बोले प्रयागराज : शक्तिपीठों को जाने वाली चुनरी की रंगत पड़ रही फीकी
Gangapar News - लालगोपालगंज का चुनरी कारोबार संकट में है। समय के साथ पारंपरिक कारीगरों को मुनाफा कम मिलने के कारण कई परिवारों ने यह व्यवसाय छोड़ दिया है। मशीनों से बने उत्पादों की बढ़ती मांग ने हाथ से बनी चुनरी की...
लालगोपालगंज के चुनरी कारोबार पर संकट एक समय था जब लालगोपालगंज की बनी चुनरी से मैहर देवी, शीतला देवी और विंध्यवासिनी माई का दरबार सजता था। सूती धागों से बना कलावा मध्य प्रदेश के लोगों के हाथों में भी खूब बांधा जाता था। पर समय ने ऐसी करवट बदली कि अब यहां का यह पुश्तैनी कारोबार अपनी रंगत खोने लगा है। चुनरी और कलावा से जुड़े कारीगर अब मेहनत और लागत के सापेक्ष मुनाफा नहीं मिलने से इस पेशे से दूरी बना रहे हैं। हालत यह है कि पांच पीढ़ी से यही कार्य करने वाले कई परिवार इस व्यवसाय से तौबा कर चुके हैं। हालांकि इस पुश्तैनी कारोबार को छोड़कर लोगों को आज भी पछतावा है। व्यापार की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण कस्बे में चुनरी का कारोबार छोड़ने वाले परिवारों की संख्या आधा दर्जन से अधिक हो गई है। अब वह दूसरे धंधे की ओर रुख कर रहे हैं। लालगोपालगंज में चुनरी और कलावा बनाने के व्यवसाय से कभी लालगोपालगंज की पहचान हुआ करती थी। प्रयागराज-लखनऊ हाईवे से गुजरते समय सड़कों के दोनों तरफ जमीन पर बिछाई गई और डोरी पर टांगी गई चुनरी बरबस ही लोगों का ध्यान अपने तरफ खींच लेती थी। 60 के दशक में शुरू हुए इस कारोबार ने अगले 40 साल तक खूब तरक्की की। नतीजा यह हुआ कि दर्जनों परिवार इस व्यवसाय से जुड़ते चले गए। 2015 तक यह कारोबार खूब फला-फूला। इसके बाद के सालों में इस धंधे से जुड़े लोगों के मुनाफे में गिरावट आना शुरू हो गई, जो अब तक जारी है।
कभी पूरी तरह हाथ से बनाई जाने वाली चुनरी पर तकनीक की मार भी पड़ी है। हाथ से बनने वाली चुनरी में परंपरा गत कुछ डिजाइन वाली चुनरी के सापेक्ष बाजार में जब अत्याधुनिक मशीनों में बनी चुनरी आई तो इसकी मांग कम होने लगी। मांग घटने के कारण मुनाफे में भी काफी गिरावट देखने को मिली। मांग कम होने से उत्पादन कम होने लगा और इसका असर सीधे कारोबार पर पड़ा। नतीजतन लोगों ने इस व्यवसाय से दूरी बनाना प्रारंभ कर दिया। पूर्वजों की मानें तो कारीगर मनीष व पप्पू बताते हैं कि जब मोहम्मद ताहिर के पिताजी इस कारोबार को करते थे तब यहां की चुनरी की सप्लाई जम्मू में स्थित माता वैष्णो देवी से लेकर महाराष्ट्र के मुंबई में स्थित मुंबा देवी समेत कई शक्तिपीठों में जाया करती थी। कभी-कभी हालात ऐसे बन जाते थे की मांग के सापेक्ष सप्लाई भी नहीं हो पाती थी। यह वह दौर था जब इस पेशे का मशीनरी कारण नहीं हुआ था। सूत काटने से लेकर कपड़ा तैयार करने, छपाई, कटाई, बंडल बनाने का कार्य हाथों से ही किया जाता था। कारीगर व निर्माता फहीम के पिताजी बताते थे कि मांग बढ़ने पर कारीगर बढ़ाने पढ़ते थे और यह कार्य दिन-रात 24 घंटे चलता था। तब जाकर सप्लाई पूरी हो पाती थी।
तीन गांव के 150 से अधिक परिवारों का है पुश्तैनी कारोबार
लालगोपालगंज कस्बे में चुनरी बनाने वाले परिवारों की संख्या डेढ़ सौ से अधिक है। शुरुआत के दो चार परिवार के लोगों ने ही शुरू किया था। पर समय के साथ लोग इस व्यवसाय से जुड़ते गए और यहां की बनी चुनरी और कलावा ने पूरे भारत में प्रसिद्धि पाई। मौजूदा समय में लालगोपालगंज कस्बे के मोहल्ला खानजहांनपुर, आह्लादगंज व इब्राहिमपुर के लोग इस रोजगार से जुड़कर अपना जीविकोपार्जन कर रहे हैं। लालगोपालगंज में बनने वाली चुनरी और कलावा का धंधा मंदा होने का कारण जीएसटी और महंगाई भी है। वैसे तो मशीनों की अपेक्षा हाथ से बनाई जाने वाली चुनरी और कलावा पर लागत काफी आती है। मशीनों की अपेक्षा उत्पादन भी काम होता है तो दूसरी तरफ महंगाई और जीएसटी की मार भी इस रोजगार पर पड़ी है। हाथ से बनने वाली चुनरी की लागत मशीनों से बनने वाली चुनरी की अपेक्षा लगभग दुगना होती है। चुनरी निर्माता फहीम के मुताबिक हाथ से बनाई जाने वाली एक चुनरी की लागत (छोटी चुनरी चढ़ावा वाली) 2 रुपये और बड़ी चुनरी की लागत चार रुपये जबकि राम नामी चुनरी की लागत 19 से 20 रुपये के आसपास बैठती है। बताया कि एक डेढ रुपये मुनाफा में थोक बिक्री कर दी जाती है। जबकि अलग-अलग बाजारों में इसकी कीमत अधिक हो जाती है। इसके माल ढुलाई का भाड़ा भी शामिल हो जाता है।
