माओवादियों पर मारक प्रहार
गृह मंत्री अमित शाह ने माओवाद के खात्मे के लिए अगले साल की मार्च की तारीख मुकर्रर की है। इससे पहले हिंसक माओवाद के मुद्दे पर देश के सत्ता समुदाय में कभी ऐसा आत्म-विश्वास नहीं देखा गया था…

सन् 2014 की सर्दियां ढल चुकी थीं और उनके साथ मनमोहन सिंह भी एक दशक पुरानी सत्ता के प्रस्थान बिंदु पर जा खड़े हुए थे। भारतीय जनता पार्टी के ‘प्रधानमंत्री उम्मीदवार’ नरेंद्र दामोदरदास मोदी किसी तूफान की तरह सत्ता-सदन में बस दाखिल होने को थे। ऐसे में, सौम्य और शालीन मनमोहन सिंह ने अपनी आधिकारिक विदाई से ऐन पहले कुछ चुनिंदा संपादकों को एक सुबह नाश्ते पर बुलाया। सामान्य बातचीत के दौरान सवाल उभरा- आपकी नजर में ऐसे कौन से तीन महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिन्हें आप पूरा नहीं कर सके? उन्होंने जो तीन मसले गिनाए, उनमें प्रमुख था- माओवाद!
मनमोहन सिंह का मानना था कि तमाम कोशिशों के बावजूद माओवाद पैर पसारता जा रहा है। अगर यह सिलसिला जारी रहा, तो माओवादी आज नहीं तो कल, देश को बीच से काटने की शक्ति अर्जित कर लेंगे। वह गलत नहीं थे। महाराष्ट्र से पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश तक तमाम जिलों में माओवादियों की सत्ता चलती थी। उनकी इलाकाई यूनिट फैसले करती थी, कौन किस सरकारी काम का ठेका लेगा? उन्हीं को तय करना होता था कि मोबाइल के टावर लगेंगे या नहीं! स्कूल और पुलिस थाने तक उनके प्रभाव में थे। वे ‘जनता की अदालत’ लगाते, सुनवाई करते, सजाएं सुनाते और उन्हें मुकर्रर भी कर देते। यह राज्य के अंदर समानांतर राज्य की स्थिति थी। इससे निपटने के लिए मनमोहन सिंह के दूसरे सत्ता-काल में शुरू हुआ ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ अपने लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा था।
मनमोहन सिंह के इस अधूरे काम को नरेंद्र मोदी की हुकूमत ने काफी कुछ पूरा कर लिया है।
गृह मंत्री अमित शाह की अगुवाई में चल रहे इस नक्सल उन्मूलन अभियान को एक और बड़ी सफलता बुधवार को हासिल हुई। उस दिन शाम ढले छत्तीसगढ़ के नारायणपुर इलाके में सशस्त्र बलों ने मुठभेड़ में नंबाल्ला केशव राव उर्फ बसवराजू और उसके 26 हमसायों को मार गिराया। राजू कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) का महासचिव था। वह पार्टी के लड़ाकू दस्ते का भी जिम्मा सम्हालता था। इस नाते उस पर संगठन, सिद्धांत और संग्राम की पूरी जिम्मेदारी थी। उसने इस जिम्मेदारी को समूची बर्बरता के साथ निभाया। सौ से अधिक सशस्त्र बल के जवानों का सुर्ख खून इसका रक्तिम गवाह है।
सरकार ने बसवराजू के सिर पर डेढ़ करोड़ का इनाम घोषित कर रखा था।
बसवराजू की मौत ने सशस्त्र माओवादी आंदोलन को निर्णायक झटका दिया है। राजू, कानू सान्याल, चारू मजुमदार, किशनजी और गणपति की परंपरा का आखिरी ध्वजवाहक था। किशनजी के मारे जाने और गणपति की गिरफ्तारी के बाद से सवाल गूंजने लगे थे कि अब इस आंदोलन में ऐसे लोगों की कमी हो गई है, जो संगठन और सैद्धांतिक समझ के मामले में उन जैसे मजबूत हों। माओवादी आंदोलन के इस नाजुक मोड़ पर बसवराजू ने 2017 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) की कमान संभाली थी। हालांकि, उसके सत्तारोहण की खबर 10 नवंबर, 2018 को आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक हुई। उसी दिन पार्टी ने एक बयान जारी किया था कि गणपति ने खुद को पार्टी के दायित्व से मुक्त कर लिया है, अब उनका काम बसवराजू संभालेगा।
