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ध्यान से ही जाग्रत होता है आत्मा का प्रकाश

  • Meditation: किसी भी स्थूल या दृश्यमान वस्तु को देखने के लिए आंखों की आवश्यकता होती है। लेकिन सूक्ष्म या अदृश्यमान वस्तु को देखने के लिए मनुष्य को जिस दृष्टि की जरूरत होती है, उसे चेतना या आत्मा का प्रकाश कहते हैं।

Shrishti Chaubey लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, महर्षि रमणTue, 22 April 2025 12:35 PM
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ध्यान से ही जाग्रत होता है आत्मा का प्रकाश

किसी भी स्थूल या दृश्यमान वस्तु को देखने के लिए आंखों की आवश्यकता होती है। लेकिन सूक्ष्म या अदृश्यमान वस्तु को देखने के लिए मनुष्य को जिस दृष्टि की जरूरत होती है, उसे चेतना या आत्मा का प्रकाश कहते हैं। यह प्रकाश ध्यान से ही जाग्रत होता है।

अंधकार में प्रकाश के लिए दीप

की आवश्यकता रहती है; पर सूर्योदय के बाद उस दीप की आवश्यकता नहीं रहती; सब वस्तुएं अपने आप दृष्टिगोचर हो जाती हैं और सूर्य को देखने के लिए अतिरिक्त दीप की कोई आवश्यकता नहीं रहती।

आत्मा स्वयं प्रकाशित हृदय में रहती है। प्रकाश (चैतन्य) हृदय से निकलकर बुद्धि तक पहुंचता है, जो मन का अधिष्ठान है। जगत मन के द्वारा देखा जाता है। आत्मा के प्रतिबिंबित प्रकाश से ही तुम जगत को देखते हो। मन की क्रिया द्वारा जगत दृश्यमान होता है। जब मन आत्मा से प्रकाश पाता है, तब उसे जगत का भान होता है। जब वह उससे यह प्रकाश नहीं पाता, तब उसे जगत का भान भी नहीं होता है।

यदि मन को अंदर की ओर प्रकाश के उद्गम की ओर मोड़ा जाए तो बाह्यज्ञान विनष्ट हो जाता है, और तब केवल और केवल ‘आत्म ज्ञान’ हृदय में प्रकाशित होता है।

चंद्र सूर्य के प्रकाश से जगमगाता है। सूर्य के अस्त होने पर चंद्र के प्रकाश के सहारे वस्तुओं का बोध प्राप्त किया जाता है। जब सूर्य निकल आता है, तब चंद्र की कोई आवश्यकता नहीं रहती, चाहे आकाश में उसकी थाली जैसी आकृति क्यों न बनी रहे। मन और हृदय को इसी प्रकार समझो। मन की उपयोगिता उसके प्रतिबिंबित प्रकाश में है, जो वस्तुओं को देखने के काम में आता है। अंदर की ओर फिराने पर मन स्वयं प्रकाश ज्योति के स्रोत में समा जाता है और तब उसकी स्थिति दिन में रहने वाले चंद्र की-सी हो जाती है।

अंधकार में प्रकाश के लिए दीप की आवश्यकता रहती है; पर सूर्योदय के बाद उस दीप की आवश्यकता नहीं रहती; सब वस्तुएं अपने आप दृष्टिगोचर हो जाती हैं और सूर्य को देखने के लिए अतिरिक्त दीप की कोई आवश्यकता नहीं रहती। अपनी आंखें उस स्वयं-प्रकाशित सूर्य की ओर फिराओ तो वह दिखाई पड़ता है। मन की भी यही बात है। वस्तुओं को देखने के लिए मन को आत्मा से प्रतिबिंबित प्रकाश की आवश्यकता होती है। हृदय को देखने के लिए मन को उसकी ओर मोड़ना पर्याप्त है। तब मन की कोई गणना नहीं रहती; क्योंकि हृदय स्वयं-प्रकाशित है। तुम यदि मन को बलवान बनाओ तो असीम शांति मिलेगी। उसका काल-प्रमाण चालू अभ्यास द्वारा प्राप्त मन के बल पर निर्भर है। ऐसा सबल मन ही तेज धारा में टिक सकता है। उस स्थिति में काम में लगे रहो या न रहो, धारा प्रवाह में कोई अंतर या रुकावट नहीं पड़ती। बाधा डालनेवाला कर्म नहीं है पर ‘मै कर्म करता हूं’ यह विचार ही बाधा डालता है।

जो कुछ काम करो, वह तुम्हारा नहीं है। ऐसा खयाल अपने समक्ष रखो तो पर्याप्त है। इस ध्यान के लिए आरंभ में कठिन प्रयत्न आवश्यक है। पर धीरे-धीरे यह सहज और स्थिर बन जाता है। काम अपने आप चलता रहेगा और तुम्हारी शांति भी यथावत बनी रहेगी।

ध्यान तुम्हारा सच्चा स्वभाव होना चाहिए। अब तुम उसको ‘ध्यान’ यह विशिष्ट नाम देते हो। क्योंकि तुम्हें विचलित करने वाले कई तरह के विचार सता रहे हैं। जब इन विचारों को हटा दिया जाएगा, तब तुम अकेले बाकी रह जाओगे- अर्थात विचारमुक्त ध्यानावस्था में रहोगे। यही तुम्हारा सच्चा स्वभाव है। दूसरे उन सताने वाले विचारों से मुक्त होकर तुम इसी स्वाभाविक स्थिति में पहुंचने का प्रयत्न करते हो। उन विचारों को दूर करने की क्रिया को ‘ध्यान’ कहते हैं। जब यह अभ्यास ध्यान के रूप में व्यक्त होता है, तब सच्चा स्वभाव व्यक्त होता है।

ध्यान में सब तरह के विचार उठा करते हैं, यह ठीक है। तुम्हारे अंदर जो कुछ विचार छिपे हुए हैं, उन्हें बाहर निकलना ही है। यदि वे नही निकलेंगे तो फिर उनका नाश कैसे होगा? विचार अपने आप उठा करते हैं। वे यथाक्रम विनष्ट होने के लिए ही उठते हैं। इस प्रकार विचारों के नाश होने पर मन बलवान हो जाता है। मन में शांति के साथ-साथ एक चेतनता रहती है। इसी स्थिति की प्राप्ति हमारा लक्ष्य है। वही आत्मा और आत्मा का प्रकाश है। लेकिन कई ऐसे क्षण भी आते हैं, मानो सब कुछ स्वप्न सा चल रहा हो। इसे आत्मा में ‘डुबकी’ लगाने का सही समय माना जा सकता है। तब डुबकी मारना शब्द का उपयोग यथार्थ बन जाता है। तब मन को वैसा करने के लिए अंदर की ओर चलना पड़ता है, जिससे वह बाह्य वस्तुओं की सतह के नीचे डूब जाए। परंतु चैतन्य में बाधा पहुंचाए बिना यदि शांति बनी रहे तो फिर डुबकी की क्या आवश्यकता है? यदि इस दशा को आत्मा समझकर प्राप्त न किया जाए तो वैसे प्रयत्न को डुबकी मारने की क्रिया माना जा सकता है। इस अर्थ में कहा जा सकता है कि वह दशा आत्म साक्षात्कार करने या डुबकी लगाने के उपयुक्त है।

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