घी डालने को उत्सुक रहते हैं। सिर्फ सांप्रदायिकता ही नहीं, क्षेत्रवाद और भाषा को अलगाव की वजह बनाया जा रह है। जो लोग कभी देश के लिए मर-मिटने को तत्पर रहते थे, वे आज इन मुद्दों पर टकराते नजर आते हैं। सवाल उठता है, हम एक हिन्दुस्तान में कितने हिन्दुस्तान बनाना चाहते हैं?
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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