Climate Change Alters Agriculture in Uttarakhand 27 2 Decrease in Farm Land ब्यूरो::::उत्तराखंड के ध्यानार्थ :::::: उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिए किसान बदल रहे हैं खेती का तरीका, Delhi Hindi News - Hindustan
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ब्यूरो::::उत्तराखंड के ध्यानार्थ :::::: उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिए किसान बदल रहे हैं खेती का तरीका

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पिछले दशक में कृषि में बड़े बदलाव आए हैं। खेती की भूमि में 27.2% की कमी आई है और उपज में 15.2% की गिरावट आई है। किसान अब जलवायु-लचीली फसलों जैसे बाजरा और दलहन की ओर...

Newswrap हिन्दुस्तान, नई दिल्लीThu, 1 May 2025 08:52 PM
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ब्यूरो::::उत्तराखंड के ध्यानार्थ :::::: उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिए किसान बदल रहे हैं खेती का तरीका

नई दिल्ली विशेष संवाददाता। क्लाइमेट ट्रेंड्स की नई शोध रिपोर्ट के अनुसार बीते एक दशक में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की खेती में बड़ा बदलाव आया है। खेती की कुल भूमि में 27.2% की गिरावट आई है, और समग्र उपज 15.2% कम हुई है। उत्तराखंड के पहाड़ों में बदलता कृषि परिदृश्य न केवल जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दिखाता है, बल्कि यह भी बताता है कि कैसे स्थानीय किसान नई परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल रहे हैं। चावल या गेहूं की खेती के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं है। इसलिए किसान वैकल्पिक रास्ते तलाश रहे हैं। अब यहाँ के किसान बाजरा और दलहन की फसलों के साथ बहु फसल रणनीति अपना रहे हैं।

रिपोर्ट बताती है कि जलवायु-लचीली खेती पद्धतियों को प्रोत्साहन देना ही पहाड़ी आजीविका और खाद्य सुरक्षा बचाने का रास्ता है । 'पहाड़ों में पानी की कमी और बढ़ती गर्मी के प्रभाव : जलवायु परिवर्तन उत्तराखंड के कृषि परिदृश्य को कैसे आकार दे रहा है' विषय पर एक रिपोर्ट गुरुवार को जारी की गई है। रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के पहाड़ी जिले अब पारंपरिक फसलों से हटकर जलवायु के अनुकूल फसलों की ओर बढ़ रहे हैं। गेहूं, धान और आलू जैसी मुख्य फसलों के रकबे और पैदावार में भारी गिरावट आई है। वहीं दलहन और मक्का, बदलते मौसम के अनुरूप की फसलें बनकर उभर रहे हैं। रामदाना, अरहर, कुल्थी और काले भट्ट जैसी जीआई टैग वाली देशी फसलें अब ज्यादा उगाई जा रही हैं। ‘सब्ज़ियों का राजा कहलाने वाला आलू जलवायु परिवर्तन की मार सबसे ज़्यादा झेल रहा है। बीते पांच सालों में इसकी पैदावार 70.82% घटकर 2020-21 के 3.67 लाख मीट्रिक टन से 2023-24 में 1.07 लाख मीट्रिक टन रह गई। खेती का क्षेत्र भी 2020–21 में 26,867 हेक्टेयर से घटकर 2022–23 में 17,083 हेक्टेयर हो गया। इसमें 36.4%. की वार्षिक घटत हुई है। हालांकि उत्तराखंड में देश का कुल 0.19%. आलू ही पैदा होता है पर यह इस राज्य की सबसे अधिक उगने वाली फसल है और यहाँ इसकी खेती सबसे ज़्यादा होती थी। कृषि विज्ञान केंद्र, उधम सिंह नगर के वैज्ञानिक डा. अनिल कुमार कहते हैं कि पहाड़ों में आलू की खेती बारिश पर निर्भर है और बारिश अब अनियमित होती जा रही है। पहले बर्फबारी होती थी, अब वह भी कम हो गई है। इससे आलू पर बुरा असर पड़ा है। लोक चेतना मंच के अध्यक्ष जोगेंद्र बिष्ट बताते हैं, “पहाड़ों में आलू की खेती पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है और अब उत्तराखंड में बारिश के पैटर्न में बहुत अनिश्चितता आ गयी है। इसके चलते खेती के लिए अब नमी की कमी हो रही है। ऊपर से तापमान बढ़ रहा है और वाष्पीकरण तेज़ हो गया है। कुल मिलाकर क्लाइमेट चेंज का इसमें बहुत योगदान है।” बिष्ट ने बताया कि आलू मार्च की शुरुआत में लगाए जाते हैं और पहाड़ों में मई-जून तक निकाले जाते हैं, जबकि मैदानी इलाकों में, उन्हें अक्टूबर-नवंबर में लगाया जाता है और जनवरी तक काटा जाता है। पहले अक्टूबर से दिसंबर के बीच 2-3 बार बर्फबारी होती थी। अब समय पर बारिश की कमी, अक्टूबर और जनवरी के बीच बर्फबारी में कमी, बढ़ते तापमान और ओलावृष्टि ने आलू की खेती को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। इसके अलावा जंगली सूअर रातों को खेत उजाड़ देते हैं। ये सारी चीज़ें आलू के खिलाफ जा रही हैं। भारत के मौसम आपदा एटलस के अनुसार, उत्तराखंड में 2023 में 94 दिनों तक चरम मौसम रहा। इससे 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई। जलवायु परिवर्तन का असर मैदानी इलाकों से ज़्यादा पहाड़ी क्षेत्रों में दिख रहा है। यहां तापमान में हर साल औसतन 0.02 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है। बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा और अधिक चरम मौसम की घटनाओं ने पारंपरिक फसल पैटर्न को बाधित कर दिया है। गहत, पहाड़ी अरहर, उड़द, चना, भट्ट और राजमा जैसी देशी दालें अब जलवायु-लचीले भविष्य का आधार बन रही हैं। कम पानी, कम इनपुट और उच्च पोषण मूल्य की वजह से ये फसलें अब नए कृषि मॉडल की रीढ़ बन सकती हैं। राज्य में हल्दी की खेती दोगुनी हो गई है और मिर्च की खेती में 35% की वृद्धि दर्ज की गई है। मसालों का रकबा बीते कुछ वर्षों में 50% बढ़ा है, जबकि पैदावार 10.5% ऊपर गई है। हल्दी की पैदावार में 122% और मिर्च में 21% की वृद्धि दर्ज की गई। ये फसलें गर्म और नम परिस्थितियों के अनुकूल होती हैं, और मिट्टी के प्रति ज़्यादा सहनशील हैं। लाही, सरसों, तोरिया और सोयाबीन जैसी तिलहन फसलें अभी छोटे स्तर पर हैं, लेकिन इनमें बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि इनकी औसत पैदावार अब भी कम बनी हुई है। बिष्ट के अनुसार पारंपरिक बारानाजा बहुफसली प्रणाली अब लगभग खत्म हो गई है, लेकिन किसान अब बाजरा और दालों के साथ नई बहु फसल रणनीतियां अपना रहे हैं। दलहन, विशेष रूप से सोयाबीन, चना, जो शुष्क भूमि और गैर वर्षा आधारित क्षेत्रों में उगाए जा सकते हैं, धान और गेहूं की तुलना में बदलती जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल बेहतर ढंग से ढल रहे हैं, क्योंकि धान और गेहूं अधिक पानी की मांग करते है।

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