क्या है गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा, क्यों पाकिस्तान को बचाने के लिए आगे आ जाता है अमेरिका? समझिए
पाकिस्तान अमेरिका के लिए एक रणनीतिक मोहरा है, जिसे वह न तो पूरी तरह छोड़ना चाहता है और न ही भारत के साथ अपने बढ़ते रिश्तों को कमजोर करना चाहता है। लेकिन क्यों? विस्तार से समझिए।

भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना इन दोनों देशों का स्वतंत्र अस्तित्व। 1947 में भारत के विभाजन के बाद से कश्मीर विवाद, सीमा संघर्ष, और आतंकवाद जैसे मुद्दों ने दोनों देशों के संबंधों को लगातार तनावपूर्ण बनाए रखा है। हाल के वर्षों में, खासकर जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले और उसके बाद भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे सटीक सैन्य हमलों ने इस तनाव को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है। इन घटनाक्रमों के बीच एक सवाल बार-बार उठता है: जब भी भारत पाकिस्तान को निर्णायक जवाब देने की स्थिति में होता है, अमेरिका क्यों हस्तक्षेप करता है? क्या इसके पीछे अमेरिका का पाकिस्तान को गैर-नाटो प्रमुख सहयोगी का दर्जा एक अहम भूमिका निभाता है? आइए विस्तार से समझते हैं।
भारत-पाकिस्तान संबंध और अमेरिका की भूमिका
भारत और पाकिस्तान के बीच 1947, 1965, 1971, और 1999 में चार बड़े युद्ध और कई छोटे-बड़े सैन्य टकराव हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश कश्मीर विवाद से जुड़े रहे हैं। 1947 के पहले कश्मीर युद्ध में पाकिस्तान समर्थित कबायलियों ने कश्मीर पर हमला किया, जिसके जवाब में भारत ने सैन्य कार्रवाई की और पाक समर्थिक आतंकियों को खदेड़ दिया। 1971 का युद्ध भारत के लिए निर्णायक रहा, जब भारतीय सेना की मदद से बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) ने स्वतंत्रता हासिल की। इस युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया था। अमेरिकी नौसेना की सातवीं फ्लीट को बंगाल की खाड़ी में तैनात किया गया था। इसमें परमाणु-सक्षम विमानवाहक पोत ‘एंटरप्राइज’ शामिल था। हालांकि, सोवियत संघ की चेतावनी और भारत की कूटनीतिक-सैन्य ताकत ने अमेरिका को हस्तक्षेप से रोक दिया।
1999 के कारगिल युद्ध में अमेरिका ने तटस्थ रुख अपनाते हुए दोनों देशों से तनाव कम करने की अपील की, लेकिन उसने पाकिस्तान पर नियंत्रण रेखा (LoC) से अपनी सेना हटाने का दबाव डाला। 2016 के उरी हमले और 2019 के पुलवामा हमले के बाद भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट एयरस्ट्राइक जैसे कदम उठाए, जिनमें अमेरिका ने भारत के आतंकवाद-विरोधी रुख का समर्थन तो किया, लेकिन साथ ही तनाव कम करने की सलाह भी दी।
2025 में पहलगाम हमले के बाद भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत पाकिस्तान और PoK में जैश-ए-मोहम्मद (JeM) और लश्कर-ए-तैयबा (LeT) जैसे आतंकी संगठनों के 9 ठिकानों पर मिसाइल हमले किए। भारत ने स्पष्ट किया कि ये हमले सटीक और आतंकवादी ठिकानों तक सीमित थे। अमेरिका ने इस बार भी आतंकवाद के खिलाफ भारत के रुख का समर्थन तो किया लेकिन सीधे तौर पर पाकिस्तान को जिम्मेदार नहीं ठहराया। अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता टैमी ब्रूस ने दोनों देशों से संयम बरतने और बातचीत को प्राथमिकता देने की अपील की। इस पूरे घटनाक्रम में अमेरिका लगातार भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू से तौलता रहा।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद अमेरिकी मध्यस्थता
भारत द्वारा 6-7 मई को पाकिस्तान और पीओके में आतंकी ठिकानों पर किए गए "ऑपरेशन सिंदूर" के बाद उपजे तनाव को कम करने में अमेरिका ने अहम मध्यस्थता निभाई। पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में भारत की इस कार्रवाई के बाद दोनों देशों में सैन्य तनाव बढ़ गया था। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 10 मई को युद्धविराम की घोषणा की, जिसमें उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस और विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित दोनों देशों के नेताओं से बातचीत की। अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता टैमी ब्रूस ने कहा कि यह स्थिति संवेदनशील है, और संवाद को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। भारत ने इस मध्यस्थता को द्विपक्षीय समझौता माना, लेकिन कुछ सोशल मीडिया पोस्ट में दावा किया गया कि अमेरिकी दबाव ने ऑपरेशन को रोकने में भूमिका निभाई।
गैर-नाटो प्रमुख सहयोगी दर्जा: क्या है यह?
