पोप फ्रांसिस ने 88 साल की उम्र में वेटिकन सिटी में अंतिम सांस ली। उनकी जिंदगी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं थी। अर्जेंटीना की सड़कों से वेटिकन के सिंहासन तक पहुंचने वाले इस शख्स की जिंदगी काफी कठिनाइयों भरी है।
एक वो वक्त था जब वह नाइट क्लबों में बाउंसर की नौकरी करते थे, फर्श साफ करते थे और लैब में खाद्य पदार्थों पर काम करते थे। और फिर एक ऐसा भी वक्त आया जब पूरी दुनिया उन्हें 'पोप फ्रांसिस' कहने लगी।
अर्जेंटीना के बुएनोस आयर्स में 1936 में जन्मे जॉर्ज मारियो बेर्गोलियो ने 2013 में इतिहास रचते हुए रोम के संत पेत्रुस की कुर्सी संभाली। वह पहले लैटिन अमेरिकी जो पोप बने। पोप बनने से पहले की उनकी जिंदगी संघर्षों से भरी रही।
बचपन में एक गंभीर बीमारी के चलते उनके फेफड़े का एक हिस्सा निकालना पड़ा। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और 1958 में सोसायटी ऑफ जेसुस में शामिल हो गए, जिससे उनके परिवार को काफी हैरानी हुई।
पादरी बनने के बाद, बेर्गोलियो ने बुएनोस आयर्स के सबसे अपराध-ग्रस्त इलाकों में काम किया, जहां उन्होंने मानव तस्करी और नशाखोरी जैसी समस्याओं के खिलाफ जमीन पर उतरकर काम किया।
उनके साथ काम करने वाले लुकास शारेरे ने 2015 में याद करते हुए कहा था, "वो कहते थे कि चर्च को एक युद्धक्षेत्र के अस्पताल जैसा होना चाहिए, जहां जिंदगी से घायल लोगों का इलाज हो सके।"
2001 में जब पोप जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें कॉर्डिनल बनाया, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यही इंसान एक दिन पोप की कुर्सी पर बैठेगा। 2013 में जब उन्हें पोप फ्रांसिस बनाया गया तो उन्होंने चर्च को एक नई दिशा दी।
पोप फ्रांसिस ने LGBTQ अधिकारों पर खुलकर बोलने से लेकर पर्यावरण की रक्षा, कोविड वैक्सीनेशन के लिए अपील और महिलाओं की भूमिका बढ़ाने तक पर जोर दिया।
मौत से एक दिन पहले उन्होंने अमेरिका के उपराष्ट्रपति से मुलाकात की और ईस्टर का पारंपरिक संदेश भी दिया। वेटिकन ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा, "उन्होंने हमें सिखाया कि कैसे सच्चे मसीही बनकर गरीबों और हाशिए पर खड़े लोगों की सेवा करें।"