बोले सीतापुर -बच्चों के 'नाजुक़ कंधों' पर भारी भरकम बस्ते का बोझ
Sitapur News - एक फ़िल्म के गाने की तरह, बच्चों के कंधों पर भारी बस्ते का बोझ है। शिक्षा की प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की अपेक्षाएं बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार बना रही हैं। डॉक्टरों का कहना है कि बस्ते का...

एक फ़िल्म का गाना बहुत प्रसिद्ध था कि 'सारी दुनिया का बोझ मैं उठाता हूं। जिसमें एक कुली ऐसा कहता है। अब ऐसा ही कुछ हाल मासूमों का है, जिनके नाजुक कंधों पर भारी भरकम बस्ते का बोझ है। अपने वज़न से लगभग आधे वज़न का बैग वह उठा रहे हैं। पहले ही तेज़ी से भागती दुनिया में पढ़ाई को लेकर कम्पटीशन का दौर है, जिसमें बच्चों पर पढ़ाई का ज़बरदस्त दबाव है। ऐसे में ये कई किलोग्राम के बस्ते बच्चों को शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से बीमार बना रहे हैं। स्वभाविक है कि बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है। जो उनके भविष्य के लिए चिंताजनक है। शहर से लेकर ग्रामीण इलाकों में हर माता-पिता का सपना होता है,कि उनका बच्चा मेहनत से पढ़ाई करे और अव्वल रहे। माता-पिता के ललक और स्कूल में प्रतिस्पर्धा के इन दौर ने बच्चों के कंधों पर उनकी क्षमता से ज्यादा बस्ते का बोझ डाल दिया। आज हालात ये हैं कि बस्तों के भारी बोझ तले बचपन कराह रहा है। उनके बचपन की मासूमियत और अनवरत सीखने की जिज्ञासा भी दम तोड़ रही है। यही नहीं बच्चो के स्कूल बैग का बोझ घटने के बजाय लगातार बढ़ता जा रहा है। चाहे अभिभावक हो या कोई अन्य सभी बस्ते के बोझ को बच्चों के समुचित विकास में बाधक मान रहे है। बावजूद इसके आज तक बच्चो को इससे छुटकारा दिलाने को लेकर विशेष पहल नहीं हुई है। अक्सर स्कूल के बस्ते का बोझ बच्चो की शारीरिक क्षमता से कहीं अधिक भारी होता है।
नई समस्या नहीं
अगर देखा जाए तो बच्चो के स्कूल के बस्ते का बोझ कोई नई समस्या नहीं है। लेकिन कभी भी इस ध्यान नहीं दिया गया। जिसकी वजह से आज यह गम्भीर चिंता का विषय बन गया है। आज हर शहर और कस्बो से छोटे- छोटे बच्चो की अपनी उम्र और वजन से ज्यादा भारी बस्तों का बोझ पीठ लाद स्कूल जाते बच्चों की तस्वीर देखने को मिल रही है। ये तस्वीरे काफी डराने वाली है। इन बच्चों के चेहरों पर थकान और परेशानी साफ झलकती है। डॉक्टरों और विशेषज्ञ लगातार का बात पर जोर देते आ रहे हैं भारी बस्तों का बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
रीढ़ की हड्डी और मांसपेशियां हो रही बीमार
चिकित्सकों का स्पष्ट कहना है कि बच्चों की रीढ़ की हड्डी और मांसपेशियां इस अनावश्यक बोझ सहने के लिए ठीक ढंग से विकसित नहीं हो पा रही हैं। जिसकी वजह से बच्चों की पीठ, गर्दन, कंधे में दर्द और मांशपेशियों में खिंचाव जैसी दिक्कतें आम हो गई हैं। डॉक्टरों का कहना है कि बस्तों का यह बोझ बच्चों की रीढ़ की हड्डी में विकृति और कुबड़ापन जैसी समस्याओं की वजह बन सकता है। हड्डी रोग विशेषज्ञ का मानना है कि बच्चों के बस्ते का वजन उनके शरीर के वजन से 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है। शहर के तमाम स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चे पांच से सात किलो वजनी बस्ता लेकर स्कूल आते हैं। इसके अलावा ऊपर की मंजिल पर लगने वाली कक्षाएं बस्ते के बोझ को परेशान करती हैं। चिकित्सक बताते हैं कि यह उनके नाजुक शरीर पर बहुत ज्यादा दबाव डालता है। जिससे उनका चलने-फिरने का तरीका भी प्रभावित होता है। पीठ पर बस्तों के भारी वजन की वजह से आमतौर पर बच्चे आगे की ओर झूक कर चलते हैं। जिनकी वजह से उनके चलने की स्वाभाविक मुद्रा में बदलाव आ जाता है। भारी बस्ते का बोझ बच्चो को मानसिक और भावनात्मक रूप से भी प्रभावित करता है।
बच्चों में बढ़ रहा तनाव
