Hindustan aajkal column by Shashi Shekhar 30 March 2025 लोकतंत्र का लड़खड़ाता कारवां, Editorial Hindi News - Hindustan
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लोकतंत्र का लड़खड़ाता कारवां

  • लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए राजनेताओं और धनाढ्यों का गठजोड़ इसे झकझोरने में जुटा है। कैसे? दुनिया के सर्वाधिक अमीर लोगों में शामिल एलन मस्क आज डोनाल्ड ट्रंप से कम चर्चित नहीं हैं। उन्हें डोज (डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी) का मुखिया बनाया गया है…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 29 March 2025 07:31 PM
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लोकतंत्र का लड़खड़ाता कारवां

जरा इस संवाद पर गौर फरमाइए- पत्रकार : ‘क्या रक्षा सचिव को...’।

मार्जोरी टेलर ग्रीन : ‘रुको, तुम किस देश से हो?’

पत्रकार : ‘यूके से।’

मार्जोरी टेलर ग्रीन : ‘अच्छा, हमें तुम्हारी राय और रिपोर्टिंग की कोई परवाह नहीं है। तुम अपने देश वापस क्यों नहीं चली जातीं? हमारे यहां पहले से बड़ी संख्या में प्रवासी पडे़ हैं। तुम लोगों को अपनी सीमाओं की परवाह करनी चाहिए।’

क्या कभी किसी ने सोचा था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब उसे संयुक्त राज्य अमेरिका के एक सत्तारूढ़ प्रतिनिधि (सांसद) से ऐसे कठोर, विभाजनकारी और अपमानजनक कथन सुनने पड़ेंगे?

मार्जोरी उस इंग्लैंड की एक पत्रकार को धमका रही थीं,जो दशकों से अमेरिका का सबसे भरोसेमंद सहयोगी और दोस्त रहा है। यह ‘नया अमेरिका’ है, जिस पर डोनाल्ड ट्रंप और उनके विश्वासपात्रों का शासन है। यह मंडली बरसों से चली आ रही राजनयिक, राजनीतिक, सामाजिक और मानवीय मर्यादा को पूरी तरह पलट देने पर आमादा है। उन्हें लोकतांत्रिक शिष्टाचार को दरकिनार कर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि उन न्यायाधीशों पर महाभियोग चलना चाहिए, जिन्होंने ट्रंप के कार्यकारी आदेशों के खिलाफ फैसले सुनाने का काम किया है।

यह घटनाक्रम मुझे नोबेल प्राप्त प्रोफेसर जोसेफ स्टिगलिट्ज की इस चेतावनी की याद दिलाता है- अमेरिका एक कुलीन तंत्र बन गया है। हम पूर्ण लोकतंत्र बनने की दिशा में बढ़ने के बजाय उल्टी दिशा में जा रहे हैं। आज सिद्धांतत: तो सभी अमेरिकियों को मतदान का अधिकार है, लेकिन मतदाताओं को दबाने के व्यवस्थित प्रयास हो रहे हैं। तमाम संसाधनों के जरिये कुछ लोगों की आवाज और उनके वोट को दूसरों की तुलना में अधिक महत्व देने के षड्यंत्र जारी हैं।

प्रोफेसर स्टिगलिट्ज की यह भी मान्यता है कि लोकतंत्र के लुढ़कने की दूसरी निशानी यह है कि अमेरिका के कई राज्यों में इन दिनों विमर्श चल रहा है, विज्ञान की किताबों से जलवायु परिवर्तन को बाहर किया जाए। इसके साथ, कई राज्यों में यह बहस छिड़ी है कि नस्लवादी उत्पीड़न के पाठ को छोटा किया जाए।

तय है, पर्यावरण, शोषण, असमानता और आजादी के महत्व की जानकारी से यदि हम स्कूली बच्चों को दूर कर देंगे, तो वे उन महान मानवीय मूल्यों से वंचित रह जाएंगे, जिन्होंने धरती के नए निजाम को गढ़ा है।

लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए राजनेताओं और धनाढ्यों का गठजोड़ इसे झकझोरने में जुटा है। कैसे? दुनिया के सर्वाधिक अमीर लोगों में शामिल एलन मस्क आज डोनाल्ड ट्रंप से कम चर्चित नहीं हैं। उन्हें डोज (डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी) का मुखिया बनाया गया है। उनकी उलटबांसियों से न केवल राज्यकर्मी, बल्कि संसार की सर्वाधिक शक्तिशाली अमेरिकी सेना तक चकित है।

इसके बावजूद राष्ट्रपति ट्रंप उन्हें जिस तरह पोसते हैं, इसका एक उदाहरण देता हूं। मस्क द्वारा निर्मित टेस्ला कार की बिक्री जब घटने लगी, तो ट्रंप ने इसे राजनीतिक साजिश करार देते हुए घोषणा की कि मैं खुद टेस्ला की कार खरीदूंगा। अगले ही हफ्ते वह मस्क के साथ नई नवेली टेस्ला के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवा रहे थे। दुनिया का सबसे ताकतवर हुक्मरां किसी निजी कंपनी द्वारा निर्मित कार के प्रचार के लिए मॉडलों जैसा व्यवहार करे, तो आप क्या कहेंगे?

