बोले बस्ती : बदलती किताबें और बढ़ती फीस बन रही चिंता का सबब
Basti News - बस्ती में प्राइवेट स्कूलों की बढ़ती फीस और किताबों की कीमतों ने अभिभावकों को मजबूर कर दिया है। हर साल नए सेलेबस और महंगी यूनिफॉर्म के कारण उन्हें अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है। अभिभावकों का कहना है कि...
Basti News : ‘मजबूरी का नाम बदलकर अब ‘प्राइवेट स्कूल के पेरेंट्स हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। एक अभिभावक का यह दर्द आधुनिक स्कूलिंग पर कई प्रश्नचिह्न खड़े कर रहा है। आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं कि किसी बच्चे के लिए अच्छी शिक्षा का सपना देखने वाला पिता कैसे ‘स्कूल के व्यावसायिक गणित में उलझकर खुद को मजबूर पा रहा है। अप्रैल शुरू होते ही बच्चों के एडमिशन, फीस, किताब-कॉपी और ड्रेस खरीदने की जुगत में हर मां-बाप लग जाते हैं। हर साल स्कूलों में बदलती किताबें और बढ़ती फीस चिंता का सबब बनती है। नामांकन सत्र में प्राइवेट स्कूलों ने नया फीस स्लैब जारी कर दिया है। ऐसे में अभिभावक मन मसोस कर फीस भरने के जुगाड़ में लगे हैं। ‘हिन्दुस्तान से बातचीत में अभिभावकों, कॉपी-किताब के दुकानदारों, व्यापारियों और ड्रेस सिलाई कारीगरों ने अपनी समस्याएं साझा कीं।
जिले में लगभग 1300 के करीब प्राइवेट स्कूल संचालित हैं। वहीं शिक्षा विभाग के अनुसार 2071 परिषदीय स्कूल चल रहे हैं। बाकी सैकड़ों प्राइवेट स्कूल बगैर रजिस्ट्रेशन ही चलाए जा रहे हैं। जिला प्रशासन और शिक्षा विभाग प्राइवेट स्कूलों की मनमानी करने के बाद भी मूकदर्शक है। इसका फायदा प्राइवेट स्कूल वाले खूब ले रहे हैं। कई निजी विद्यालयों द्वारा री-एडमिशन के नाम पर भारी भरकम शुल्क लिया जा रहा है, जो कि पूरी तरह से अवैध है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत किसी भी विद्यार्थी का उसी स्कूल में दोबारा प्रवेश (री-एडमिशन) लेने की आवश्यकता नहीं होती है। बावजूद इसके, कई निजी स्कूल अनावश्यक रूप से अभिभावकों से री-एडमिशन फीस के नाम पर हजारों रुपये वसूल रहे हैं। कई अभिभावकों का कहना है कि अगर वे इस फीस का भुगतान नहीं करते हैं, तो उनके बच्चों को स्कूल से बाहर करने की धमकी दी जाती है।
होटल संचालक अभिषेक सिंह कहते हैं कि कभी ज्ञान का मंदिर कहे जाने वाले स्कूल अब कमाई का जरिया बन चुके हैं। शिक्षा के नाम पर स्कूलों में महंगी कमीशन पर स्टेशनी के सभी सामान उपलब्ध कराया जाता है। जिसके एवज में विद्यालय प्रबंधन अभिभावकों से अच्छी खासी मोटी रकम वसूली जाती है। जो पुस्तकें व स्टेशनरी के सामान बाजार में दुकानों पर 2200-2400 में उपलब्ध है। वही स्टेशनी विद्यालय प्रबंधन आठ से दस हजार रुपये में बेच रहे हैं। यह अभिभावकों की जेब पर भी बेहिसाब बोझ है। अब स्कूल एक संस्थान नहीं, बल्कि एक ऐसा बिजनेस मॉडल बन चुका है, जहां हर चीज़ में कमीशन का खेल चलता है। बाजार में उपलब्ध किताबें स्कूलों के द्वारा निर्धारित दुकानों से खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। किताबों और कॉपियों पर 70 फीसदी तक का भारी-भरकम कमीशन लिया जाता है। इससे किताबों की कीमतें दोगुनी से तीन गुनी हो जाती हैं। अभिभावक चाहकर भी कहीं और से किताबें नहीं खरीद सकते हैं।