सुबह जगने के साथ ही भारी बस्ते का बोझ उठाने के विचार ही तनाव से भर देता है। स्कूल जाने की उत्सुकता की जगह उनके मन में एक बोझिल एहसास घर कर लेता है। कई बार यह बच्चों के पढाई में पिछड़ने की वजह भी बन जाता है। यही नहीं भारी बस्ते की वजह से क्लास में बच्चों किताबें और जरूरी सामग्री भी ढूंढने में कठिनाई होती है। जिस कारण उनका समय बर्बाद होता है। इन सबके बाद आज तक न तो स्कूल प्रबंधन और न ही किसी अभिभावक ने इस गम्भीर समस्या के समाधान को लेकर पहल की। बच्चों का बचपन और उनकी मासूमियत बरकरार रहे यह सभी की जिम्मेदारी है। बच्चों को भारी-भरकम स्कूल बस्तों के बोझ से कैसे निजात मिले, इसे लेकर अभिभावक और स्कूल प्रबंधन सभी को मिल कर इस गम्भीर समस्या का समाधान खोजना होगा।
अभिभावक भी परेशान
भारी स्कूली बस्तों के वजन से बच्चे ही नहीं अभिभावक भी परेशान हैं। लम्बे समय से अभिभावक इस गम्भीर समस्या के समाधान को लेकर सरकार की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। हालांकि भारी बस्ते की समस्या के समाधान के लिए सरकार और शिक्षा विभाग लगातार काम कर रहे है। जिसके क्रम में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी इस मुद्दे पर चिंता व्यक्त की गई है। इस संबंध में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएससी) सहित अन्य बोर्डों की ओर स्वयं भी स्कूलों को बस्ते का वजन कम करने के लिए सुझाव दिए गए है। जिसमें इ लर्निंग को बढ़ावा देने के साथ-साथ स्कूलों में लाकर आदि की व्यवस्था करना शामिल है। लेकिन इन तमाम दिशा-निर्देशों का जमीनी स्तर पर प्रभावी क्रियान्वयन आज भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। ज्यादातर स्कूल आज भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं और बच्चों को भारी बस्ते का बोझ ढोने के लिए मजबूर कर रहे हैं। जब शिक्षा विभाग इन दिशा निर्देशों को कड़ाई से लागू नहीं करता।
प्रिंटरिच परिवेश मिले तो कम हो बस्ते का बोझ
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूलों में प्रिंटरिच परिवेश की बात कही जा रही है। जिसके तहत स्कूलों में ऐसा वातावरण बनाया जाएगा जिससे बच्चों को लर्निंग मैटेरियल और कक्षा की दीवार पर लिखी पढ़ने वाली सामग्री की मदद से पढ़या जाएगा। जिले के सरकारी स्कूलों की बिल्डिंग को प्रिंटरिच तो बनाया जा रहा है, जिससे स्कूल के नौनिहालों की पढ़ाई को रुचिकर और बैग को हल्का बनाने में मदद मिलेगी। लेकिन आज भी जिले में कई ऐसे निजी स्कूल हैं जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मुताबिक प्रिंटरिच वातावरण रहित है। यहां पर छोटी कक्षा के बच्चों को पढ़ाई के लिए कापी किताबों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। बच्चों के बैग को हल्का करने के लिए भले ही शासन एवं प्रशासन स्तर पर कई तरीके से प्रयास किया जा रहा हो। लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर नजर आ रही है। बच्चों के बैग का बोझ कम नहीं हो पा रहा है। भारी भरकम बैग लेकर बच्चे स्कूल पहुंचते है। जिससे उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है।
शिकायतें एवं सुझाव
सुझाव
- एक विषय के लिए एक ही किताब तय की जाएं।
- समय सारिणी बने और उसका सही ढंग से पालन हो।
- स्कूलों में किताबों को रखने के लिए लॉकर की व्यवस्था की जाए।
- बच्चों को प्रतिदिन समस्त पाठ्य सामग्री लाने के लिए ना कहा जाए।
- परियोजना कार्य के लिए दी निर्धारित हो, ताकि बच्चे बोझ से बच सकें।
शिकायतें
- स्कूलों में एक ही विषय की कई किताबें पढाई जाती है।
- समय सारिणी का पालन नहीं होता, बच्चों को ज्यादा किताबें लेकर जाना पड़ता।
- स्कूलों में लाकर का इंतजाम नहीं, जहां किताबों को रखा जाए।
- रोज समस्त पाठ्य सामग्री मंगाई जाती, जबकि पढ़ाई चुनिंदा जाती।
- परियोजना कार्य की सामग्री भी रोज मंगाई जाती है।
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