ध्यान के लिए जरूरी है वैराग्य
मन में किसी भी प्रकार की इच्छा न हो, इसकी कामना करना भी एक इच्छा है। अनंत इच्छाओं के अधीन मन को साधना सरल नहीं है। इस बेकाबू मन को काबू में करने के लिए ध्यान जरूरी है और ‘ध्यान’ पर ध्यान केंद्रित करने के लिए वैराग्य जरूरी है

मन हमेशा विषय-वस्तुओं से बने इस संसार की ओर भागता रहता है। तुम यदि शांत बैठे हो, आंखें खुली हों या बंद हों, देखो, तुम्हारा मन कहां जाता है? तुम्हारा मन कुछ देखने के लिए भागता है, तुम कोई दृश्य, किसी व्यक्ति को देखना चाहते हो। इसी तरह मन कुछ सूंघने, स्वाद लेने, सुनने अथवा स्पर्श करने के लिए अथवा कोई पढ़े-सुने विचार की ओर भागता रहता है। ऐसे किसी भी अनुभव की चाह तुम्हे वर्तमान क्षण में नहीं रहने देती है।
कुछ क्षण के लिए ही सही, तुम कहो कि चाहे कितना भी सुंदर दृश्य क्यों न हो, मेरी उसे देखने में कोई रुचि नहीं है, कितना भी स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो, अभी समय नहीं है और मेरी खाने में अभी कोई रुचि नहीं है, कितना ही सुंदर संगीत क्यों न हो, अभी इस समय मुझे सुनने में भी कोई आसक्ति नहीं है, कितना भी सुंदर स्पर्श क्यों न हो, मुझे उसे महसूस करने में भी कोई रुचि नहीं है।
चाहे कुछ ही क्षण के लिए ही सही, अपनी इंद्रियों को विषय-वस्तुओं के प्रति इस लालसा और ज्वरता से मुक्त कर लेना ही वैराग्य है। केवल कुछ क्षणों के लिए ही सही, मन को भौतिक इंद्रिय सुख से समेटकर स्वयं में स्थापित कर लेना ही वैराग्य है। यह ध्यान के पथ की दूसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता है। जब भी तुम गहरा ध्यान करना चाहते हो, तो तुम्हारा मन वैराग्य में होना चाहिए। बिना वैराग्य के ध्यान संभव ही नहीं है, बिना वैराग्य के ध्यान भी तुम्हें विश्रांति नहीं देगा। फंसा हुआ मन एक के बाद एक इच्छाओं के पीछे भागते-भागते थक जाता है। तुम पीछे मुड़ कर अपनी सभी इच्छाओं को देखो, क्या उन्होंने पूरे होने पर कभी भी तुम्हें कोई आराम दिया है? नहीं, उन्होंने कुछ और इच्छाओं को ही जन्म दिया है। फिर मन इन उपजी हुई इच्छाओं में लग जाता है, फिर यह इच्छाएं भी कुछ संतुष्टि नहीं देतीं, बल्कि एक और आशा जगाती हैं कि कहीं कुछ और अधिक। …ऐसे तुम एक गोल चक्कर काटते हुए झूले में सवार हो जाते हो, जो कहीं पहुंचता नहीं है। तुम्हें ऐसा भ्रम होता है कि तुम कोसों दूर चले हो, पर तुम कहीं पहुंचते ही नहीं। इच्छाओं के पीछे जीवन ऐसी ही एक दौड़ बन जाता है, जिसमें भागते-भागते भी कहीं पहुंचते नहीं हैं। जो मन इच्छाओं से भरा हुआ है, वह ध्यान में नहीं उतर सकता।
इसमें दो तरह के मत हैं, पहला तो यह कि मन में कोई इच्छा नहीं होनी चाहिए। मन में कोई इच्छा न होना भी एक इच्छा ही है। ऐसे में कुछ लोग अपनी इच्छाओं को मारने में लगे रहते हैं, वह भी घुमा-फिरा कर भागते ही रहते हैं और ऐसे कुछ घटता नहीं है।