सरकारों से नहीं मिला प्रोत्साहन
लगभग छह दशक तक लोगों की पहली पसंद रही लालगोपालगंज की चुनरी ने जिस तरह से देश में अपनी पहचान बनाई उसके सापेक्ष इस कारोबार को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारों ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस से लेकर सपा, बसपा और आज की भाजपा सरकार के द्वारा भी इस कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए ना तो कोई प्रोत्साहन दिया गया और ना ही किसी योजना का संचालन किया गया। नतीजा यह हुआ कि रंग बिरंगी चुनरी के इस कारोबार की रंगत फीकी पड़ती गई। ऊपर से जीएसटी की मार ने इस कारोबार को और गर्त में धकेल दिया। मौजूदा समय में चुनरी व कलावा बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चे सूट पर 5% जीएसटी वसूली जा रही है।
कुछ ऐसा होता है रंग-बिरंगी चुनरी का कारोबार
लालगोपालगंज। चुनरी व कलावा बनाने में कच्चा सूट का इस्तेमाल किया जाता है जो भिवंडी, मालेगांव व अन्य जगहों से लाया जाता है। उसके बाद महिला व पुरुष मजदूर मिलकर सूत निकालते हैं और उसमें गांठ मारते हैं। पक्की चरही में भरे पानी में भिगोया जाता है। उसके बाद पानी निचोड़ लिया जाता है। फिर एक ड्रम में पानी और कलर डालकर उबाला जाता है। खूब उबल जाने के बाद उसमें कच्चे सूट से तैयार किए गए सामग्री को भिगोकर रंग चढ़ाया जाता है। रंग चढ़ने के बाद पुनः निचोड़कर धूप में सुखाते हैं। सूख जाने के बाद चुनरी व कलावा को पुल्ला बनाकर नापतौल करते हैं। उसके बाद बंडल बनाकर सप्लाई की जाती है।
सुझाव
-कच्चे सूत पर लगने वाली जीएसटी खत्म की जाए
- प्रदेश की योगी सरकार इस व्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए निर्माता को प्रोत्साहन दें और कारीगर को प्रशिक्षित कराएं।
- लालगोपालगंज की चुनरी और कलवा को विशिष्ट पहचान दिलाने के लिए ओडीओपी की योजना में शामिल किया जाए।
- कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सरकार आवश्यक कदम उठाए।
- हस्त निर्मित कारोबार का मशीनरी कारण किया जाए
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हमारी भी सुने
पूर्वजों ने छोटे पैमाने पर कारोबार शुरू किया था। हम लोगों ने बड़े पैमाने पर ले जाने का कार्य किया लेकिन महंगाई के कारण व्यवसाय छोड़ दिया। हमारे तीन बेटे हैं। इस समय कोई भी इस कार्य को नहीं कर रहा है।
-हाजी मोहम्मद साबिर, खानजहांपुर, लालगोपालगंज
हमारे पूर्वजों के जमाने से कलावा ,चुनरी का कारोबार चला आ रहा है। इस मोहल्ले में तकरीबन सैकड़ो परिवार इस कारोबार को करके परिवार चला रहे हैं।
-फहीमुद्दीन, सभासद पति वार्ड नंबर 10, नगरपंचायत, लालगोपालगंज
पूर्वज की विरासत को आगे बढ़ाते हुए 40 वर्षों से स्वयं अपने हाथों से चुनरी व कलावा तैयार कर रहे हैं। लागत व मेहनत के सापेक्ष आमदनी अब नहीं रही।
-अब्दुल मतीन, अहलादगंज, लालगोपालगंज
पांच पीढ़ियों से यह कारोबार होता चला रहा है। विरासत को संजोए हुए हम तीन भाइयों का परिवार भी इसी काम से जुड़े हैं।
-सलाउद्दीन उर्फ़ मन्नू, अहलादगंज, लालगोपालगंज
पीढ़ी दर पीढ़ी इस कार्य को करते चले आ रहे हैं।हम लोग भी इसी कार्य में लगकर विभिन्न तीर्थ स्थलों तक कलावा चुनरी पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं।
-निजामुद्दीन, अहलादगंज, लालगोपालगंज
अब इस कार्य में लागत ज्यादा आ रही है।मुनाफा कम मिल रहा है। लेकिन पूर्वजों के इस व्यवसाय को आगे बढ़ाया जा रहा है।
-शकील अहमद, अहलादगंज, लालगोपालगंज
महंगाई बढ़ती जा रही है। लागत के अनुसार मजदूरों को मजदूरी देना भारी पड़ रहा है। सरकार द्वारा कोई अनुदान भी नहीं मिल पा रहा है।
-अब्दुल रशीद, अहलादगंज, लालगोपालगंज
कच्चे सूत में जीएसटी की मार से धंधा कमजोर हो गया है। इस धंधे के प्रति मोह भंग हो रहा है। सरकार को इस पर विचार करने की जरूरत है।
-लईक अहमद, अहलादगंज नियारपुर, लालगोपालगंज
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