दूरी खत्म या कैमरे का कमाल? गहलोत-पायलट फिर एक फ्रेम में...क्या पुरानी रंजिश पर लगा विराम?
राजस्थान की सियासत में इन दिनों गर्मी से ज्यादा तपिश एक मुलाकात ने बढ़ा दी है। कांग्रेस के दो दिग्गज नेता—अशोक गहलोत और सचिन पायलट—एक लंबे सियासी टकराव के बाद अब एक ही मंच पर नजर आए हैं।

राजस्थान की सियासत में इन दिनों गर्मी से ज्यादा तपिश एक मुलाकात ने बढ़ा दी है। कांग्रेस के दो दिग्गज नेता—अशोक गहलोत और सचिन पायलट—एक लंबे सियासी टकराव के बाद अब एक ही मंच पर नजर आए हैं। मौका था सचिन पायलट के पिता और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलट की पुण्यतिथि का, मंच दौसा में सजा, लेकिन निगाहें पूरे देश की टिकी रहीं। सवाल एक ही—क्या कांग्रेस के दो ध्रुव अब एक साथ आ रहे हैं? या फिर ये सिर्फ एक "पॉलिटिकल ड्रामा" का अगला एपिसोड है?
पुरानी दुश्मनी, नई दोस्ती?
राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर अशोक गहलोत का मौजूद होना महज शिष्टाचार नहीं था, बल्कि इसका एक गहरा राजनीतिक संदेश था। यही वो नेता हैं जिनके खिलाफ 2020 में सचिन पायलट ने बगावत कर दी थी। सरकार गिरने की कगार पर थी, विधायक मानेसर के रिसॉर्ट में थे और कांग्रेस आलाकमान की नींदें उड़ गई थीं।
अब जब चुनाव हार चुकी कांग्रेस अपने खोए हुए जनाधार की तलाश में है, तो गहलोत-पायलट की यह "मुलाकात" किसी सियासी सौदेबाज़ी की आहट जैसी महसूस हो रही है। कार्यक्रम के मंच पर दोनों की मौजूदगी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जरूर ऊर्जा भर दी है। पर सवाल है, क्या यह एक असली मेल है या महज़ दिखावा?
सोशल मीडिया पर गर्म हुई सियासत
जब सचिन पायलट गहलोत से मिलने पहुंचे और उन्हें दौसा आने का न्योता दिया, तब ही राजनीति का तापमान बढ़ गया था। गहलोत ने X (पूर्व ट्विटर) पर लिखा कि वो और राजेश पायलट 1980 में एक साथ लोकसभा में पहुंचे थे। वहीं पायलट ने भी मुलाकात की फोटो पोस्ट कर माहौल में मिठास घोल दी।
लेकिन राजनीति में मिठास के पीछे अक्सर कोई खटास छुपी होती है।
बीजेपी का तंज—"52 पत्तों में जोकर 3!"
कांग्रेस की इस संभावित सुलह पर भाजपा ने जमकर कटाक्ष किया। जयपुर की सिविल लाइंस सीट से भाजपा विधायक गोपाल शर्मा ने तीखा बयान देते हुए कहा—“सचिन पायलट गहलोत के जादू में भटक रहे हैं। ताश के पत्ते 52 होते हैं लेकिन 3 जोकर भी होते हैं। गहलोत ने ऐसा सेट कर रखा है कि कोई दूसरा उठाए तो जोकर निकले और खुद पत्ते उठाएं तो हुकुम का बादशाह।”
भाजपा का तर्क साफ है—कांग्रेस अब भी गहलोत की गिरफ्त में है, और पायलट चाहें जितना संघर्ष कर लें, उनकी चालें हर बार गहलोत के ‘सिस्टम’ में फंस जाती हैं। गोपाल शर्मा ने तो यहां तक कह दिया कि “अगर कांग्रेस सत्ता में है तो गहलोत का चेहरा दिखता है, सत्ता नहीं है तो गहलोत की कोई प्रासंगिकता नहीं।”
2028 की तैयारी ?
विश्लेषकों की मानें तो यह मेल-जोल आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों को देखते हुए जरूरी भी है और रणनीतिक भी। कांग्रेस राजस्थान में सत्ता गंवा चुकी है, संगठन बिखरा हुआ है और जमीनी कार्यकर्ता दिशा खोज रहे हैं। ऐसे में अगर पायलट और गहलोत वास्तव में हाथ मिला लें, तो बीजेपी के लिए चुनौती खड़ी हो सकती है। लेकिन अगर ये मेल ‘पब्लिक रिलेशन’ तक सीमित रहा, तो कांग्रेस को फिर वैसी ही टूट का सामना करना पड़ सकता है जैसी 2020 में हुई थी।
दौसा का मंच कांग्रेस के लिए एक नई शुरुआत हो सकता है, बशर्ते ये साथ सिर्फ कैमरों के लिए न हो। वर्ना राजनीति में तस्वीरें बदलने में देर नहीं लगती।
राजस्थान की राजनीति में यह अध्याय अभी शुरू ही हुआ है—आगे सस्पेंस है, ड्रामा है और शायद कुछ और ट्विस्ट भी।
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