नाम सिर्फ पहचान नहीं अधिकार है! जानिए राजस्थान हाईकोर्ट ने RBSE से क्या कहा?
राजस्थान हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर को निर्देश दिए हैं कि वह याचिकाकर्ता चिराग नरूका की 10वीं और 12वीं की मार्कशीट में उसकी मां के नाम में सुधार करे और संशोधित मार्कशीट तीन माह के भीतर जारी करे।

राजस्थान हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर को निर्देश दिए हैं कि वह याचिकाकर्ता चिराग नरूका की 10वीं और 12वीं की मार्कशीट में उसकी मां के नाम में सुधार करे और संशोधित मार्कशीट तीन माह के भीतर जारी करे। जस्टिस अनूप ढंढ की एकलपीठ ने यह आदेश देते हुए कहा कि मां का नाम केवल एक औपचारिक विवरण नहीं, बल्कि बच्चे की पहचान का अहम हिस्सा होता है।
याचिका में बताया गया कि चिराग नरूका ने बोर्ड में अपनी मां के नाम में सुधार के लिए आवेदन किया था, लेकिन बोर्ड ने तकनीकी कारणों से उसका आवेदन खारिज कर दिया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट ने इस मामले में संवेदनशील रुख अपनाते हुए न केवल याचिकाकर्ता को राहत दी, बल्कि मां की भूमिका और अधिकार को लेकर एक गहरी संवेदनशीलता दिखाई।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि बच्चे के पालन-पोषण में मां की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। परिवार में जन्म लेने वाला बच्चा सबसे पहले दुनिया को अपनी मां की नजर से देखता है। मां वह होती है, जो दूसरों की जगह ले सकती है, लेकिन उसकी जगह कोई नहीं ले सकता। इस आधार पर कोर्ट ने माना कि बच्चों के शैक्षणिक प्रमाणपत्रों में मां का नाम दर्ज कराना उनका अधिकार है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
अदालत ने कहा कि शैक्षणिक रिकॉर्ड में मां का नाम दर्ज करना सिर्फ दस्तावेजी जानकारी नहीं है, बल्कि यह बच्चे की सामाजिक, कानूनी और भावनात्मक पहचान का आधार भी है। पिता के नाम को ही अनिवार्य रूप से दर्ज करने का कोई न्यायसंगत औचित्य नहीं है, जब मां ने भी समान रूप से बच्चे के जीवन निर्माण में योगदान दिया है।
कोर्ट ने अपने आदेश में विलियम शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘रोमियो एंड जूलियट’ की प्रसिद्ध पंक्ति ‘नाम में क्या रखा है’ का उल्लेख करते हुए कहा कि नाम व्यक्ति की पहचान का मूल तत्व है। यह न केवल सामाजिक जीवन में, बल्कि कानूनी दस्तावेजों में भी व्यक्ति की हैसियत और प्रतिष्ठा को दर्शाता है।
हाईकोर्ट ने बोर्ड को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि यदि याचिकाकर्ता प्रॉपर फॉर्मेट में आवेदन करता है, तो आदेश की तारीख से तीन माह के भीतर उसकी मां के नाम में सुधार कर उसे नई मार्कशीट जारी की जाए। यह आदेश न केवल एक छात्र को व्यक्तिगत राहत देने वाला है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था में संवेदनशीलता और समानता की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है।
इस फैसले को शिक्षा व्यवस्था में लिंग समानता, अभिभावक अधिकार और दस्तावेजीय पहचान की दृष्टि से एक ऐतिहासिक आदेश माना जा रहा है।
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