बोले रामगढ़: रसीद ऑनलाइन कटे, योजनाओं का भी मिले लाभ
रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड के कोरम्बे पंचायत में आज भी मुंडारी खुटकट्टी जमींदारी प्रथा कायम है। यहां के लोग जमींदारी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन अब तक कोई सार्थक पहल नहीं...

गोला। रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड के कोरम्बे पंचायत के कई गांव टोलों में आज भी मुंडारी खुटकट्टी जमींदारी प्रथा कायम है। आजादी के तीन वर्ष के बाद भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के लागू होने के बाद से पूरे देश में जमींदारी भले समाप्त हो गई हो। पर कोराम्बे गांव की दो हजार आबादी को जमींदारी व्यवस्था से आजादी नहीं मिली है। यहां के लोग हर चुनाव में जमींदारी व्यवस्था समाप्त कराने की मांग दोहराते हैं। बोले रामगढ़ की टीम से ग्रामीणों ने अपनी समस्या साझा की। वोट मांगने वाले प्रत्याशी भी इन्हें जमींदारी व्यवस्था समाप्त करने का आश्वासन देते हैं। लेकिन ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है। स्थानीय ग्रामीणों ने जमींदारी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए जिला व प्रखंड प्रशासन का लगातार दरवाजा खटखटा रहे हैं। लेकिन सार्थक पहल न हो पाने के कारण यह प्रथा समाप्त नहीं हो पाई।
रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड मुख्यालय से महज 10 किलोमीटर दूर कोरम्बे पंचायत के कई गांव टोलों में आज भी मुंडारी खुटकट्टी जमींदारी प्रथा कायम है। इसके खिलाफ यहां के ग्रामीण लगातार आन्दोलन करते रहे हैं। लेकिन उन्हें कामयाबी अभी तक नहीं मिल सकी है। हालांकि 1947 में जब देश आजाद हुआ, इसके तीन वर्ष के बाद जमींदारी विनाश व भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के लागू कर पूरे देश में जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर दी गई। लेकिन कोराम्बे गांव की लगभग दो हजार आबादी को अब तक जमींदारी व्यवस्था से आजादी नहीं मिली है।
इसमें ग्राम पंचायत कोराम्बे सहित मोहनबेड़ा गांव के लगभग 150 परिवार की आबादी, नावाजारा 60 परिवार, कुसमाजारा 20 परिवार, विजयडीह 40 परिवार, गुंदलीखरै 10 परिवार, संड़सियारी 15 परिवार, धोरधोरा 60 परिवार, नीमवा टोला 10 परिवार, बाबु टोला 100 परिवार, नीचे टोला 25 परिवार,भुंइयाडाड़ी 40 परिवार, महतो उपर टोला 150 परिवार आदि शामिल हैं। यहां के ग्रामीण आज भी मुंडारी खुटकट्टी जमींदारी व्यवस्था में कैद हैं। इन गांवों में 1908 से ही मुंडारी खुटकट्टी जमींदारी प्रथा कायम है। 1908 में सर्वे के समय यहां के ठाकुर शिव सिंह जमींदार थे। उनके मरर्णोप्रांत उनके पुत्र ठाकुर उदय नाथ सिंह जमींदार हुए। फिर इनके पुत्र ठाकुर दुबराज सिंह व 1942 में ठाकुर मृत्युंजय सिंह जमींदार हुए। ठाकुर मृत्युंजय सिंह के निधन के बाद इनकी पत्नी दामनी दासो बाला जमींदारी की कुर्सी संभाली। चुंकि ठाकुर मृत्युंजय सिंह के निधन के समय इनके पुत्र ठाकुर कुंज किशोर सिंह नाबालिग थे। जिसके कारण दामनी दासो बाला लगभग डेढ़ दशक तक इस पद पर बनी रही। ठाकुर कुंज किशोर सिंह जब बालिग हुए तो वे जमींदार बने। 2000 ई. में इनके निधन के बाद वर्तमान में पूर्व मुखिया ठाकुर रविशंकर सिंह जमींदार के पद पर आसीन हैं। जब से त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव शुरु हुआ है, इसी परिवार के लोग मुखिया चुने जा रहे हैं। पहली बार के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में ठाकुर रविशंकर सिंह की माता कामेश्वरी बाला देवी मुखिया चुनी गई। इसके बाद ठाकुर रविशंकर सिंह मुखिया चुने गए, वर्तमान में ठाकुर रविशंकर सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह मुखिया पद पर है।