अभिभावक प्रवीण कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि अपने बच्चे के लिए मैं हर साल स्कूल के अलावा स्पोर्ट्स यूनिफार्म भी खरीदता हूं। भले ही स्पोर्ट्स एक्टिविटी का अगर हिसाब लगाया जाए तो बमुश्किल साल के 48 दिन ही उसे ये यूनिफार्म पहननी होती है। और हां, ये सारी यूनिफॉर्म स्कूल की ही बताई इकलौती दुकान से मिलते हैं। मैं अपने बचपन में एक ही यूनिफॉर्म तीन-चार साल पहनता था। लेकिन मेरे बच्चे की यूनिफॉर्म में हर बार हल्का-फुल्का चेंज कर दिया जाता है। मुझे इसे लेना मजबूरी बन जाता है।
अभिभावक अमित चौधरी बताते हैं कि बैग, टाई, बेल्ट, जूते, मोजे, टिफिन बॉक्स यहां तक कि बच्चों के ड्रेस तक स्कूल प्रबंधन की ओर से तय दुकानों से लेनी होती है। विद्यालयों द्वारा निर्धारत स्कूलों के सामानों में मोटा कमीशन मिलता है। कई स्कूलों में तो बच्चों के लिए दो टिफिन खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। एक टिफिन में बच्चा फ्रूट लंच तो दूसरे में लंच लाता है। इससे अभिभावकों पर दोहरा बोझ पड़ता है। गृहिणी रानी ओझा बतातीं है कि स्कूलों में हर हफ्ते कोई न कोई प्रोग्राम या एक्टिविटी होती रहती है। इसके नाम पर कभी 200 से 500 रुपये बच्चों को लाने के लिए कहा जाता है।
स्टेशनरी के व्यवसाय में आई है काफी गिरावट
बस्ती। गांधीनगर में स्टेशनरी की दुकानदार अनिल कुमार सिंह कहते हैं कि स्टेशनरी के पूरे सामान को हमलोग जहां 2200-2500 रुपये में उपलब्ध कराते हैं। वहीं किताबें और स्टेशनरी के सामानों पर एजेंसी या कंपनी का अलग से मोनोग्राम लगाकर छह हजार रुपये में विद्यालय प्रबंधन की ओर से उपलब्ध कराया जाता है। संचालक पूरा पैकेज बनाकर स्कूल चला रहे हैं। हमारे यहां जो पुस्तक 140 रुपये में है, वही किताब स्कूलों में 300-400 रुपये में दिया जाता है। उनका कहना है कि इससे हम लोगों के स्टेशनरी के व्यवसाय में काफी गिरावट आई है। आज पूंजी बढ़ी है लेकिन उतना फायदा नहीं रह गया है। पहले हम लोग 10 हजार का सामान मंगाते थे तो उसमें भी अच्छी आमदनी हो जाती थी। लेकिन आज की स्थिति यह है कि हम लोग 20 लाख रुपये का सामान मंगाते हैं, लेकिन उसमें 10 प्रतिशत से ज्यादा का बचत नहीं हो पा रही है। वहीं विद्यालय के लोग 2000 के सामग्री पर लगभग 10 हजार रुपये का फायदा पाते हैं।
बड़े भाई की किताबों से नहीं पढ़ सकता छोटा भाई
जिले में संचालित अधिकांश स्कूलों की ओर से हर साल सेलेबस बदल दिया जाता है ताकि सीनियरों की किताब से जूनियरों का काम न चले, बल्कि उन्हें नई किताबें खरीदनी पड़े। विरोध करने पर स्कूल के मालिकों व प्राचार्यों द्वारा नाम काटने की धमकी दी जाती है। अभिभावक समशुद्दीन बताते हैं कि मेरे दो बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ते हैं, एक सातवीं और दूसरा आठवीं में पढ़ता है। हर साल सेलेबस बदलने की वजह से दोनों बच्चों की किताबें खरीदनी पड़ती है। इससे हर साल 7000 हजार का अतिरिक्त बोझ पड़ता है। इसके अलावा स्कूल प्रबंधकों द्वारा स्कूल का नाम अंकित वाले कॉपियों को खरीदने का दबाव बनाया जाता है। यह कॉपियां दुकानों पर प्रिंट मूल्य पर ही मिलता है। जबकि सामान्य कॉपी होलसेल में खरीदने पर 15 से 20 प्रतिशत तक की छूट मिल जाती है। इसी तरह कई स्कूलों द्वारा निर्धारित काउंटरों से ही ड्रेस, टाई और बेल्ट खरीदने को मजबूर किया जाता है। निर्धारित दुकान पर ड्रेस की काफी कीमत रहती है। जिले के 10 से 20 स्कूल ही ऐसे हैं जो मानकों पर खरे हैं।
निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाए सरकार