अपने तमाम पूर्ववर्ती नेताओं की तरह बसवराजू भी पढ़ा-लिखा था। उसने वारंगल के सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज से बीटेक की डिग्री हासिल की थी। वह चाहता, तो सरकारी नौकरी कर सकता था या प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ सकता था। उसने ऐसा नहीं किया। क्यों? कॉलेज के दिनों से ही उसकी संगत धुर वामपंथियों से हो गई थी। ये लोग चारू मजुमदार के इस कथन को बेहद गंभीरता से लेते थे कि गोरे साहब चले गए, पर अपने पीछे काले साहब छोड़ गए। इन लोगों का मानना है कि अंग्रेजों से भारत और आम भारतीयों को सच्चे अर्थों में आजादी नहीं मिली। इस टोली की नजर में 15 अगस्त, 1947 को बस इतना हुआ कि एक सत्ता वर्ग गया, दूसरा आया। यह बात अलग है कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब इस वैचारिक लड़ाई ने उनके हाथों में बंदूक थमा दी और उस बंदूक ने उन्हें खुद उस वर्ग-शत्रु की तरह बना दिया, जिससे लड़ने के लिए वे मैदान में उतरे थे।
यही वजह है कि माओवादियों का जनाधार जंगल के उन मूल निवासियों में घटता गया, जिन्हें सरकार और शहरी समाज आदिवासी कहता है। यही जंगल, जल और जमीन इन स्वघोषित योद्धाओं के पालनहार हुआ करते थे। उधर, गृह मंत्री सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने में जुटे थे। बसवराजू द्वारा रचे गए हमलों में घातक हानि झेल रहे सुरक्षा बलों ने भी कसम खा रखी है कि इस खूनी संघर्ष को अब अंतिम मुकाम तक पहुंचाना है। यह अकारण नहीं है कि पिछले एक साल में दो सौ के करीब नक्सली विभिन्न मुठभेड़ों में खेत रहे।
बसवराजू की मौत के बाद उसका पद भले ही किसी को दे दिया जाए, परंतु क्या उस शख्स की संघर्ष क्षमता और वैचारिक शक्ति बसवराजू जितनी तीव्र होगी? इस आंदोलन को जानने-समझने वाले इस सवाल का जवाब दृढ़ इनकार से देते हैं। कोई आश्चर्य नहीं, गृह मंत्री अमित शाह ने माओवाद के खात्मे के लिए अगले साल की मार्च की तारीख मुकर्रर की है।
इससे पहले हिंसक माओवाद के मुद्दे पर देश के सत्ता-समुदाय में कभी ऐसा आत्म-विश्वास नहीं देखा गया था।
अगर ऐसा होता है, तो यह 1967 से शुरू हुए एक ऐसे खूनी सिलसिले का तार्किक समापन होगा, जो भारतीय राष्ट्र-राज्य को रह-रहकर चुनौती देता था। इससे कम से कम पांच प्रदेशों के एक बड़े हिस्से को तेजी से देश की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका भी मिलेगा। ऐसा कहने की अकेली वजह यह है कि माओवादी विकास को अपने चश्मे से देखते हैं, जबकि सरकारों का नजरिया बिल्कुल भिन्न है। यह द्वैत हिंसा प्रभावित इलाके की प्रगति बाधित कर रहा है। संघर्ष के इस लंबे सिलसिले ने पहले से पिछड़े आदिवासियों की तीन पीढ़ियों को और पीछे धकेल दिया है।
यहां एक और तथ्य पर गौर करना जरूरी है। अगर अर्द्धसैनिक बलों और गुप्तचर संगठनों को इस ‘युद्ध’ से फुरसत मिली, तो वे देश के अन्य दुश्मनों से जूझने का समय और संसाधन हासिल कर सकेंगे। जिस दिन बसवराजू नारायणपुर के जंगल में मारा गया, उसी दिन सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित देश की राजधानी में पाकिस्तान की कुख्यात आईएसआई द्वारा संचालित एक मॉड्यूल भी सामने आया। पिछले कुछ हफ्तों में पाकिस्तान के लिए जासूसी के आरोप में देश के विभिन्न भागों से अन्य लोग भी गिरफ्तार हुए हैं। आप समझ सकते हैं, यह जहरबाद देश की रगों में कितना फैल गया है? सोशल मीडिया ने इसे तीव्रगामी और मारक बना दिया है। ऐसे में, सुरक्षा बलों और अन्य संस्थाओं के सिर का बोझ हल्का करना जरूरी हो गया है, ताकि वे पड़ोसी द्वारा रोपी गई अलगाव और आतंकवाद की इस नई फसल से निपट सकें।
बसवराजू की मौत के बाद क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि यह प्राणलेवा सिलसिला अब खत्म होने को है?
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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