हलांकि 1956 में राज्य पुनर्गठन अयोग के सुझाव पर अमल करते हुए भारत सरकार ने जमींदारी प्रथा को समूल खत्म कर राज्यों में विलीन कर दिया गया। जबकि 1962 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान बचे खुचे सभी गैर लोकतांत्रिक जमींदारी व्यवस्था को रद्द कर दिया गया। इस प्रथा को खत्म करने के लिए स्थानीय लोग पिछले कई वर्षों से आंदोलनरत हैं। इस मामले को लेकर अक्सर स्थानीय सैकड़ों महिला-पुरुष गांव में बैठक कर जमींदारी प्रथा का विरोध करते रहते हैं। यहां के ग्रामीण जमींदारी प्रथा को खत्म करने व जमीन की ऑनलाइन रसीद अपने नाम निर्गत करवाने की मांग सरकार से कर रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि जमीन की रसीद उनके नाम पर नहीं रहने के कारण सभी लोग सरकारी योजनाओं से वंचित हो रहे हैं। यहां के मतदाताओं ने पिछले 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट का बहिष्कार किया था। हालांकि जिला प्रशासन ने मतदाताओं को वोटिंग के लिए काफी प्रयास किया था, जिसमें जिला प्रशासन को नाकामी हुई थी। बता दें कि 1908 के सर्वे के अनुसार ठाकुर शिव सिंह जमींदार व दिग्वारी जागीरदार हैं। स्व कुंजकिशोर सिंह मुंडा के नाम से यहां की कुल रकवा ऑनलाइन व रजिस्टर टू में दर्ज है।
शोषण का कारण है जमींदारी व्यवस्था
ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से चली आ रही जमींदारी व्यवस्था किसानों के शोषण का प्रमुख कारण था। अंग्रेज ज़मींदारों को अत्यधिक राजस्व देने के लिए मजबूर करते थे। 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने भूमि सुधारों की एक श्रृंखला शुरू की, जिसका उद्देश्य ज़मींदारों से ज़मीन को लेकर किसानों को हस्तांतरित कर ज़मींदारी व्यवस्था को समाप्त करना था। साथ ही ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करना सामाजिक और आर्थिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। स्वतंत्रता के बाद 1951 में पहली बार संविधान में संशोधन किया गया। इस संशोधन ने संविधान अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 31 में बदलाव किए।
ऑनलाइन रजिस्दर टू में दर्ज है जमीन
यहां के मतदाताओं ने पिछले 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट का बहिष्कार किया था। हालांकि जिला प्रशासन ने मतदाताओं को वोटिंग के लिए काफी प्रयास किया था, जिसमें जिला प्रशासन को नाकामी हुई थी। जमींदारी प्रथा के विरोध प्रदर्शन के कारण कई बार जिला प्रशासन को गांव का भ्रमण करना पड़ा है। यहां के रैयतों ने मुख्यमंत्री, भू राजस्व मंत्री, राजस्व पार्षद झारखंड सरकार, उपायुक्त, अनुमंडल पदाधिकारी, डीडीसी, सांसद व विधायक को आवेदन सौंप कर ग्रामीणों ने ख़ातियानी जमीन को ऑनलाइन कर सरकारी रसीद निर्गत की मांग कर चुके हैं। स्व कुंजकिशोर सिंह मुंडा के नाम से यहां की कुल रकवा 3386 एकड़ 68 डिसमिल जमीन ऑनलाइन व रजिस्टर टू में दर्ज है।
ग्रामीणो को अब है जनप्रतिनिधियों से पंचायत में बदलाव की उम्मीद
कुछ माह पहले लोकसभा व विधान सभा चुनाव हो चुका है। इस बार भी यहां के ग्रामीणों ने वोट वहिष्कार का फैसला लिया था। लेकिन प्रमुख राजनीतिक पार्टी के प्रत्याशियों ने ग्रामीणों को जमींदारी प्रथा से निजात दिलाने का आश्वासन दिया था। अभी तक इसकी समाप्त कराने का किसी की ओर से कोई वक्तव्य नहीं आया है। भविष्य में भी सांसद व विधायक इस दिशा में कोई पहल करेंगे या नहीं यह तो समय ही बताएगा।
बड़ा सवाल है कि भविष्य में अगर कोई जनप्रतिनिधि कोई कदम नहीं उठाया तो ग्रामीणों को जमींदारी प्रथा का दंश झेलने की मजबूरी बनी रहेगी। वैसे हेमंत सोरेन सरकार से भी यहां के ग्रामीणों को काफी उम्मीदें हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पैतृक गांव नेमरा से महज 15 किमी दूर कोराम्बे गांव है। यहां के ग्रामीणों का कहना है कि इसी आस में वोट देते हैं कि कोई तो इस पर गंभीरता से पहल करेगा।
अंग्रेजों के शासन काल में शुरू हुई जमींदारी प्रथा अबतक है जारी
ब्रिटिश काल में स्थायी बंदोबस्त अधिनियम के तहत शुरू की गई थी। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में ज़मींदारी व्यवस्था भारत में प्रचलित एक भूमि स्वामित्व प्रणाली थी। इस प्रणाली में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश राज ने ज़मींदारों के रूप में बिचौलियों को ज़मीन के बड़े हिस्से दिए गए, जो ज़मीन पर काम करने वाले किसानों से मनमानी राजस्व वसूल करते थे। मुगलों की जमींदारी व्यवस्था अंग्रेजों की तुलना में किसानों के प्रति कम शोषणकारी था।