पुरानी कहावत है, व्यापारी बिना मुनाफे के कोई काम नहीं करते। मस्क ने ट्रंप को चुनाव लड़ने के लिए 288 मिलियन डॉलर (भारतीय मुद्रा में 248 करोड़ रुपये से अधिक) का चंदा दिया है। इसके बदले में वह अपनी कंपनी स्पेसएक्स के लिए करदाताओं की जेब से निकले धन का बड़ा हिस्सा चाहते हैं। मस्क इससे पहले की हुकूमतों से भी तगड़ी इमदाद वसूलते रहे हैं। धनबल और सत्ताबल जब इस तरह की जुगलबंदी कर रहे हों, तब इसका क्या असर देखने को मिलेगा?

बहुत दूर जाए बिना आप सिर्फ राष्ट्रपति ट्रंप के पिछले दो महीने के बयानों पर नजर डाल देखिए। वह गाजा को ‘अद्भुत रियल स्टेट’ बताते हुए फरमाते हैं कि वहां की आबादी को अपनी सरजमीं छोड़ पड़ोसी देशों में पनाह ले लेनी चाहिए। उन्हें यह कह देने में भी गुरेज नहीं कि यूक्रेन और रूस के समझौते में यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की की कोई जरूरत नहीं। युद्ध-विराम कराने के बदले अमेरिका यूक्रेन की खनिज संपदा के साथ परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का स्वामित्व चाहता है। इसके बदले में रूस क्रीमिया के बाद यूक्रेन के नए इलाकों को कब्जा ले, इससे भी उन्हें गुरेज नहीं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है, जब विश्व की दो बड़ी ताकतें एक कमजोर संप्रभु देश के नसीब का बंटवारा उसकी मर्जी जाने बिना करने जा रही हैं।

यही नहीं, युद्ध-विराम की घोषणा के बावजूद जिस तरह इजरायल गाजा पर बम बरसाते हुए जमीनी कार्रवाई की धमकी दे रहा है, उससे भी तमाम आशंकाएं उपज रही हैं। क्या यह एक बडे़ सिलसिले की शुरुआत है? ट्रंप इससे पूर्व पनामा नहर और ग्रीनलैंड पर कब्जे की मंशा जता चुके हैं। पेशेवर विदेश नीतिज्ञ इसे अमेरिका की नहीं, व्हाइट हाउस की नीतियां मानते हैं।

यह संयोग नहीं है कि दुनिया के तमाम देशों में इस प्रवृत्ति का उफान देखा जा रहा है। भारतीय उप-महाद्वीप के देश भी इससे अछूते नहीं हैं। पाकिस्तान के ‘नेशनल अकाउंटेबिलिटी ब्यूरो’ का दावा है कि सत्तारूढ़ शरीफ परिवार के पास 730 करोड़ से अधिक की संपत्ति है। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, प्रमुखतम विपक्षी नेता इमरान खान 450 करोड़ रुपये की संपत्ति के स्वामी हैं। भ्रष्टाचार की इस मैली गंगा में पाकिस्तानी फौज भी डुबकियां लगा रही है। और तो और, बांग्लादेश के ‘क्रांतिकारी’ रहबर मोहम्मद यूनुस तक करोड़पति हैं।

खुद हमारे देश में हालात बदल रहे हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, 18वीं लोकसभा के 543 सदस्यों में से 504, यानी 93 फीसदी सदस्य करोड़पति हैं, जबकि 75 प्रतिशत के पास औसतन तीन करोड़ से अधिक की दौलत है। साल 2009 में करोड़पति लोकसभा सदस्यों की संख्या 58 प्रतिशत थी, जो अगली हर लोकसभा में बढ़ती हुई क्रमश : 82 प्रतिशत, 88 फीसदी और 93 प्रतिशत तक पहुंच गई है। इस रफ्तार से शायद अगली लोकसभा सौ फीसदी करोड़पतियों की होगी। एक आम भारतीय और उसके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच आर्थिक हैसियत में असमानता बढ़ रही है। मौजूदा वक्त में यह अंतर 27 गुने का है, जो लगातार पनप और पसर रहा है।

भूलें नहीं। ट्रंप, शरीफ, मेलोनी अथवा फ्रेडरिक मर्ज जैसे लोगों को उनके देश के बहुमत ने चुना है। ट्रंप और शरीफ की पार्टी तो सत्ताबदर होने के बाद दोबारा लौटी है। जाहिर है, संसार भर के लोगों का मन उन लोगों से हट रहा है, जो उदारवाद के मुखौटे लगाकर सिर्फ अपना हित साध रहे थे। उन्होंने अपने अवाम को कैसे छला है, इसका जीता-जागता उदाहरण ‘धरती का स्वर्ग’ अमेरिका है। वहां अति संपन्नता के बावजूद जीवन प्रत्याशा और उल्लास घट रहा है। ऐसे में, भरोसा टूटना स्वाभाविक है और इसीलिए बड़बोले नेताओं की बन आई है।

यहां सवाल उठना लाजिमी है कि सन् 1789 की फ्रांसीसी राज्य-क्रांति ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के उद्घोष के साथ जिस प्रवृत्ति से बगावत की थी, वह लौट क्यों रही है? क्या हमने सवा दो सौ साल की इस लोकतांत्रिक यात्रा में जो हासिल किया, उसका यही हश्र होना था?

@shekharkahin

@shashishekhar.journalist

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