गैर-नाटो प्रमुख सहयोगी का दर्जा अमेरिकी सरकार द्वारा उन देशों को दिया जाता है, जो नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) के सदस्य नहीं हैं, लेकिन अमेरिका के साथ रणनीतिक और सैन्य सहयोग रखते हैं। यह दर्जा 1987 में शुरू किया गया था और इसके तहत शामिल देशों को कई लाभ मिलते हैं।
सैन्य सहयोग: रक्षा अनुसंधान, आतंकवाद-विरोधी अभ्यास, और सैन्य उपकरणों की प्राथमिकता आधार पर आपूर्ति।
आर्थिक लाभ: कुछ रक्षा उपकरणों की खरीद के लिए अमेरिकी वित्तीय सहायता।
रणनीतिक साझेदारी: अमेरिकी सशस्त्र बलों के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास और खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान।
पाकिस्तान को 2004 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने यह दर्जा दिया था, जिसका मुख्य उद्देश्य अफगानिस्तान में तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ ‘वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ में पाकिस्तान का सहयोग सुनिश्चित करना था। ऑस्ट्रेलिया, मिस्र, इजरायल, जापान, दक्षिण कोरिया, और हाल ही में कतर और कोलंबिया जैसे देश भी इस सूची में शामिल हैं।
हालांकि, यह दर्जा किसी औपचारिक रक्षा समझौते की गारंटी नहीं देता। इसका मतलब यह नहीं कि अमेरिका हर स्थिति में पाकिस्तान की रक्षा के लिए सैन्य हस्तक्षेप करेगा। फिर भी, यह दर्जा पाकिस्तान को अमेरिका की सामरिक प्राथमिकताओं में एक विशेष स्थान देता है।
पहलगाम हमला और ऑपरेशन सिंदूर
22 अप्रैल, 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 लोग मारे गए, जिसमें आम नागरिक शामिल थे। भारत ने इस हमले के लिए पाकिस्तान समर्थित जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा को जिम्मेदार ठहराया। इसके जवाब में भारत ने 7 मई, 2025 को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया, जिसमें पाकिस्तान के बहावलपुर और मुरीदके जैसे इलाकों में आतंकी ठिकानों पर मिसाइल हमले किए गए। इन हमलों में जैश प्रमुख मसूद अजहर के 10 पारिवारिक सदस्यों और कई आतंकियों के मारे जाने की पुष्टि हुई।
भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “हमारी कार्रवाई केंद्रित और नपी-तुली थी। हमने केवल आतंकी ढांचों को निशाना बनाया, न कि पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों को।” भारतीय सेना ने यह भी साफ किया कि हमले में नीलम-झेलम बांध जैसे बुनियादी ढांचों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा, जैसा कि पाकिस्तान ने दावा किया था।
पाकिस्तान ने इन हमलों को “नागरिकों पर हमला” करार देते हुए भारत के दावों को खारिज किया और संयुक्त जांच की मांग की। हालांकि, भारत ने इस मांग को “समय खींचने की रणनीति” बताकर ठुकरा दिया। इस बीच, अमेरिका ने भारत के आतंकवाद-विरोधी कदमों का समर्थन किया, लेकिन साथ ही दोनों देशों से तनाव कम करने की अपील की।
अमेरिका क्यों बचाता है पाकिस्तान? भू-राजनीतिक हित और आतंकवाद का खेल
अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति रुख समझने के लिए हमें शीत युद्ध से लेकर आज तक की उसकी नीतियों को देखना होगा। अमेरिका के लिए पाकिस्तान दक्षिण एशिया में एक रणनीतिक साझेदार रहा है, और इसके पीछे कई कारण हैं।
शीत युद्ध और साम्यवाद विरोध: 1950 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान को SEATO और CENTO जैसे सैन्य गठबंधनों में शामिल किया ताकि सोवियत संघ के प्रभाव को रोका जा सके। पाकिस्तान ने इस दौरान अमेरिका को सैन्य अड्डे और खुफिया सहयोग प्रदान किया।
अफगानिस्तान में भूमिका: 1980 के दशक में सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान पाकिस्तान अमेरिका का प्रमुख सहयोगी था। अमेरिका ने पाकिस्तान के जरिए मुजाहिदीन को हथियार और फंडिंग प्रदान की। 2001 के 9/11 हमलों के बाद पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ अमेरिकी अभियान में सहयोग किया, हालांकि बाद में यह साबित हुआ कि पाकिस्तान ने तालिबान को छिपकर समर्थन भी दिया।