प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों से जब बात की गई तो उनका दर्द छलककर सामने आ गया। स्कूलों के शुल्क वृद्धि और पुस्तकों के महंगे दामों पर उपलब्ध कराने पर अभिभावक भी नाराज दिखे। उनका यह भी कहना है कि सरकार की तरफ से गुणवत्तापूर्ण और हाईटेक विद्यालय नहीं होने से प्राइवेट स्कूल उनकी मजबूरी हैं। अभिभावक अधिवक्ता जीतेन्द्र पांडेय का कहना है कि सरकार को इन विद्यालयों के मनमाने शुल्क और स्टेशनरी के सामानों पर मोटी रकम लेने पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि निजी विद्यालयों के प्रबंध समिति को अभिभावकों के साथ मीटिंग करनी चाहिए। मीटिंग में अभिभावकों की सर्वसम्मित से ही शुल्क और पुस्तकों के बदलाव पर बात होनी चाहिए। जिससे जो अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ा रहे हैं उन्हें ज्यादा शुल्क और अधिक स्टेशनरी व अन्य चीजों के लिए अतिरिक्त खर्च न करना पड़े। इसके लिए जिला प्रशासन की ओर से भी एक समिति गठित करना चाहिए। समय-समय पर विद्यालय के सभी अभिलेखों की पड़ताल कर उच्च अधिकारियों तक अभिभावकों की समस्याओं को रखना चाहिए। जिला प्रशासन द्वारा निजी विद्यालयों के शुल्क पर नियंत्रण और स्टेशनरी की बिक्री पर रोक लगानी चाहिए। सोनहा थानाक्षेत्र के रहने वाले अभिभावक विनय मिश्रा का कहना है कि डीएम को ऐसी समिति का गठन करना चाहिए जिससे निजी विद्यालयों की मनमानी खत्म हो सके। निजी स्कूलों के लोग बच्चों की डायरी में छोटे-छोटे पैकेज में इवेंट के शुल्क भी लेते हैं। इतनी मोटी फीस और अन्य शुल्क देने के बाद भी हम लोगों को बच्चों के लिए अलग से ट्यूशन लगवाना पड़ता है और खुद भी देखना पड़ता है। हम लोगों की सरकार से मांग है कि निजी विद्यालयों के मनमाने रवैए पर अंकुश लगाए, जिससे बच्चों के भविष्य के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ न होने पाए।
वाहनों में मानक का नहीं होता पालन
जिले में सैकड़ों की संख्या में प्राइवेट स्कूल संचालित हैं। विद्यार्थियों को लाने और ले जाने के लिए उनके पास खुद की बस, टैक्सी और अन्य परिवहन के संसाधन हैं। स्कूली वाहनों में सुरक्षा मानकों की अनदेखी की जा रही है। अधिकांश वाहनों में सुप्रीमकोर्ट की गाइड लाइन का पालन नहीं हो रहा है। हर साल जिले में प्राइवेट स्कूलों की संख्या में वृद्धि हो रही है। स्कूल खोलते वक्त बच्चों की सुरक्षा के लिए आश्वस्त करके आकर्षक विज्ञापन से लुभाया जाता है। इसके चक्कर में फंसकर अभिभावक अपने बच्चों का प्रवेश करा देते हैं। नामांकन के बाद से ही शोषण का दौर शुरू हो जाता है। सुरक्षा के मानकों की धज्जियां उड़ाकर स्कूल वाहनों में भेड़-बकरियों की तरह नौनिहालों को बैठाकर स्कूलों तक पहुंचाया जाता है।
शिकायतें
-स्कूल में नामांकन के नाम पर 10 से 15 हजार चार्ज किया जाता है।
-स्कूलों में सेशन बदलने के नाम पर दोबारा नामांकन कराया जाता है।
-स्कूल द्वारा निर्धारित दुकान से ही किताबें और कॉपियां खरीदने को मजबूर किया जाता है।
-स्कूल ड्रेस, टाई, बेल्ट व अन्य सामान भी निर्धारित दुकान से ही लेना अनिवार्य रहता है।
सुझाव
-सेशन बदलने के बाद दोबारा नामांकन कराना बंद कराया जाना चाहिए।
-अभिभावकों पर बच्चों की किताबें अपने मन से, किसी भी दुकान से खरीदने का छूट हो।
-स्कूल द्वारा चयनित किए गए दुकान से ही पाठ्य व अन्य सामग्री खरीदवाना बंद हो, इन पर छापे पड़ने चाहिए।
-स्कूल के ड्रेस आदि में हर साल बदलाव नहीं किया जाना चाहिए।
हमारी भी सुनें
प्राइवेट स्कूलों में एनसीईआरटी की किताबें पढ़ाई जानी चाहिए। महंगी किताबें से स्कूल संचालक लोगों की जेबें ढीली कर रहे हैं। इस पर अंकुश लगाया जाए।
मनमोहन श्रीवास्तव
किताब बिक्री में कमीशन का खेल समाप्त होना चाहिए। निजी स्कूलों में प्रत्येक वर्ष पुनः नामांकन आदि के नाम पर मोटी रकम की वसूली की जाती है।
