वाक्-सिद्धि देने वाली, संगीत और कला की देवी हैं मातंगी
- Matangi: शास्त्रों के अनुसार देवी मातंगी काे प्रकृति की स्वामिनी देवी कहा गया है। ये स्तंभन की देवी हैं। इन्हें वाणी, कला, संगीत और तंत्र की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। इनकी पूजा से वाक्-सिद्धि और कला में उन्नति मिलती है। मातंगी देवी, माता सरस्वती का तांत्रिक रूप हैं।

वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को मातंगी जयंती मनाई जाती है। दस महाविद्याओं में नौवीं महाविद्या मातंगी की उपासना विशेष रूप से वाक्-सिद्धि के लिए की जाती है। पुरश्चर्यार्णव में इस संबंध में कहा गया है-
अक्षवक्ष्ये महादेवीं मातंगी सर्वसिद्धिदाम्। अस्याः सेवनमात्रेण वाक् सिद्धिं लभते ध्रुवम्।।
(-मैं उस महादेवी मातंगी की पूजा करता हूं, जो सर्वसिद्धि को प्रदान करती हैं। उसके केवल सेवन से ही निश्चित रूप से वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है)। देवी मातंगी का रंग गहरा नीला है। मस्तक पर अर्ध चंद्र है और त्रिनेत्र धारी हैं। इनकी चार भुजाओं में कपाल (जिसके ऊपर तोता है, जो वाणी और वाचन का प्रतीक है), वीणा, खड्ग और वेद हैं। ‘ब्रह्मयामल’ के अनुसार हनुमान और माता शबरी के गुरु ऋषि मतंग ने वर्षों तक अनेक कष्ट सहते हुए कदंब वन में कठोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या के कारण उनके नेत्रों से एक उज्ज्वल ज्योति निकली। उस ज्योति ने एक कन्या का रूप धारण कर लिया। इसी कन्या को मातंगी यानी मतंग ऋषि की पुत्री कहा गया। ऐसा भी कहा जाता है कि मतंग ऋषि ने कदंब वन के सभी जीवों को वश में करने के लिए भगवती त्रिपुरा की कठोर साधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवी त्रिपुरा ने उन्हें दर्शन दिए। उस समय देवी के नेत्र से एक ज्योति प्रकट हुई, जिसने श्याम वर्णी नारी का रूप धारण कर लिया। इन्हें ही राज-मातंगिनी कहा गया। इनके अनेक नामों में मातंगेश्वरी, सुमुखी, श्यामला, कर्ण-मातंगी, वश्य-मातंगी, चंड-मातंगी हैं। गुप्त नवरात्रों में नवमी तिथि को देवी मातंगी की पूजा होती है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी एक साथ कैलाश पर्वत पर भगवान शिव और देवी पार्वती से मिलने गए थे। शिव और पार्वती ने दोनों का स्वागत किया और उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया। भोजन करते समय अन्न के कुछ दाने भूमि पर गिर गए। इन अन्न के दानों से एक श्यामल वर्ण की कन्या उत्पन्न हुई। उस कन्या द्वारा भोजन की इच्छा व्यक्त करने पर उन्होंने भोजन का कुछ अंश उसे दे दिया। यही कन्या मातंगी देवी के रूप में प्रतिष्ठित हुईं।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भ्रमण करते हुए देवी पार्वती एक गांव में पहुंच गईं, जहां आदिवासी रहते थे। वहां कुछ निर्धन आदिवासी महिलाएं भोजन कर रही थीं। मां पार्वती को सामने देख कर वे आश्चर्य में पड़ गईं। उन्होंने अपने भोजन की थाली देवी पार्वती के सामने रख दी। मां पार्वती ने उनकी श्रद्धा और प्रेम देख कर मातंगी रूप धारण कर लिया। और उनकी थाली में बचे हुए जूठे भोजन को ग्रहण किया। बस, तभी से माता मातंगी को जूठे भोजन का भोग लगाया जाता है, इसलिए इनकी पूजा में व्रत नहीं किया जाता। यह एकमात्र देवी हैं, जिन्हें जूठे भोजन का भोग लगाया जाता है। मातंगी जयंती पर उनकी पूजा-अर्चना के साथ कन्या पूजन भी होता है। मातंगी देवी को आदिवासियों की देवी माना जाता है। दस महाविद्याओं में तारा और मातंगी देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती है। बौद्ध धर्म में देवी मातंगी को ‘मातागिरी’ कहते हैं।
शास्त्रों के अनुसार देवी मातंगी काे प्रकृति की स्वामिनी देवी कहा गया है। ये स्तंभन की देवी हैं। इन्हें वाणी, कला, संगीत और तंत्र की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। इनकी पूजा से वाक्-सिद्धि और कला में उन्नति मिलती है। मातंगी देवी, माता सरस्वती का तांत्रिक रूप हैं।