डोली की जगह अब बनावटी रथ पर सवार हो रहे दूल्हा-दुल्हन
समय के साथ सब कुछ बदला, अब न तो डोली नजर आती है और न ही कहार त्ता डोली की चर्चा अब केवल फिल्मी गीतों तक ही सीमित रह गई है। डोली, पालकी या महरफा के बारे में नई पीढ़ी जानती तक नहीं

समय के साथ सब कुछ बदला, अब न तो डोली नजर आती है और न ही कहार 70 के दशक तक दूल्हा पालकी पर सवार ससुराल तो दुल्हन आती थी पिया के घर नासरीगंज, एक संवाददाता। शादियों का सीजन चल रहा है। समय के साथ बदलते दौर में लोक परंपराएं धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं। इन्हीं लोक परंपराओं में डोली पर सवार होकर दुल्हन के ससुराल जाने की परंपरा भी समाप्त हो रही है। नतीजन शादी विवाह के इस मौसम में न तो कहीं डोली नजर आती है और न उसे ढोने वाले कहार ही नजर आते हैं। अलबत्ता डोली की चर्चा अब केवल फिल्मी गीतों तक ही सीमित रह गई है।
डोली, पालकी या महरफा के बारे में नई पीढ़ी जानती तक नहीं है। बदलते दौर में शादी के हाईटेक होने के साथ दुल्हन की विदाई भी हाईटेक हो गई है। डोली की जगह बारात लगाने में बनावटी रथ ने ले ली है। गौरतलब है कि 70 के दशक तक दूल्हा पालकी पर सवार होकर अपने ससुराल जाता था। दुल्हन डोली में बैठकर अपने पिया के घर आती थी। पर अब यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो गई। वहीं कहार भी बेरोजगार हो गए या रोजी-रोटी के लिए दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था कर ली। बता दें कि बदले युग में गांव-कस्बों में भी डोली की प्रथा समाप्त हो गई है। आधुनिक युग में दुल्हन बोलेरो, स्कोर्पियो या छोटे वाहन से पिया के घर पलक झपकते ही पहुंच जाती हैं। वैसे ही बदलते दौर में बारातों से कलेवा करने वाली परंपरा खत्म हो गई है। क्षेत्र में अब न तो डोली नजर आती है और न ही कहार। बीते जमाने की कहानी बनकर रह गई डोली प्रथा ग्रामीणों की मानें तो डोली प्रथा बीते जमाने की कहानी बनकर रह गई है। आधुनिक चकाचौंध में हम अपनी पुरानी सभ्यता व संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि जल्दबाजी को लेकर समाज के लोग इसे भूलने लगे हैं। जिससे कहार जाति के लोग भूखमरी के कगार पर हैं। इसे बचाया भी जा सकता है। अगर हमारा समाज चाहे तो प्राचीन धरोहरों को बचाने का प्रयास किया जा सकता है। कहा शादियों में जाने वाली डोली समाज के इतिहास की ऐसी धरोहर है, जिसमें शादी के मंडप तक कहार उसे पहुंचाते थे। अब यह सिर्फ फिल्मों में ही देखने को मिलती है। चार कहार डोली में दूल्हन को बिठाकर सड़क या पगडंडियों से होते हुए उसके ससुराल तक पहुंचाते थे। अब यह सब गुजरे जमाने की बातें हो गई।
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