प्रेमप्रकाश श्रीवास्तव
सभी जनपद स्तरीय अफसरों को निर्देशित किया जाए कि वे प्राइवेट विद्यालयों का निरीक्षण करें और एक समिति बनाकर मनमाने शुल्क व अन्य वसूली पर अंकुश लगाएं।
एसबी सिंह
सरकार को सभी स्कूलों के लिए एक किताबों का नियम बनाना चाहिए। इसके अलावा जहां कही इस नियम का उल्लंघन हो रहा हो उस स्कूल की मान्यता रद कर देनी चाहिए।
गौतम चावला
पुरानी कक्षाओं की पुस्तकों को हर साल न बदला जाए, ऐसी शिक्षा प्रणाली लागू हो। एनसीआरटी की पुस्तकें विद्यालयों में लागू होनी चाहिए।
अभिनव पांडेय
निजी स्कूलों में चल रही शिक्षा व्यवस्था पर सरकार को एक नियमावली बनाकर प्रेषित करना चाहिए, जिससे शुल्क, स्टेशनरी की ज्यादा दामों पर बिक्री करने पर अंकुश लगें।
जीतेन्द्र पांडेय
स्कूलों में किताबों की कीमत बहुत ज्यादा है। मेरा बेटा कक्षा सात में पढ़ता है। उसकी किताबों से लेकर अन्य स्टेशनरी के सामानों का 10 हजार रुपये खर्च करने पड़े।
शिवकुमार चौधरी
ड्रेस के नाम पर प्राइवेट स्कूलों द्वारा अवैध वसूली की जाती है। 20 रुपये के सामान को 100 रुपये तक लिया जाता है। जिला प्रशासन को इस पर रोक लगाने की आवश्यकता है।
प्रेमशंकर लाल
शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह की लूट नहीं होनी चाहिए। प्राइवेट विद्यालयों को चाहिए कि वो अभिभावकों को पूरी तरह से स्वतंत्र कर दें। कहीं से भी वह किताब खरीद सकें।
ज्ञानमणि मिश्रा
काफी दिनों से निजी स्कूल वाले पैकेज बनाकर स्टेशनरी के सामान महंगे दामों पर बेच दे रहे हैं। हमारे यहां नर्सरी से इंटर तक की सभी पुस्तकें 2200-2400 रुपये में उपलब्ध हैं।
अनिल सिंह
140 रुपये की किताब का मोनोग्राम और कवर बदल निजी स्कूल के प्रबंध समिति के लोग 400 रुपये में बेच रहे हैं। व्यवसाय में स्वयं किताब, कॉपी कमीशन के चक्कर में बेचने लगे हैं।
संदीप शुक्ला
पहले कम पूंजी में भी अच्छी कमाई हो जाती थी। अब स्कूलों के कंप्टीशन में स्टेशनरी के सामानों में 10 प्रतिशत की भी कमाई नहीं हो पा रही है।
अंबुज
अब अभिभावक दुकान तक नहीं आते हैं। प्राइवेट विद्यालय में ही स्टेशनरी के सभी सामान उपलब्ध हैं। इसके चलते अब ग्राहक कम हो गए हैं और कंप्टीशन भी बढ़ गया है।
रोहित अग्रवाल
अब रेडीमेड ड्रेस लोगों के लिए आसान हो गया है। पहले स्कूलों के ड्रेस के कपड़े हम लोग थान में मंगाते थे। अब ड्रेस निजी स्कूल कमीशन के चक्कर में दुकान निर्धारित कर लिए हैं।
प्रह्लाद मोदी
पहले हम लोगों के यहां बहुत कारीगर रहते थे। पूरे साल तक हम लोग स्कूलों के ड्रेस सिलकर देते रहते थे तो उस समय कमाई भी अच्छी होती थी।
शाहिद अली
अब तक सिलाई का व्यवसाय बहुत ही फीका हो गया है। विद्यालयों के ड्रेस कुछ चुनिन्दा स्कूलों पर उपलब्ध हैं और लोग ऑनलाइन कपड़ों की भी खरीदारी कर लेते हैं।
बदामा
बाले जिम्मेदार
प्राइवेट स्कूलों के लिए शासन स्तर से जो मानक निर्धारित किए गए हैं। उसका पालन करना अनिवार्य है। अगर किसी अभिभावक की कोई शिकायत है तो उससे अवगत कराना चाहिए। किताब-कॉपी से लेकर फीस तक की अगर कोई शिकायत है तो उसे साक्ष्य के साथ विभाग को उपलब्ध करा सकते हैं। इसके लिए खंड शिक्षा अधिकारियों की कमेटी बनाई गई है। जिनके स्तर से शहर से लेकर ग्रामीण स्कूलों के संबंध में मिलने वाली शिकायतों की जांच की जाती है। अगर शिकायत सही पाई जाती है तो उचित कार्रवाई सुनिश्चित कर दी जाती है।
अनूप कुमार तिवारी, बीएसए, बस्ती
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