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अराजक मन को जरूरत है साधने की

मन एक सेतु की भांति है। इसे पार करना है तो दूसरे किनारे को प्राप्त करना ही होगा। लेकिन तुमने तो सेतु पर ही घर बना लिया है। तुमने सेतु पर रहना शुरू कर दिया है। तुम मन के साथ जुड़ गए हो। तुम पड़े हो जाल में, क्योंकि तुम कहीं नहीं हो। इस अराजक मन को साधे बिना तुम कहीं नहीं पहुंच सकते।

Saumya Tiwari लाइव हिन्दुस्तानTue, 29 April 2025 08:45 AM
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अराजक मन को जरूरत है साधने की

दुनिया कभी नहीं रही अराजकता और अव्यवस्था में, केवल मन रहा है। संसार तो परम रूप से व्यवस्थित है। यहां कोई अव्यवस्था नहीं, सुव्यवस्था है। केवल मन ही सदा अव्यवस्था में रहता है और सदा अव्यवस्था में ही रहेगा।

कुछ बातें समझ लेनी होंगी। मन की प्रकृति ही होती है अराजकता में होने की। क्योंकि यह एक अस्थायी अवस्था है। मन तो मात्र एक संक्रमण है, स्वभाव से परम स्वभाव तक का। कोई अस्थायी अवस्था नहीं हो सकती है सुव्यवस्थित। कैसे हो सकती है वह सुव्यवस्था में? जब तुम बढ़ते हो एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक, तो बीच की स्थिति अव्यवस्था में, अराजकता में ही रहेगी।

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कोई उपाय नहीं है मन को सुव्यवस्थित कर देने का। जब तुम स्वभाव के पार हो रहे होते हो और परम स्वभाव में बढ़ रहे होते हो, बाह्य से अंतस में परिवर्तित हो रहे होते हो, भौतिक से अध्यात्म में परिवर्तित हो रहे होते हो, तो दोनों में एक अंतराल बनेगा ही। जबकि तुम कहीं नहीं हो, जबकि तुम इस संसार से संबंध नहीं रखते और अभी भी तुम दूसरे से संबंधित नहीं होते हो। यही है अराजकता- यह संसार छूट गया है और मृत्यु अभी भी नहीं मिली। मध्य में तो, हर चीज एक अव्यवस्था होती है। और यदि तुम बने रहते हो मध्य में, तो तुम सदा ही अराजकता में रहोगे। मन के पार होना ही होगा।

मन एक सेतु की भांति है, इसे पार करना है। दूसरे किनारे को प्राप्त करना ही है। और तुमने तो सेतु पर ही घर बना लिया है। तुमने सेतु पर रहना शुरू कर दिया है। तुम मन के साथ जुड़ गए हो। तुम पड़े हो जाल में, क्योंकि तुम कहीं नहीं हो। कैसे तुम कहीं न होने वाली जमीन पर व्यवस्थित हो सकते हो?

अतीत तुम्हें निमंत्रित करता ही जाएगाः ‘वापस आओ, वापस लौट आओ, उस किनारे पर जिसे कि तुम छोड़ चुके हो।’ और वापस लौटना होता नहीं, क्योंकि तुम समय में पीछे की ओर बढ़ नहीं सकते। बढ़ना केवल एक ही है, वह है आगे की ओर- आगे। अतीत तुम पर गहरा प्रभाव बनाए रहता है; क्योंकि तुम होते हो सेतु पर। अतीत भी सेतु पर होने से तो बेहतर लगता है। एक छोटी झोपड़ी भी ज्यादा ठीक होती है, सेतु पर होने की अपेक्षा। कम-से-कम वह एक घर तो है; तुम सड़क पर नहीं होते।

परमात्मा कोई विषय-वस्तु नहीं हो सकता। वह तुम्हारे अपने अस्तित्व की गहनतम गहराई है। कैसे तुम देख सकते हो उसे? वह किनारा जो कि तुम छोड़ चुके बाहरी संसार में होता है, वह किनारा जिसकी ओर तुम पहुंच रहे हो वह अंतर्जगत है। जो किनारा तुम छोड़ चुके, वह है वस्तुपरक; और जिस किनारे की ओर तुम बढ़ रहे हो, वह आत्मपरक है। यह तुम्हारी स्व-सत्ता की ही आत्मपरकता है। तुम उसे विषय-वस्तु नहीं बना सकते। तुम नहीं देख सकते हो उसे। वह ऐसा कुछ नहीं, जिसे कि बदला जा सके विषय-वस्तु में, जिसे कि तुम देख सको। वह द्रष्टा है, दृश्य नहीं।

मन वापस नहीं जा सकता और नहीं समझ सकता कि आगे कहां जाए। वह अराजकता में रहता है, सदा उखड़ा हुआ, सदा सरकता हुआ, न जानते हुए कि कहां सरक रहा है; हमेशा आगे चलता हुआ। मन है एक तलाश। जब लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है, केवल तभी तिरोहित होती है तलाश।

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जब तुम संसार को देखते हो तो जरा ध्यान रखना कि वह एक सुव्यवस्था है। प्रतिदिन सुबह सूरज उगता है बिना किसी भूल के, अचूक। दिन के पीछे रात आती है और फिर दिन आता है रात के पीछे। रात्रि के आकाश में लाखों-करोड़ों सितारे अपने मार्ग पर बढ़ते रहते हैं। मौसम एक-दूसरे के पीछे आते रहते हैं। प्रकृति सुस्थिर है, परमात्मा में भी कोई विकास नहीं है। प्रकृति प्रसन्न है अपनी अचेतना में, और परमात्मा आनंदमय है अपनी चेतना में।

दोनों के बीच तुम होते हो मुसीबत में। न तो तुम होते हो अचेतन, और न ही तुम होते हो चेतन। तुम तो बस मंडरा रहे होते हो प्रेत की भांति। तुम किसी किनारे से नहीं जुड़े होते। बिना किन्हीं आधारों के, बिना किसी घर के, मन कैसे आराम से रह सकता है? वह खोजता है, ढूंढ़ता रहता है- कुछ नहीं ढूंढ़ पाता। तब तुम ज्यादा और ज्यादा थके, निराश और चिड़चिड़े हो जाते हो। क्या घट रहा होता है तुम्हारे अंदर? तुम एक ही लीक में पड़े हो। ऐसा चलता रहेगा, जब तक कि तुम ऐसा कुछ न सीख जाओ जो कि तुम्हें निर्विचार कर सकता हो, जो मन को खाली कर सकता हो। इसी सब को अपने अंतर्गत लेता है ध्यान।

ध्यान एक उपाय है- तुम्हारे अंतस को निर्विचार कर देने का, मन को गिरा देने का, सेतु पर से सरकने का, अज्ञात में बढ़ने का और रहस्य में छलांग लगा देने का। इसलिए मैं कहता हूं: हिसाब-किताब मत लगाना, क्योंकि वह मन की चीज है। इसीलिए मैं कहता हूं कि आध्यात्मिक खोज सीढ़ी-दर-सीढ़ी नहीं होती, आध्यात्मिक खोज है- एक अचानक छलांग। वह साहस है, वह कोई हिसाब-किताब नहीं। वह बुद्धि की चीज नहीं, क्योंकि बुद्धि है मन का हिस्सा। वह हृदय की अधिक है।