ध्यान में कोई भी चाह एक बाधा है, तुमने कभी किसी से सुना कि उनके ध्यान में उन्हें प्रकाश दिखा या फिर कोई स्वर्ग से आया और उन्हें हाथ पकड़ कर ले गया और फिर तुम भी आंख बंद कर वही देखने लगते हो। यह सब मिथ्या है।
प्रसन्नता की चाह तुम्हें दुखी कर देती है, यह परखो कि जब भी तुम अप्रसन्न अथवा दुखी हो, तो उसके पीछे तुम्हारी प्रसन्नता की आकांक्षा ही है। प्रसन्नता की लालसा दुख ले आती है। यदि तुम प्रसन्नता के लिए लालायित नहीं होते, तो तुम प्रसन्न होते हो। तुम्हारी प्रसन्नता की लालसा दुख को आमंत्रित करती है। जब तुम प्रसन्नता की परवाह नहीं करते हो, तब तुम मुक्त हो जाते हो और जब तुम मुक्ति की भी परवाह नहीं करते हो, तब तुम प्रेम को प्राप्त होते हो। प्रसन्नता के लिए परवाह न करना पहला कदम है। दूसरा कदम है, परम वैराग्य, जब तुम मुक्ति की भी परवाह नहीं करते…, तब तुम मुक्त होते हो।
प्रसन्नता मन की एक अवधारणा मात्र है। तुम्हें लगता है कि जो तुम चाहते हो, यदि वह सब तुम्हारे पास आ जाए, तो तुम प्रसन्न हो जाओगे। जो भी तुम चाहते हो, वह सब तुम्हारे पास हो, क्या तुम तब प्रसन्न हो जाओगे? प्रसन्नता की इस लालसा को विराम देना ही वैराग्य है। इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हें दुखी होना चाहिए। इसका अर्थ यह भी नहीं कि तुम्हें आनंद नहीं उठाना चाहिए, पर प्रसन्नता की लालसा से जब मन मुक्त होता है, तभी तुम ध्यान में उतरते हो। तब ही योग संभव है।
अपने कपोल सपनों और कल्पनाओं को नष्ट कर दो। अपने सभी सपनों और कल्पनाओं को अग्नि को समर्पित कर दो, उन्हें स्वाहा हो जाने दो। इससे पहले कि यह जमीन तुम्हें खा जाए, मुक्त हो जाओ। इस ज्वरता से मुक्त हो जाओ, जिसने तुम्हारे मन को जकड़ रखा है। इस प्रसन्नता की लालसा से मुक्त हो जाओ। तुम ऐसी कौन-सी प्रसन्नता को प्राप्त कर लोगे?
तुम्हारे प्रसन्नता के साधन तुरंत ही रसहीन बन जाते हैं, पूरी सजगता और तन्मयता से अपनी हर एक इच्छा को देखो और याद करो कि तुम मर जाने वाले हो। तुम्हें मीठा खाने की बहुत इच्छा है, ठीक है, तुम्हारे पास क्विंटल भर के मीठा आ जाए, तब सजगता से देखो, इसमें क्या है? तुम पाओगे इसमें कुछ भी नहीं है।
और क्या इच्छा होती है, सुंदर दृश्य? लगातार दृश्य ही देखते जाओ, कितनी देर तक तुम देखते रह पाओगे? तुम कैसे भी बेहतरीन दृश्यों को भी भूल जाते हो, तुम बस कुछ क्षण मात्र ही किसी दृश्य को लगातार देख सकते हो। आंखें थक जाती हैं और तुम्हें उन्हें मूंदना ही पड़ता है।
इसके अलावा और भी कोई विषय वस्तु, इन सभी में सीमितता है, पर यदि तुम मन को परखोगे, तो पाओगे कि मन असीमित की चाह रखता है। मन को असीमित सुख की चाह है, जो पांच इंद्रियां नहीं दे सकती हैं। यह असंभव है, तुम इस चक्कर में बार-बार वही करते-करते थक जाते हो। प्रलोभन का भय और भी बुरा है। क्या तुम यह समझ रहे हो? कैसे तुम्हें कुछ प्रलोभित कर सकता है? इंद्रियों को दोष न देते हुए, विषय वस्तुओं के प्रति सम्मान और सत्कार के साथ, युक्तिपूर्वक स्वयं में स्थित हो जाना ही वैराग्य है।