चीन के खिलाफ संतुलन: हाल के वर्षों में अमेरिका ने भारत को इंडो-पैसिफिक रणनीति में एक प्रमुख साझेदार बनाया है, खासकर चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए। हालांकि, पाकिस्तान का चीन के साथ गहरा रिश्ता (CPEC और सैन्य सहयोग) अमेरिका के लिए एक चुनौती है। अमेरिका पाकिस्तान को अपने प्रभाव क्षेत्र में रखकर यह सुनिश्चित करना चाहता है कि वह पूरी तरह चीन के पाले में न जाए।
परमाणु हथियारों का खतरा: पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं, और इसका अस्थिर राजनीतिक ढांचा अमेरिका के लिए चिंता का विषय है। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, 2025 के तनाव के दौरान अमेरिका और खाड़ी देशों ने इसीलिए दबाव बनाया क्योंकि संघर्ष का विस्तार पाकिस्तान के परमाणु भंडार तक पहुंच सकता था।
आतंकवाद का दोहरा खेल: अमेरिका ने कई बार पाकिस्तान पर आतंकवादी संगठनों को पनाह देने का आरोप लगाया है। ओसामा बिन लादेन का 2011 में पाकिस्तान के ऐबटाबाद में मिलना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। फिर भी, अमेरिका ने पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य सहायता देना जारी रखा, क्योंकि वह दक्षिण एशिया में अपनी खुफिया और सैन्य मौजूदगी के लिए पाकिस्तान पर निर्भर है।
आतंकवाद और अमेरिका का रुख
पाकिस्तान का आतंकवादी संगठनों के साथ रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन न केवल भारत के खिलाफ हमले करते हैं, बल्कि उनके वैश्विक आतंकी नेटवर्क से भी जुड़े हैं। 2025 में भारत ने खुलासा किया कि बहावलपुर में जैश का केंद्र नाटो के अफगानिस्तान में छोड़े गए हथियारों का अड्डा बन चुका था, जिसका इस्तेमाल हमास जैसे संगठनों के साथ तस्करी के लिए हो रहा था।
अमेरिका ने इन खुलासों के बाद भी कोई ठोस कार्रवाई (जैसे MNNA दर्जा वापस लेना) नहीं की। इसका कारण यह है कि अमेरिका के लिए पाकिस्तान एक “जरूरी बुराई” है। पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति, अफगानिस्तान और ईरान से उसकी सीमाएं, और उसकी सैन्य खुफिया जानकारी अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण हैं।
भारत का रुख: आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस
भारत ने बार-बार कहा है कि वह आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाएगा। 2016 में सिंधु जल संधि की समीक्षा और 2025 में इसके निलंबन की धमकी ने पाकिस्तान को बैकफुट पर ला दिया। भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति भी अपनाई है। पहलगाम हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ व्यापारिक संबंध खत्म कर दिए और कूटनीतिक दबाव बढ़ाया।
भारत के इस सख्त रुख को अमेरिका, रूस, इजरायल, और खाड़ी देशों (UAE, सऊदी अरब) का समर्थन मिला है। क्वाड (QUAD) और अन्य मंचों पर भारत की रणनीतिक स्थिति मजबूत हुई है। फिर भी, भारत इस बात से वाकिफ है कि अमेरिका का हस्तक्षेप तनाव को सीमित करने के लिए हो सकता है, न कि पाकिस्तान को पूरी तरह दंडित करने के लिए।
क्या बदलेगा अमेरिका का रुख?
अमेरिका का पाकिस्तान को गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा और उसका बार-बार हस्तक्षेप दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में उसके हितों को दर्शाता है। पाकिस्तान अमेरिका के लिए एक रणनीतिक मोहरा है, जिसे वह न तो पूरी तरह छोड़ना चाहता है और न ही भारत के साथ अपने बढ़ते रिश्तों को कमजोर करना चाहता है। 2025 के घटनाक्रमों ने यह साफ कर दिया है कि अमेरिका भारत के आतंकवाद-विरोधी रुख का समर्थन करता है, लेकिन वह युद्ध जैसे हालात से बचने के लिए मध्यस्थता को प्राथमिकता देगा। अंत में, यह सवाल बना रहता है: क्या अमेरिका कभी पाकिस्तान के आतंकवाद समर्थन के खिलाफ निर्णायक कदम उठाएगा, या वह अपने सामरिक हितों के लिए इस दोहरे खेल को जारी रखेगा? समय और भारत की कूटनीति ही इसका जवाब देगी।
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