मुगल काल में ज़मींदारों को ज़मीन का मालिक नहीं बनाया गया था। लेकिन ब्रिटिश काल में किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल तक कर दिया जाता था। जब तक कि किसान लगान देते रहते थे, तभी वे ज़मीन में कृषि कार्य कर सकते थे। अंग्रेजों ने जमींदारों को ज़मीन पर काम करने वाले किसानों से राजस्व वसूलने का पूर्ण अधिकार दिया था। जिसके कारण ज़मींदार किसानों का शोषण करते थे।
जमींदारी प्रथा का दंश झेल रहा है कोराम्बे गांव, मुक्ति का नहीं उठाया गया कदम
लोकतांत्रिक भारत देश का कोराम्बे गांव आज भी जमींदारी प्रथा का दंश झेल रहा है। झारखंड राज्य में आज तक जितनी भी सरकारें आईं किसी ने इस प्रथा को समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाया। स्थानीय ग्रामीणों मुख्यमंत्री व जिला-प्रखंड प्रशासन को जमींदारी की प्रथा को समाप्ति को लेकर कई बार हस्ताक्षर युक्त आवेदन देकर समस्या से अवगत कराया गया है। लेकिन आज कोराम्बे को जमींदारी से मुक्त करने के लिए सार्थक कदम नहीं उठाया गया। स्थानीय विधायक की ओर से की गई पहल से ग्रामीणों को जमींदारी प्रथा से मुक्ति की आस जगी थी। लेकिन कुछ समय बीतने के बाद लोगों को मायूसी ही हाथ लगी। जमींदारी प्रथा की समाप्ति को लेकर कदम उठाया जाएगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
जमींदारी प्रथा के कारण कोराम्बे गांव में अनेकों विकास कार्य अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। ग्रामीण अपने जमीनों को बेच भी नहीं सकते हैं। जमींदारी प्रथा से ग्रामीणों का जीवन प्रभावित है। -संजय प्रसाद
ठाकुर शिव सिंह या उनके वंसज के नाम से खतियान नहीं है। कोराम्बे के रैयतों के पास कायमी खतियान रहने के बाद भी जमीन ऑनलाइन नहीं हुआ है और न ही सरकारी रसीद मिलता हैै। -भोला बेदिया
लोकसभा चुनाव में मतदान का बहिष्कार किया था। जनप्रतिनिधयों के अलावे जिला प्रशासन ने समाधान करने का आश्वासन दिए थे। लेकिन समस्या का अब तक समाधान नहीं किया गया। -बिरेन हांसदा
ग्राम पंचायत कोराम्बे सहित इसके बास पास के दर्जन भर गांव-टोला में आज भी जमींदारी व्यवस्था लागू है। कृषि युक्त जमीन पर ग्रामीण फसल उपजा सकते हैं, लेकिन उस जमीन पर मालिकाना हक जमींदार का है। -टिभू बेदिया
सादे पेपर पर टिकट लगा जमीन बिक्री हो जाती है। जमींदार क्रेता को उस पर निर्माण कार्य कराने की अनुमति देता है। क्रेता को इस बात का अधिकार नहीं देता कि वह उक्त जमीन को कानूनन बेच सके। -पारस बेदिया
अगर कोई भू-स्वामी अपना मकान-जमीन बेचता है तो क्रेता को खरीद धनराशि का बड़ा हिस्सा जमींदार को देना पड़ता है। मकान निर्माण पर जमींदार से इजाजत लेना और नजराना देने का चलन है। -कामेश्वर रजवार
खाली जमीन पर भी जमींदार अपना हक मानते हैं। जमींदारी प्रथा के खिलाफ दर्जनों बार आंदोलन किया गया, लेकिन व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ। समस्या पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। -प्रदीप बेदिया
ब्रिटिश शासन के खात्मे के बाद अधिनियम बना, लेकिन कोराम्बे गांव में जमींदारी व्यवस्था कायम है। कुल मिलाकार 1937 में भारत आजाद हुआ, लेकिन कोराम्बे में जमींदारी व्यवस्था लागू है। -जागो मांझी
अंग्रेजी शासन समाप्त होने के साथ ही जमींदारी प्रथा को समाप्त करना आवश्यक था। लेकिन सरकार और प्रशासन की लापरवाही का नतीजा यहां के ग्रामीण आज भी झेल रहे हैं। -सुरेश बेदिया
जमींदार प्रथा अंग्रेजी सरकार की देन है। इस व्यवस्था को समाप्त कर हमें पूर्ण आजादी मिलनी चाहिए। राजनीतिक व प्रशासनिक गंभीरता न होने से आज भी यह व्यवस्था कायम है।-मधु बेदिया
जमींदारी प्रथा से मुक्ति के लिए किसान काफी समय से संघर्ष कर रहे हैं। इस प्रथा से हम किसान आज भी अपनी भूमि के मालिक नहीं हैं। जमींदार उनसे मनमानी लगान वसूल करते हैं।
-मालती देवी
कहने को तो भारत में जमींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया है। किसानों को भूमि के मालिक के रूप में मान्यता दी गई। लेकिन हमें जमींदारी व्यवस्था से कब आजादी मिलेगी।
-मंजू देवी
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